Sunday, 29 June 2025

The UpaniShadik Lore.

Three To Seven -

States of Existence.

Being, Happening and Becoming

Physics defines and deals with the three states of the substantial and the material existence in terms of : 

Mass, Space (Length /Distance) and Time, and are denoted by :

M, L and T.

In this way, A physical substance / entity consists of a 'quantity' and any, all and every such quantity could be expressed as MLT and these three parameters have degrees associated with them.

For example :

A geometrical straight line could be said to exists in and as 0-1-0 degrees of these three parameters. Quantitatively, has no mass, but has length only and is there is no relevance of Time. Is independent of Mass and Time parameters.

Mass, Space and Time are again there states of Being, while "Change" could be defined and (possibly) measured too in terms of Becoming and Happening.

A Change could therefore be defined and (possibly) measured too in terms of : Becoming and Happening only but,

A Change is (possibly) independent of the Mass and the Space, both, though covered and / or occupied by them, with reference to them.

Change is thus a hypothetical extension of The Moment in Time with reference to the assumed past and in the assumed  future. And again :

The Moment in Time in terms of the Present is quite unrelated, independent  and irrelevant with that assumed Past / Future.

So therefore all measure of Change is but hypothetical only.

All Knowledge, information exists or appears to exist in terms of :

Being, Happening and Becoming.

Anything that exists or appears to exist could be said in terms of  : Is, Happens or Becomes.

These three states of Being, Happening and Becoming again refer to something either as the object or the subject.

Therefore :

Change / transformation / mutation is brought about by a factor that is known or unknown, but permeates and pervades the object and also the subject.

This factor could be named either as the amalgam or the aqua regia that defines and dictates all Change.

Interestingly the two words :

Amalgam and Aqua Regia could be easily derived from the Sanskrit roots : From - अम्लकम्  / अव-मलकम्  and :

अव क्व राज्यीय. 

अम्लकम्  and अवराज्यीयम्  are therefore :

The Agents of Change, Mutation or the  transformation and are revealed as such through manifestation.

With reference to object and subject, the two are Happening and Becoming. Again the two could be said to be forms of the same Existence only, namely  :

It and I am, - respectively.

Tracing their Sanskrit roots we can see they are but the cognate of :

इदम्  and अहम् .

Conclusion :

With reference to :

माण्डूक्य उपनिषद्  /

ManDUkya UpaniShad,

where it is described as :

अन्तःप्रज्ञं बहिष्प्रज्ञं उभयप्रज्ञं अपि न अन्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं न उभयप्रज्ञं ...

The next part of this conclusion is left to the reader.

***





Friday, 27 June 2025

The Apparent and The Virtual

व्यावहारिक, आभासी और पारमार्थिक

महर्षि पतञ्जलिकृत योगदर्शन 

साधनपाद

के अन्तर्गत अष्टाङ्गयोग / अर्थात् योग के आठ अङ्गों में जिन पाँच सार्वभौम महाव्रतों का उल्लेख यम के रूप में है, उनमें से सत्य का स्थान अहिंसा के बाद आता है -

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-समाधयोऽष्टावङ्गानि।।२९।।

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।३०।।

क्योंकि अहिंसा परमो धर्मः।।  के अनुसार धर्म मूलतः आत्मा का ही स्वभाव है। कोई भी अपने आपके प्रति हिंसक नहीं हो सकता यह एक ऐसा स्वाभाविक सत्य है जिसे अनायास ही हर कोई न केवल जानता और मानता ही है, बल्कि इसका पालन और अनुसरण भी किया करता है और किसी के भी इसके विरुद्ध जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। इसलिए सत्य क्या है इस विषय में कितने ही मत मतान्तरित हों, इसे सभी सहमत हैं कि स्वयं के प्रति की जानेवाली हिंसा "अधर्म" ही है और इस बारे में किसी का भी किसी से कोई मतभेद नहीं हो सकता है।

इसलिए सत्य नामक जिस वस्तु को जिन तीन रूपों में ग्रहण किया जा सकता है वे सभी के लिए और सभी के संबंध में  व्यावहारिक, आभासी या प्रतिभासिक और पारमार्थिक यही तीन संभव प्रकार हो सकते हैं।

व्यावहारिक अर्थात् जिसे प्रयुक्त किया जा सकता हो - प्रयोज्य या Practical, आभासी अर्थात् जैसा प्रतीत होता हो - आभासी, प्रतिभासिक या  apparent / virtual, और -

पारमार्थिक  (Transcendental, Absolute, Timeless) - जो सदा और सर्वत्र ही विद्यमान और उपलब्ध हो, जिसका निषेध या खण्डन नहीं हो सकता :

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)

संसार को और संसार में अपने आपको संसार से भिन्न एक व्यक्ति विशेष की तरह अनुभव करना द्वैतानुभव है, जिसमें भिन्न भिन्न अनुभवों का सतत ही आगमन और प्रस्थान होता रहता है। इस सबकी पृष्ठभूमि में अवश्य ही किसी ऐसे तत्त्व की मान्यता स्वीकार की जाती है जो कि इन सतत परिवर्तनशील अनुभवों के आने और जाने के बीच अपरिवर्तित रहता है, और उसे ही "मैं" कहा जाता है। अगर थोड़ा ध्यानपूर्वक देखें तो विचार के रूप में यह "मैं" भी अन्य सभी विचारों से विलक्षण पुनः एक विशिष्ट विचारमात्र ही होता है और इस विचार का आगमन और प्रस्थान भी पुनः पुनः होता रहता है।

सभी विचारों और इस विशिष्ट विचार "मैं" के आने जाने को जिस चेतना  में जाना जाता है, वह निर्विचार और निर्विशेष अस्तित्व ही वह नित्य विद्यमान अपरिवर्तनशील और अविकारी (Immutable) अद्वैत वास्तविकता है जिसमें अपने व्यक्ति या इससे भिन्न कुछ और होने की कल्पना तक का अभाव होता है। किन्तु अपने आपके व्यक्ति-विशेष होने की कल्पना के उठने के बाद ही "मैं" / स्वयं को तो

अनुभवकर्ता के रूप में अपरिवर्तनशील

और सतत आते जाते रहनेवाले समस्त

उन परिवर्तनशील, अनेक और भिन्न भिन्न प्रतीत होते रहनेवाले 

अनुभवों, विचारों, भावनाओं और दृश्यों / घटनाओं (जो काल और स्थान पर अवलंबित होते हैं और इसलिए वे अनित्य भी हैं यह भी स्पष्ट है,) आदि का दृष्टा या साक्षी मान लिया जाता है।

इस प्रकार अपने "मैं" या "स्वयं" के एक व्यक्ति-विशेष होने की कल्पना तो नहीं, बल्कि यह स्मृति सत्य प्रतीत होने लगती है और उसी स्मृतिरूपी केन्द्र के इर्द गिर्द घूमते रहनेवाला व्यक्तिगत अस्तित्व या व्यक्ति ही संसार में फिर भी इस संसार से किसी रूप में बहुत भिन्न, पृथक् और स्वतंत्र कुछ जान पड़ता है। शायद ही इस विडम्बना और विरोधाभास से पूर्ण मान्यता पर किसी का ध्यान जा पाता है। सामान्यतः तो हर कोई स्वयं ही अपने को और अपने संसार को दो भिन्न वस्तुओं की तरह मानता हुआ स्वयं और स्वयं के संसार के बीच सतत ही सामञ्जस्य और तालमेल स्थापित करने के प्रयास में व्यस्त रहता है।व्यस्त और त्रस्त भी।

यदि कहें कि इस ब्लॉग का लेखक भी इस विडम्बना का शिकार था तो ऐसा कहना गलत न होगा।

बहुत समय तक 

"What it's all about! "

पर ध्यान देने और इस बारे में 

श्री रमण महर्षि,

श्री जे कृष्णमूर्ति और 

श्री निसर्गदत्त महाराज 

के साहित्य का अध्ययन करने के उपरांत ही लेखक के तथाकथित ज्ञान पर से अज्ञानरूपी वह आवरण दूर हो सका जिसने कि "सत्य" को आवरित कर रखा था। और फिर

महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता

के साथ साथ

अपरोक्षानुभूति, और विवेक-चूडामणि

जैसे ग्रन्थों के अध्ययन से यह समझ दृढ हुई कि इन सब में विद्यमान समान तत्व / सत्य क्या है!

तब मेरे मुख से अनायास ही ये शब्द निकले :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८)

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Thursday, 26 June 2025

After So Long A Time!

बहुत समय के बाद अन्ततः,

मुझे यह समझ में आया कि मेरे साथ क्या गलत है! या, इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मेरे जैसे कुछ इने गिने लोगों को छोड़कर बाकी सारे लोगों के साथ क्या कुछ ऐसा है जो 'अलग' है!

क्योंकि तब उसे 'गलत' कहना भी शायद ठीक / सही नहीं होगा। इसलिए उसे यहाँ मैं 'अलग' कह रहा हूँ। 

मैं मानता हूँ कि बिलकुल बचपन से ही, मैंने कभी किसी से जुड़ना ही नहीं चाहा। यहाँ तक कि जरूरत की वजह से किसी के साथ रहना पड़ा लेकिन उसकी वजह भी बस मजबूरी ही थी, न कि स्वाभाविक जुड़ाव या लगाव।जैसा कि प्रायः लोगों में अपने जैसी रुचियों, जरूरतों और समान परिस्थितियों की वजह से आपस में लगाव हो जाता है, और वे जिस तरह उस लगाव में कर्तव्य, अधिकार, अपराध या ग्लानि के बोध को अनुभव करने लगते हैं, मैंने दूसरों के साथ अपने संबंधों में वैसा कुछ कभी अनुभव नहीं किया। मैं हमेशा ही बिल्कुल अकेले रहना पसंद करता था। वैसे, लोगों के साथ रहने से भी मुझे कोई परेशानी भी  कभी नहीं होती थी, और अपने समुदाय में अपरिचित या परिचित लोगों से तालमेल या मेलजोल कर पाने में भी कभी कोई मुश्किल नहीं महसूस होती थी। किन्तु किसी भी स्थिति में मैं किसी से घनिष्ठता या अंतरंगता अनुभव नहीं कर पाता था। हाँ सुन्दर और आकर्षक स्त्रियों का साथ मुझे प्रिय अवश्य था किन्तु मुझे नहीं पता कि किस प्रकार की और कौन सी स्त्रियाँ मेरा साथ पसन्द या नापसन्द करते होंगी। और संयोग से मेरी कोई ऐसी स्त्री-मित्र भी कभी नहीं रही, जिसके साथ मुझे एकान्त में प्रेमालाप करने का अवसर कभी मिला हो। हाँ कभी हँसी मजाक आदि के कुछ अवसर भी अवश्य आए किन्तु उस समय दूसरे लोगों के बीच सामाजिक शिष्टाचार की मर्यादा का ध्यान तो रखना ही होता था। यह सब मुझे कभी कठिन प्रतीत नहीं हुआ। और अपने कार्यस्थल पर जिन लोगों के साथ रहना पड़ा उनमें सभी प्रकार के लोग थे ही। और वे सभी लोग भिन्न भिन्न प्रकार से भिन्न भिन्न स्थितियों में व्यवहार करते थे। कभी कभी झगड़े या मारपीट तक की स्थिति बन जाती थी, किन्तु उस हद से आगे कभी नहीं गई। मेरे ताकतवर न होने के बावजूद भी मैं उन स्थितियों से जैसे तैसे सुरक्षित बाहर निकल आया करता था। किन्तु वह एक बिलकुल अलग बात है। और अन्यत्र मैं अकसर ही बहुत स्वतंत्र अनुभव करता था। न किसी सहारे की और न कोई और जरूरत महसूस होती थी न ऐसी उम्मीद ही मुझे होती थी। उदाहरण के लिए वर्ष 1986 के होली के अवसर पर मैं सोमनाथ की यात्रा पर था और वेरावल में श्रीनिवास या कुछ इससे मिलते जुलते नाम वाली किसी लॉज में रुका था। सुबह उठते ही चाय नाश्ता करने के लिए सामने रोड के पार की गुमटीनुमा एक दुकान पर चला गया था। चाय नाश्ता कर लौटा तब सुबह के नौ बजे रहे थे। मैं जिस ऊपरी मंजिल पर रुका था वहाँ मेरे जैसे लगभग आठ दस और पलंग थे। लगभग सभी खाली थे। एक साधु भी उस हॉल में रुका हुआ था। मैं बाहर जाने के लिए तैयार था कि अचानक बाहर शोरगुल होने लगा। मैंने खिड़की से देखा तो उसी दुकान में आग लगी हुई थी। थोड़ी ही देर बाद विस्फोट की आवाजें आने लगें तो किसी ने कहा कि आग में टी वी फूट रहे हैं। वहीं, जहाँ पर पाँच मिनट पहले ही मैंने चाय नाश्ता किया था। उस समय भी जब मैंने उस दुकान पर दो तीन टी वी देखे थे तो मुझे आश्चर्य हुआ था, क्योंकि तब मेरी इतनी हैसियत और जरूरत भी नहीं थी कि मैं एक भी टी वी खरीद सकता था। दोपहर ग्यारह - बारह बजे के आसपास उस लॉज के मालिक ने दो तीन कर्मचारियों के साथ लोहे के रॉड्स वगैरह इकट्ठा कर लिए थे। वह साधु इस सबसे बेफिक्र होकर उससे पूछ रहा था कि खाने के लिए उसे क्या मिल सकता है। मैंने लॉज के मालिक से स्थिति के बारे में पूछा तो वह बोला - "हालात और खराब होनेवाले हैं, बेहतर होगा अगर आप जल्दी से जल्दी यहाँ से निकल जाओ!" तो मैंने भी अपना बैग उठाया और वहाँ से निकल पड़ा। उस टी वी वाली दुकान से थोड़ा आगे चौराहे पर पहुँचा ही था, कि वहाँ मौजूद पुलिसवाले ने लाठी फटकारते हुए मुझसे गुजराती भाषा में पूछा "कहाँ जा रहे हो?" मैंने सहमते हुए हिन्दी में कहा "यहाँ लॉज में रुका था, वहाँ उसने मुझसे कहा कि जल्दी से स्टेशन चले जाओ, यहाँ हालात ठीक नहीं है।" पुलिसवाले ने अपना डंडा उठा कर चीखकर मुझसे कहा "भाग जा!" और मैं भागकर वहाँ से जैसे तैसे स्टेशन पहुँच गया। जल्दी ही राजकोट जाने के लिए गाड़ी मिल गई। और भक्तिनगर स्टेशन पर शाम को पहुँच गया। उन दिनों मैं उसके ही सामने स्थित एक कॉलोनी में एक कमरे में किराए से रहता था।

कहने का मतलब यह कि मुझे कभी किसी से जुड़ाव होता ही नहीं था। उन दिनों मैं स्वामी विवेकानन्द की किताबें पढ़ता था और आचार्य रजनीश की किताबों की ओर आकर्षित था। उनके विचारों से मैं राजी तो था किन्तु तब तक स्वामी विवेकानन्द और उनकी शिक्षाओं के बीच के द्वंद्व से मुक्त नहीं हो पाया था। चूँकि मैं विवाह के फंदे में नहीं फँसना चाहता था और न ही किसी लड़की को तथाकथित मुक्त प्रेम के धोखे में रख सकता था इसलिए भी मेरे लिए इस "अनुभव" से गुजर पाना आसान ही था। मेरे उस समय के दूसरे मित्रों के लिए इस तरह की कोई समस्या नहीं थी। बस एक दो मित्र ही ऐसे थे जिन्होंने पता नहीं किस कौशल से स्वामी विवेकानन्द और आचार्य रजनीश की शिक्षाओं के बीच एक गजब का संतुलन और तालमेल साध रखा था और इसलिए मैं मजाक में उन्हें साधु, और वे मुझे पाखंडी कहा करते थे। एक बात यह भी थी कि मेरे व्यक्तित्व में डरपोक और तथाकथित नैतिक किस्म का एक दब्बूपन भी था, जिसके कारण भी मुझे वे पाखंडी समझते थे। और मैं उन्हें यह नहीं समझा सका कि मैं क्यों और कैसे उनसे कुछ अलग हूँ। उनका समाज और किसी न किसी से, या बहुत से लोगों से लगाव और जुड़ाव था जबकि मुझमें ऐसे किसी प्रकार के लगाव या जुड़ाव से जुड़ने की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी। अभी तक मैं यह भी तय नहीं कर सका था कि स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम और यौन संबंधों के बीच की सीमा-रेखा कहाँ और क्या है, और उस समय के सामाजिक परिवेश में इसे समझ पाने के लिए उपयुक्त वातावरण भी मुझे उपलब्ध नहीं था। कुल मिलाकर मैं बस राजकोट स्थित श्रीरामकृष्ण मठ में जाकर सुबह शाम और रविवार या छुट्टी के दिन भी ध्यान किया करता था, जो कि मेरे बैंक के रास्ते में पड़ता था। राजकोट तब एक खूबसूरत शहर था और मेरा वहाँ कोई परिचित न होने से मेरे दिन बहुत अच्छे से गुजर रहे थे। 1986 और 1987 मैंने वहीं गुजारे। और 1988 और 1989 सूरत में, जो उतनी ही एक बदसूरत जगह थी / है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि समाज और "दूसरों" पर मेरी निर्भरता कम से कम होती चली गई और चूँकि मेरे हृदय में यह बात अच्छी तरह से बैठ गई कि सभी और हर प्रकार के ही संबंध स्मृति में और स्मृति पर ही निर्भर केवल मानसिक अस्थिर और अस्थायी अवस्थाएँ मात्र हैं इसलिए भी मैं यह समझने की चेष्टा करने लगा कि क्या स्मृति पर निर्भर संबंधों को सदा निभाया जा सकना संभव भी है! और इसीलिए मैं सोचने लगा कि मेरे लिए संसार की किसी वस्तु, व्यक्ति, विचार या सिद्धान्त, आदर्श, और काल्पनिक भगवान आदि से जुड़ाव या लगाव हो या कर पाना असंभव है।

इसकी एक और दूसरी वजह यह भी थी और मुझे स्पष्ट हो गया था कि जब किसी से भी मेरा संवाद तक नहीं हो सकता, तो जुड़ाव या लगाव होना तो बहुत ही दूर की बात है।

यहाँ से मेरा जीवन बहुत बदल गया। अब  किसी भी से परिचय होने पर मेरे मन में यह प्रश्न उठने लगा कि वह कौन सी वस्तु है जो कि हम दोनों को परस्पर जोड़ती है, और उस वस्तु के अभाव में संबंध और संवाद के लिए क्या आधार हो सकता है। इतना समझ में आ जाने के बाद से अब मेरा किसी से न तो लगाव और न जुड़ाव हो पा रहा है।

इस समझ के उत्पन्न के बाद,

अष्टावक्र गीता के ये दो श्लोक मेरे लिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं -

जनक उवाच -

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कथं ज्ञानमवाप्नोति

कथं मुक्तिर्भविष्यति।

वैराग्यं च कथं प्राप्त-

मेतद् ब्रूहि मे प्रभो।।१।।

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अष्टावक्र उवाच -

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मुक्तिमिच्छसि चेत्तात-

विषयान्विषवत् त्यज। 

क्षमार्जवदयातोष-

सत्यं पीयूषवद्भज।।२।।

Then This Happened 

Please See In The Next Post...

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Friday, 13 June 2025

3R

एषः धर्म: सनातनः।।

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यो उद्बभूव प्रथमे, गन्तास्ति स अन्तिमे

यो उद्बभूव मध्यमे, गन्तास्ति स मध्यमे।

यो उद्बभूव अन्तिमेऽपि, गन्तास्ति सः प्रथमे

यो नोद्बभूव न गन्तास्ति, वर्तते तद्सनातनः।।

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Sunday, 24 November 2024

Prabuddha Bharat.

प्रबुद्ध भारत

न केवल भारत में ही बल्कि संपूर्ण पूरे संसार में प्रत्येक नागरिक ही समय के साथ साथ राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व होता जा रहा है। और फिर भी यह भी सच है कि परिस्थितियों के प्रभाव से एक ओर तो इस तरह से परिपक्व होने के साथ ही दूसरी ओर कट्टर, दुराग्रही और अतिवादी या विवेकयुक्त, संवेदनशील, यथार्थवादी भी होता जा रहा है।

राजनीतिक परिपक्वता  

और यह परिपक्वता उसमें यथार्थ के प्रति जागरूकता के साथ उसे कट्टरता और दुराग्रहपूर्णता के प्रति सचेत भी कर बना रही है।

किन्तु दुर्भाग्य से, राजनीति का व्यवसाय करनेवाले लोग, जो किसी भी वर्ग या समुदाय से आते हों, उसे दिग्भ्रमित बनाए रखने का प्रयास करते रहते हैं। और यह भी सच है कि ऐसे लोग हर और प्रत्येक ही राजनीतिक दल में पाए जा सकते हैं। किन्तु लगता है कि राजनीतिक दृष्टि से विवेकयुक्त, संवेदनशील  और यथार्थवादी प्रबुद्ध लोगों का एक ऐसा वर्ग भी अब उठ खड़ा हुआ है, जिसका इस प्रकार की राजनीति का व्यवसाय करने वाले सत्तालोलुप समूहों (या राजनीतिक दलों) से मोहभंग हो चुका है और वे अपने विवेक से देश में होनेवाले चुनावों में मनुष्यमात्र के राष्ट्रीय और वैश्विक हितों को ध्यान में रखकर मतदान करने लगे हैं। और इसलिए के यह देखा जा सकता है कि राजनीतिक गतिविधियों की समीक्षा करनेवाले अब निश्चयपूर्वक कुछ कह पाने में असमर्थ होने लगे हैं।

यहाँ प्रस्तुत लिंक इसी यथार्थ का सूचक है।

क्या यह संभव है कि किसी भी सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक समूह में हर कोई कट्टर, दुराग्रही और देश तथा संसार के राजनीतिक यथार्थ को देख पाने में असमर्थ हो? इसलिए यह प्रश्न कि क्या किसी भी वर्ग-विशेष का प्रत्येक ही व्यक्ति सामूहिक रूप से किसी विशेष उम्मीदवार या दल के पक्ष में मतदान करता है या नहीं करता है, अपने आपमें भ्रामक है।

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Wednesday, 31 July 2024

एकमात्र वजह!

जीवन : सार-संक्षेप 

मनुष्यमात्र सिर्फ अपनी गलतफहमियों के कारण ही सुखी या दुःखी होता है। जिसे कोई गलतफहमी नहीं होती, या जैसे ही किसी की सभी गलतफहमियाँ दूर हो जाती हैं वह बस धन्य हो जाता है। 

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Wednesday, 17 July 2024

18/59 यदहङ्कारमाश्रित्य

Shrimadbhagvad-Gita

and

The Choiceless Awareness.

Shrimadbhagvad-gita begins with the conclusive determination /choice of Arjuna :

Chapter 2, Stanza 9

सञ्जय उवाच :

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।। 

न योत्स्य इति गोविन्दमूक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

(अध्याय २)

Chapter 18, Stanza 59

(श्रीभगवानुवाच)

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

(अध्याय १८)

What a coincidence! 

The Text of this Greatest classic of all times concludes / strikes the same Note  where it had started -- 

न योत्स्य (अहं न योत्स्ये इति)

Chapter 2 stanza 09 and Chapter 18 stanza 59.

The emphasis is in the phrase :

यदहङ्कारमाश्रित्य (यत् अहङ्कारं आश्रित्य)

Shrikrishna exhorts Arjuna :

If you are subject to ego and decide that shall not engage in the War, this your choice is indeed futile, because the  प्रकृति  / the nature would force upon you this and you can't disobey the dictate of the nature, you shall be compelled to fight.

Here is a "scriptural lock" where only a truly wise a man could see this lock and has the key to it.

Here no A. I. could be of any help to you!

Shrikrishna points out to Arjuna :

You're supposed to understand what is :

The Choiceless Awareness.

Usually a common reader would think that Shrikrishna is telling Arjuna to go to war and get engaged in the war. 

So here is yet another 

"Lock on the Lock!"

The another lock that one fails even to see is about the relinquishing the sense of doer-ship - I'm free to exert my choice, - what the advocates of "the Free Will" assert.

Will, Choice, determination on the part of the mind too are subject to the nature that is inherent spirit behind whatever happens.

This is verily the tenet and the wisdom of the साङ्ख्य दर्शन / sAMkhya Principle.

Arjuna too fails to see and understand the catch / lock. He is obsessed with the idea :

I'm free to decide what I need to do, should, and act accordingly.

This is the very ignorance, everyone is possessed by from one's birth itself.

The following stanza 27 of Chapter 7 points out this rather candidly :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

(अध्याय ७)

O Man of Great Striving and Penance! 

All living beings from their very birth, are subject and a victim to the delusion caused by desire and envy / hatred.

This delusion because of the desire and the envy is there in the nature of all and everyone. This is indeed the ego.

Another point is that Shrikrishna is not forcing the War upon Arjuna.

Shrikrishna doesn't say or order Arjuna to fight. Shrikrishna merely points out :

Discard only the sense of doer-ship - the idea :

 I shall do, or I shall not.

This is rather difficult to understand that this idea is the only conflict and is to be overcome by means of

Choiceless Awareness (of What Is)

This could be again explained by the way of rephrasing the same in the following :

Automatic Divine Action.

Which could be supported by the stanza 14, 15 of Chapter 18 viz. 

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।

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