कविता : यह जीवन ही गुरुकुल है!
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एक सादा सा अपना ऐसा ही घर हो कहीं,
ऐसे ही अपने घर में अपना बसर हो कहीं!
समीप ही कोई झरना या सरोवर हो कहीं,
न हो घोर गहन वन, या महानगर कहीं!
हो रही हो नित्य प्रज्वलित अग्नि हवन की,
ऐसा वह ऋषि-आश्रम, भूमि याग-यज्ञ की!
गौएँ हों, गोवत्स हों, बाल-गोपाल और, गौशाला,
आचार्यों का द्विजों का विद्यालय हो, पाठशाला,
छात्रगण जहाँ करते हों, नित्य पाठ वेद-मन्त्रों का,
और ऋषि-पत्नियों की हो, पवित्र एक पाकशाला!
भोर से बहुत पहले ही, ब्रह्म-मुहूर्त में ही उठ,
शौच आदि नित्य नियत कर्मों से हो निवृत्त,
दत्तचित्त स्वाध्याय, संध्यादि कर्म में हों प्रवृत्त।
फलाहार, दुग्ध दधि घृत, अन्न आदि का सेवन,
पाकर तृप्ति सात्त्विक, संतोष, पुष्टिदायी भोजन,
घड़ी भर विश्राम भी हो, गोधूलि वेला में पुनः जब,
लौटती हों धेनुएँ, संध्या में गोपालकों के साथ तब,
जब वह सन्ध्या सिन्दूरी हो, सायं पुनः सन्ध्याकर्म,
वेदमंत्रों से अग्नि में हवन, याग-यज्ञ आदि निज-धर्म,
अनुष्ठान चारों वर्णों के, चारों आश्रमों के धर्म।
सावधान हो कर्तव्य सतत कि, न हो कहीं अधर्म।
देवता अग्नि हो प्रकट प्रत्यक्ष समक्ष सभी रूपों में,
तमोहर, वैश्वानर, व्याधिहर, प्रज्वलित स्वरूपों में।
वन्य जन्तु-जीवों से सबकी ही वह रक्षा करे,
वनस्पतियाँ,ओषधियाँ, अन्न सबकी क्षुधा हरे।
वायु ऐसी हो सुरभित, प्राणमयी, जीवनमयी,
देवता हों प्रसन्न तुष्ट, प्रकृति भी हो, वरदायिनी।
शीतल जल, अमृत जैसा, और वायु जैसा ही,
पालक हो, पावन हो, उस पुण्य-भूमि जैसा ही,
न हो भय शत्रुओं का, दुर्भिक्ष, या आधि-व्याधि,
प्रीति हो अभिवृद्धि हो, स्नेह, अभय, समृद्धि!
पुरुषार्थपूर्ण जीवन के चार क्रम बीतें सार्थक,
न हो संताप, क्षोभ, शोक, व्याकुलता, निरर्थक।
मन में न हो लोभ, भय, संदेह, अविश्वास या संशय,
सब पूर्ण हों संकल्प शुभ, कर्त्तव्य, और सभी निश्चय।
कृषि, गौरक्ष्य, वाणिज्य, वणिक् वर्ग के हों कर्तव्य,
वीरता, रक्षा, उत्साह, पराक्रम, शौर्य हों क्षत्रियों के,
द्विजवर्ग अध्ययन, पठन पाठन करें धर्म-शास्त्रों का,
क्षत्रिय प्रशिक्षण, अभ्यास, एवं संचालन शस्त्रों का।
शूद्र वर्ग करे सेवा सभी वर्णों की, अवर्णों की भी,
नारी हो आर्या, वत्सला, नारी, माता जैसी सबकी।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, हो आचरण,
न कि हिंसा, असत्य, स्तेय, अमर्यादा, कलह, या दुराचरण।
उन्नति का यही वह पथ, पुरातन जो है सनातन धर्म,
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ श्रेयस्कर, जो है मर्म।
जहाँ सभी सुखी हों और सभी हों निरामय,
न कोई भी हो दुःखी, प्रसन्न और विगतभय ।।
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हमारे दुर्भाग्य से सनातन-धर्म के विरोधियों द्वारा एक दुष्प्रचार यह किया जाता है कि वर्णाश्रम धर्म जातिवाद का समर्थक है, इसके प्रत्युत्तर में यही कहा जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ में स्पष्टतः कहा गया है कि किसी भी मनुष्य का वर्ण मनुष्य के गुण और कर्म (की प्रवृत्तियों) के अनुसार होता है। इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि जाति, मुख्यतः मनुष्य, या उसके वंश के आजीविका के प्रकार से तय होती है, न कि उसके गुण और कर्म (की प्रवृत्तियों) से। किसी मनुष्य का वर्ण उसके जन्म से नहीं, उसकी प्रवृत्तियों और कर्म के प्रकार से ही माना जाना चाहिए। और इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपना वर्ण चुनने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। गीता या सनातन-धर्म इसलिए न तो जाति-प्रथा को, और न ही जन्म पर आधारित वर्ण को निर्णायक मानते हैं।
न तो कोई वर्ण अन्य किसी वर्ण से ऊँचा है, न नीचा है। और न ही वे समान हैं। सबकी अपनी अपनी विशेषता अर्थात् गुण तो हैं, किन्तु किसी में भी कोई दोष नहीं है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
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