Sunday, 22 January 2023

अनेजदेकम्

मंत्र ४

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।।

तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।

अन्वय : अन्-एजत् एकं मनसः जवीयः न एनत् देवाः आप्नुवन्  पूर्वं-अर्षत् । तत् धावतः अन्यान् अति-एति, तिष्ठत् तस्मिन् अपः मातरिश्वा दधाति।।

सरल अर्थ : वह (काल) मन से भी अधिक तीव्र वेग से चलता है, दौड़ते हुए उसकी गति को देवता भी न पकड़ पाए । यद्यपि वह (काल) दौड़ते हुए सबका अतिक्रमण कर जाता है, तथापि वह पूर्ण अचल है, उसकी इस अचलता में ही वर्षा, वाष्परूपी जल, श्वास रूपी प्राण अर्थात् जीवन प्रतिष्ठित हैं।

भावार्थ : काल के आदि और अन्त को कौन जानता है? सम्पूर्ण जीवन काल के अन्तर्गत गतिशील है, जबकि काल चलायमान (प्रतीत होते हुए भी) नितान्त निश्चल, शाश्वत्, सनातन, चिरन्तन उनका अधिष्ठान है। 

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