द्वैपायन
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अथातो संस्कृत-कथा
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समुद्रतट पर स्थित उस द्वीप पर एक विशाल जहाज अतीत में समुद्र में कभी डूब गया था। धीरे धीरे वहाँ का जल छिछला हो जाने से वह जहाज पुनः रेत पर उठने लगा था। पता नहीं वह किस लकड़ी से बना था जो मौसम, हवा और पानी, आँधियों और तूफानों के थपेडे़ खाता हुआ भी, क्रमशः जर्जर होता हुआ भी, गौरवपूर्वक मानों आकाश से बातें करता हुआ वहाँ खड़ा था। उसी प्रकार उस द्वीप पर उतना ही या उससे भी पुराना एक आकाशदीप-स्तंभ भी खड़ा था, जहाँ अब तक भी प्रतिरात्रि में कोई मशाल जला करती थी। उन दूर के जहाजों के लिए एक संकेत (या निमंत्रण!) की तरह, ताकि वे उस द्वीप के निकट न आएँ ! यह एक तरह की चेतावनी भी हो सकती थी और उनकी सुरक्षा के लिए दिया जानेवाला सांकेतिक उपाय भी।
फिर भी निकट के कुछ द्वीपों से मछुआरों तथा व्यापारियों की छोटी-बड़ी नौकाएँ प्रायः वहाँ आती रहती थीं। बहुत से लोगों ने उस जहाज पर अपना घर बना लिया था और वह जहाज अब भी अपनी जगह पर स्थित किसी विचित्र महल जैसा दिखाई देता था।
जहाज से एक नौका अब भी जंजीरों से बँधी थी, जो समुद्र की उठती गिरती लहरों पर डगमगाती रहती। यद्यपि इस तरह से वह जल-दस्युओं से सुरक्षित भी थी किन्तु वहाँ उसके होने का उसके या किसी और के लिए शायद ही कोई अर्थ या प्रयोजन रह गया था।
जब जब कोई दूसरी, वहाँ से गुजरती हुई कोई नौका उसके पास से आती-जाती, तो कभी कभी उनके बीच कोई बातचीत भी हो जाया करती थी।
उनकी बातों से उस नौका को हमेशा कौतूहल और आश्चर्य होता रहता था, किन्तु वह बस डगमगाती हुई अपने स्थान पर इधर से उधर आगे पीछे डोलती रहती।
उसमें योग्यता भी थी, इच्छा भी, और शायद उसे जरूरत भी थी कि वह किसी दिन अपने जहाज के बंधन तोड़ खुले समुद्र में अज्ञात सुदूर देशों की यात्रा पर निकल पड़े। किन्तु भय ही उसे ऐसा सोचने से भी रोकता था। जहाज से बँधी वह सुरक्षित और सुखी तो थी ही!
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