ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति।
-----------©------------
चूँकि 'यहाँ' और 'वहाँ' समय-निरपेक्ष सत्य है, और 'तब' और 'अब' समय-सापेक्ष, इसलिए 'तब समय नहीं था' ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं होगा।
फिर भी, यहाँ और वहाँ, अब और तब भी, चेतना का अस्तित्व तो निर्विवादतः अकाट्यतः सत्य और स्वप्रमाणित है ही। चेतना नामक तत्त्व को भी उसके स्वरूप के अनुसार पुनः दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। एक तो वह, जो शरीर के रूप में किसी जीव अर्थात् जैव इकाई (organism) में संगठित (organized) चेतन प्राणी विशेष, जो इन्द्रियों के माध्यम से अपने आसपास के संसार को जानता है। जानने का यह रूप शाब्दिक या स्मृतिगत न होकर केवल संवेदन का प्रकार होता है - जैसे दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद को जानना। इन सभी संवेदनों को शब्द से संबद्ध किए बिना भी, वैसे भी अनुभव-गम्य भिन्न भिन्न प्रतीतियों के रूप में जाना जाता है, और इसके बाद ही उन अनुभवों से उन्हें अनुकूल या प्रतिकूल, प्रिय या अप्रिय आदि प्रकारों में ग्रहण कर लिया जाता है। प्रिय को सुखद और अप्रिय को दुःखद कह सकते हैं। कोई विषय कभी तो प्रिय और कभी अप्रिय भी प्रतीत हो सकता है।
इस जैव या शरीर में उत्पन्न चेतना को शारीरिक तत्त्वों, पदार्थों, रसायनों और स्नायविक प्रणाली में विद्यमान सूक्ष्म वैद्युत संचार का परिणाम माना जाए तो प्रश्न उठता है कि इस शारीरिक जैव चेतना के अभाव में 'जो है', उसे कौन जानता होगा? यदि यह माना जाए कि इस प्रकार का जाननेवाला कोई अस्तित्वमान ही नहीं है, तो इसकी सत्यता का क्या प्रमाण है? विज्ञान कार्य और कारण के बीच, तथा कारण और परिणाम के बीच तर्कसंगति स्थापित कर किसी ऐसे सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता है, जिसे अचल, अपरिवर्तनशील नियम की तरह स्वीकार किया जा सके। जो सदा और सर्वत्र सत्य हो। स्पष्ट है कि यदि ऐसा कोई सत्य होता हो तो वह स्थान-निरपेक्ष और काल-निरपेक्ष होगा।
इस प्रकार 'वहाँ' काल और स्थान का महत्व समाप्त हो जाएगा। विज्ञान द्वारा अभी तक क्या ऐसा कोई सत्य प्राप्त किया गया है, या किया जाना संभव है?
सत्य को प्राप्त करने का अर्थ हुआ -- (उस) सत्य को जानना, और यह जानना बुद्धिगम्य नहीं हो सकता, -- बुद्धि के माध्यम से उसे नहीं जाना जा सकता क्योंकि जैसा कि अभी कहा गया, -- बुद्धि वह प्रतीति है, जो जैव अनुभूतियों का परिणाम है और जो शरीर रूपी संगठित कार्य-प्रणाली के अनेक कार्यों में से ही केवल एक है।
तात्पर्य यह हुआ कि विज्ञान कभी भी उस सत्य को जान नहीं सकता । और यह भी पूरी तरह तय है कि उसका अस्तित्व है, और इसे विज्ञान अस्वीकार भी नहीं कर सकता।
उसे ही चेतना का वह प्रकार कहा जाता है जो असंख्य शरीरों में वैयक्तिक व्यक्ति चेतना के रूप में प्रकट होता है।
किन्तु मनुष्य मात्र अन्वेषण और अनुसंधान के माध्यम से, और बुद्धि की सहायता लिए बिना ही उस सत्य को निजता के रूप में अनायास अवश्य ही जान सकता है।
इसे ही
'प्रज्ञानं ब्रह्म'
महावाक्य से व्यक्त किया जाता है।
यह प्रज्ञान; - जानना, यह निजता ही स्वरूपतः वह चेतना है, जो शरीर में व्यक्त चेतना की तरह का परिणाम नहीं, बल्कि वह एकमात्र उद्गम है, जहाँ से समस्त जगत् की प्रतीति अस्तित्व की तरह होती है। जगत् परिणाम है।
इसलिए उसे 'वहाँ' या 'यहाँ' तो कहा जा सकता है, 'तब' / 'अब' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह काल-निरपेक्ष सत्य है। चूँकि 'वहाँ' और 'यहाँ' सार्वत्रिक के अन्तर्गत हैं, इसलिए उसे 'वहाँ' या / और 'यहाँ' भी कहना अनुपयुक्त न होगा।
***
No comments:
Post a Comment