रक्षा-सूत्र (रक्षा-बन्धन पर्व)
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मेरे दूसरे किसी ब्लॉग में वेदव्यास, क्षिति, परिधि, और क्षितिज से संबंधित कथाओं के क्रम में ही यह एक नई और अभी अभी ही रचित कथा है। श्रावणी इस पर्व का ही एक और नाम है। इस तिथि को ब्राह्मण अपने पुराने यज्ञोपवीत को विसर्जित कर नया रक्षासूत्र / यज्ञोपवीत ग्रहण और धारण करते हैं।
संक्षेप में कथासूत्र एक बार पुनः :
महर्षि वेदव्यास की पत्नी का नाम था क्षिति, उनकी दो संतानें थीं क्षितिज नामक पुत्र, और परिधि नामक पुत्री।
रक्षाबन्धन के इस पर्व की तिथि पर भगवान् महर्षि वेदव्यास जी ने अपने पुत्र और पुत्री को श्रावणी उपाकर्म का महत्व समझाया और उन्हें यह शिक्षा दी।
"वत्स! प्रत्येक वर्ष, श्रावण मास की शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन यह उपाकर्म किया जाता है। श्रावण मास श्रुति के श्रवण के लिए उपयुक्त है। इस तिथि को ही संस्कृति ने धर्म को अपनी रक्षा के लिए रक्षासूत्र के बन्धन में बाँधा था। यह सनातन काल से चला आ रहा क्रम है जिसका उल्लंघन करना समस्त संसार के लिए अनिष्टकारी होता है। संस्कृति तथा धर्म का, परस्पर क्रमशः बहन-भाई का संबंध है। जब तक संस्कृति और धर्म के बीच के इस संबंध का निर्वाह किया जाता है, तब तक संसार में सर्वत्र सुख-शान्ति बनी रहती है। जैसे ही इस संबंध का विस्मरण हो जाता है, संसार में क्लेश, कष्ट दुःख और व्याधि उत्पन्न होने लगते हैं।
इसे स्मरण रखने का सरल उपाय यह है कि बहन अपने भाई के माथे पर कुंकुम का तिलक लगाकर उसकी दक्षिण कलाई पर रेशम के धागे से बने इस रक्षा-सूत्र को बाँधे ।
दाहिना हाथ रक्षा के कर्म का द्योतक है,जबकि माथा, कपाल, भाल, स्मरण और संकल्प का।
केवल परिवार या वंश के लिए ही नहीं, पूरे संसार के कल्याण के लिए ही यह एक पावन और अत्यन्त ही शुभ कार्य है।"
सर्वे भवन्तु सुखिनः।
।। इति रक्षाबन्धन-पर्व कथा।।
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