मंत्र ३
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।३।।
अन्वय : कुर्वन् एव हि कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एवं त्वयि न अन्यथा इतः अस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।
सरल अर्थ : मनुष्य को चाहिए कि कर्म करते हुए वह सौ वर्ष तक जीते रहने की इच्छा करे। इससे अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे कि मनुष्य श्रेयस् की प्राप्ति कर सके। वैसे भी कर्म मनुष्य को नहीं बाँधता, कर्म मनुष्य को उसके दृष्टिकोण के ही अनुसार बाँधता या मुक्त करता है।
विशेष अर्थ : 'शतं समाः' का अर्थ है सौ या बहुत वर्षों तक।
सं - वत् सरति इति संवत्सरः अर्थात् वर्ष।
क्योंकि कोई भी मनुष्य क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं यह सकता, उसकी प्रकृति ही उसे किसी न किसी कर्म को करने के लिए बाध्य कर देती है :
न ही कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
(अध्याय ३)
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।
(अध्याय १८)
ध्यान देने योग्य है कि इससे पूर्व अर्जुन कहते हैं:
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
(अध्याय १)
फिर किस प्रकार का कर्म मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।
(अध्याय १८)
स्वयं का ही उदाहरण देते हुए वे अर्जुन से कहते हैं :
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।१४।।
(अध्याय ४)
इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने बारे में कह रहे हैं, इसका सीधा सरल अर्थ यह है, कि वे उस मनुष्य के बारे में कह रहे हैं, जो --
"कर्म मुझमें लिपायमान नहीं होते, और न ही मुझे कर्म करने की लालसा है",
इस तरह से अपने स्वयं को जो भली-भाँति जानता है, वह कर्मों से नहीं बाँधा जाता है।
पुनः यहाँ भी स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न समय पर मनुष्य के द्वारा भिन्न भिन्न कर्म किए जा सकते हैं और समय समय के अनुसार ही उन प्राप्त हुए विहित कर्तव्य कर्मों को मनुष्य अपने विवेक से कर सकता है।
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1/9, 4/14, 18/48,
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