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Monday, 2 January 2023

यत्किञ्च जगत्यां जगत्।

अथ शान्तिपाठः

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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। 

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः 

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मंत्र १

ईशावास्यमिद्ँसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। 

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।

मंत्र २

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः। 

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।

मंत्र ३

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।

ताँ'स्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।३।।

मंत्र ४

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्मर्षत्।

तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।

मंत्र ५

तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके।

तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।५।।

मंत्र ६

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति। 

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।६।।

मंत्र ७

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। 

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।७।।

मंत्र ८

स पर्यगाच्छुक्रमकाय-

मव्रणमस्नाविर्ँ शुद्धमपापविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूस्वयंभूर्याथातथ्यतो-

ऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।८।।

मंत्र ९

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ' रताः।।९।।

मंत्र १०

अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया।

इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्व विचचक्षिरे।।१०।।

मंत्र ११

विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभय्ँ सह। 

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।११।।

मंत्र १२

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ'रताः।।१२।।

मंत्र १३

अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।

इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद् विचचक्षिरे।।१३।।

मंत्र १४

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद् वेदोभय्ँ सह। 

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते।।१४।।

मंत्र १५

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। 

तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।१५।।

मंत्र १६

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजा-पत्य व्यूह रश्मीन् समूह।

तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि

योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि।।१६।।

मंत्र १७

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त्ँ शरीरम्। 

ॐ क्रतो स्मर कृत्ँ स्मर क्रतो स्मर कृत्ँ स्मर।।१७।।

मंत्र १८

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम-उक्तिं विधेम।।१८।।

।। यजुर्वेदीय ईशावास्योपनिषद् समाप्त।।

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शान्तिपाठः

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। 

ॐ शान्तिः शान्तिः  शान्तिः 

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Friday, 8 July 2022

अर्ज़ किया है!

संस्कृत, अरबी, उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी 

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शायर अपनी शायरी की शुरुआत में कहता है :

"अर्ज़ किया है!"

अगर इसे संस्कृत में निवेदन करता, तो कहता :

अर्चितमस्ति -- अर्चयामि, 

अगर इसे हिन्दी में कहता, तो कहता :

अर्चना करता हूँ, 

अगर अंग्रेजी भाषा में कहता, तो कहता :

It's urgent / urged.

ऋषि कहता है :

ऋ वर्ण का विस्तार  ऋजु, ऋक् में होता है। भाषा-शास्त्र, स्वर और वर्ण के बोध से उत्पन्न विज्ञान है। 

ऋच् प्रत्यय से ऋक्, ऋच्, ऋज् का आगम होता है। 

ऋक् से ऋग् ऋग्वेद, ऋच् से ऋचा / अर्च, और ऋज् से ऋजु, अर्जन, अर्जुन की व्युत्पत्ति होती है। 

संस्कृत भाषा इसलिए अन्य सभी व्युत्पन्न भाषाओं जैसी कोई व्युत्पन्न भाषा नहीं है। संस्कृत भाषा काल-निरपेक्ष वास्तविकता है, न कि कोई नई या पुरानी भाषा। इसलिए संस्कृत भाषा अन्य भाषाओं की जननी है, ऐसा कहना भी पूर्णतया सत्य नहीं है। 

फिर भी सभी भाषाएँ संस्कृत से इस रूप में अवश्य ही संबद्ध हैं क्योंकि किसी भी भाषा का जन्म स्वरों और वर्णों के प्रयोग से ही होता है। इसलिए भिन्न भिन्न भाषाओं में शब्दों का उद्गम कहाँ से हुआ, यह तो खोजा जा सकता है, किन्तु भिन्न भिन्न भाषाओं का व्याकरण तो उन विभिन्न समुदायों की विशेष परिस्थितियों, मानसिक प्रवृत्तियों आदि से प्रभावित अवश्य हुआ।

भाषा-शास्त्र या भाषा-विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत भाषा में, इसी प्रक्रिया का अध्ययन होता है। अन्य सभी भाषाओं के व्याकरण का आधार उनके पारंपरिक प्रयोग का तरीका होता है, जबकि संस्कृत के व्याकरण का आधार स्वरों और वर्णों से कोई शब्द कैसे बन सकता है, तथा उस शब्द का संज्ञा, सर्वनाम, क्रियापद, विभक्ति तथा अव्यय, प्रत्यय आदि में प्रयोग कैसे करने पर वह किस भाव का द्योतक होगा, इस पर निर्भर होता है।

शायद इसीलिए संस्कृत भाषा का अध्ययन करनेवाला अनायास ही लगभग सभी भाषाओं की मौलिक संरचना को सरलता से समझ सकता है। लिपि-शास्त्र और ध्वनि-शास्त्र की भूमिका भी इस संबंध में महत्वपूर्ण है और संस्कृत भाषा की संरचना में इस पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है यह भी स्वीकार करना होगा। 

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