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Thursday, 11 August 2022

सूर्य की सन्तानें

संज्ञा और छाया : धर्म और संस्कृति

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परिधि और क्षितिज की कथा सुबह लिखी थी।

फिर लगा, कि क्या यह कथा केवल एक बौद्धिक-काल्पनिक मनोरंजन है, या इसमें अनायास ही इससे भी अधिक कुछ गूढ रहस्य या तात्पर्य व्यक्त हुआ है! 

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४ का यह श्लोक याद आया :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

वैवस्वान् / वैवस्वत् वर्तमान युग के मनु का नाम है।

स्कन्द-पुराण के अनुसार :

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणश्चांशुरेव च ।

भगो विवस्न्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा।।

एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते। 

जघन्यजः स सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।।

(माहेश्वर-कुमारिका खण्ड, कलाप ग्राम निवासी सुतनु द्वारा नारदजी के जटिल प्रश्नों का समाधान)

संज्ञा का तात्पर्य है चेतना, जो कि भूतमात्र में, -सभी जीवों में जीवन है -- श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय १०, श्लोक २२ के अनुसार, "भूतानामस्मि चेतना।।"

किन्तु उसी चेतना consciousness की छाया / shadow है -- "चेतनता" - material-consciousness...। 

संज्ञा, विश्वकर्मा की पुत्री थी, जिसका विवाह भगवान् सूर्य से हुआ। किन्तु वह सूर्य के प्रचंड ताप से व्याकुल हो उठी, उसने अपने जैसी एक छायाप्रतिमा निर्मित की, और भगवान् सूर्य से उसे हुई सन्तानों - यम, यमुना और मनु को उसे सौंपकर उसने छाया से कहा - तुम यह रहस्य किसी पर प्रकट न करना। तब छाया ने पूछा, कि उसके प्राणों पर संकट आ खड़ा हो क्या तब भी? संज्ञा बोली : उस स्थिति में तुम अवश्य ही कह देना। संज्ञा तब पिता के घर लौट आई। उसे अकेले आया देख, विश्वकर्मा ने पूछा : सूर्यदेव कहाँ है? तब उसने पूरी कहानी उन्हें सुना दी। विश्वकर्मा बोले : स्त्री का घर वहीं होता है, जहाँ वह अपने पति के साथ रहती है, तुम वहाँ लौट जाओ। उस समय तो संज्ञा वहाँ से तो लौट गई किन्तु सूर्यदेव के पास न जाकर घोर वन में चली गई। और वहाँ तपस्या करने लगी। उसने अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण कर लिया, और चरती रही। भगवान् सूर्य इस सबसे अनजान थे और छाया को ही संज्ञा समझ रहे थे। छाया से उन्हें तीन सन्तानें भगवान् शनि, तापी नामक नदी और सावर्णि मनु (एमानुएल) प्राप्त हुए। छाया अपनी सन्तानों से तो प्यार दुलार करती किन्तु यम, यमुना और मनु की उपेक्षा करती। एक दिन यम ने क्रोध के वश में उस पर पैर का प्रहार किया, तो वह यम को शाप देने लगी। यम पिता के पास पहुँचे और कहा : लगता है, यह हमारी माता नहीं है, क्योंकि कोई माता कभी सन्तान को शाप नहीं देती। तब सूर्यदेव ने छाया से पूछा -- सच सच बता तू कौन है? तब छाया ने उन्हें सब कुछ स्पष्ट कह दिया। भगवान् सूर्य तब संज्ञा को खोजते हुए जब विश्वकर्मा के पास जा पहुँचे, तो उन्हें पता चला, कि संज्ञा वहाँ से तत्काल ही कहीं चली गई थी। तब वे उसे खोजते हुए सर्वत्र विचरण करते रहे और अन्ततः उसे घोर वन (मन नामक महा-अरण्य) में घोड़ी के रूप में चरते देखा तब उन्होंने भी अश्व का रूप धारण कर लिया। वहाँ उनके यमक -दो पुत्र हुए। उन्हें अश्विनौ (equinox) कहा जाता है।यही भौतिक सृष्टि का रहस्य है।

इन्हीं अश्विनौ या नासत्यौ का दूसरा रूप संपाती और जटायु के रूप में रामायण में पाया जाता है। जटायु विषुव (equinox) है, जबकि संपाती कर्क और मकर संक्रांति (solstice) है।

चूँकि इस दृष्टि से भी यम और यमुना भाई-बहन हैं, और यम ही सार्वभौम धर्म ( महर्षि पातञ्जल-योगदर्शन में वर्णित सार्वभौम महाव्रत) है, जबकि यमुना विश्व-संस्कृति है।

इस प्रकार से विवेचना करने पर लगा कि यह कथा संयोग-मात्र नहीं है।

यहाँ इतना ही। 

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Monday, 18 July 2022

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

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एक महिला डॉक्टर के पास पहुँची। 

"कहिए क्या तक़लीफ है आपको?"

डॉक्टर ने पूछा। 

"डॉक्टर साहब, विचार बहुत आते हैं, मैं परेशान हो जाती हूँ, लेकिन उनकी भीड़ लग जाती है।"

"कैसे विचार आते हैं, जरा डिटेल में बताइए!"

"यही, जैसे कि अभी यहाँ आई तो देखा कि आपकी ओ.पी.डी. में एक भी व्यक्ति नहीं दिखलाई दिया। मैं सोचने लगी कि ऐसी स्थिति में जब आपके यहाँ कोई पेशेन्ट ही नहीं है, तो आपकी आजीविका कैसे चलती होगी! इस जगह का किराया, दूसरे सारे खर्चों की व्यवस्था आप किस तरह से कर पाते होंगे!"

वह महिला तो चली गई लेकिन डॉक्टर साहब अब सिर पकड़ कर इस सोच में डूबे हैं कि अब क्या करें!

विचार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते।

मनुष्य मनु की संतान होने से उसके पास मन नामक जो यंत्र है, वह निरंतर विचारों को ग्रहण करता (निगलता) और फिर निरंतर उन्हें व्यक्त करता (उगलता) रहता है। इस प्रक्रिया पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। अनचाहे ही अनेक विचार उसके मन में बेतरतीब ढंग से आते जाते रहते हैं और कभी कभी तो उसे लगने लगता है कि क्या वह पागल हो जाएगा! बड़ों के ही नहीं, बच्चें तक के मन (या दिमाग़?) में कितने ही विचार न चाहते हुए भी कुलाँचे भरते रहते हैं। मनुष्य जितना अधिक शिक्षित होता है, उसी अनुपात में उसमें (या उसके मन में) विचारों की भीड़ जमा होने लगती है। फिर भी प्राथमिकता के आधार पर उनमें से कुछ को वह अधिक महत्व देता है, बाक़ी को नज़र-अन्दाज करने की कोशिश करता है। जिन्हें वह नज़र-अन्दाज कर देता है वे ओ.पी.डी. में अपनी बारी आने तक बेचैनी से इन्तजार करते हुए बैठे होते हैं। कभी कभी उनमें से कोई उग्र होकर उपद्रव भी करने लगता है।

जो भी हो, जैसे वायु, तापमान और ज्वलनशील पदार्थ मिलकर एक चक्र निर्मित कर सकते हैं, जिसके पूर्ण होते ही आग भड़क उठती है, वैसे ही विचार, विचारकर्ता और विचार का विषय, इन तीनों के मिलते ही विचार-प्रक्रिया का कार्य प्रारंभ हो जाता है। अग्नि के कारक तो एक दूसरे से भिन्न और अलग अलग होते हैं, और उन्हें अलग अलग करते ही अग्नि बुझ जाती है। किन्तु जिसे हम विचार, विचार करना, या विचार आना कहते हैं, उस प्रक्रिया में भी क्या विचार, विचारकर्ता और विचार का विषय, -ऐसे तीन कारकों की पहचान कर पाना और उन्हें एक दूसरे से अलग कर पाना संभव है? 

इसे दूसरी तरह से यूँ  कहें, कि क्या विचार, विचारकर्ता -विचार करनेवाला, और विचार जिस वस्तु ( अर्थात् कोई विषय) के बारे में किया जाता या होता है, वह विषय, क्या एक दूसरे से स्वतंत्र और अलग अलग होते हैं?

मैं मानता हूँ कि यह जरा कठिन है, इसलिए और एक तरह से समझने के लिए यह देखने का प्रयास करें - विचारकर्ता, विचार और विचार का विषय, - इन तीनों में से यदि कोई एक न हो, तो क्या बाकी दो में से कोई एक भी, या दोनों ही हो सकते हैं?

तात्पर्य यह कि बुद्धि में उत्पन्न हुए भ्रम के ही कारण उन्हें पृथक् पृथक् तीन भिन्न भिन्न रूपों में देखा जाता है, जबकि वस्तुतः वे एक और एक ही समग्र प्रक्रिया के तीन पक्ष होते हैं। विचार के आते ही ये तीनों अव्यक्त से व्यक्त हो उठते हैं, और इसी प्रकार से विचार के विलीन होते ही व्यक्त से पुनः अव्यक्त में लौट जाते हैं।

इसलिए विचार ही मन है, जो विषय, विचारकर्ता और विचार के विषय में तीन रूपों में व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करता रहता है। विचार को ही महर्षि पतञ्जलि ने अपने योग-सूत्रों में वृत्ति कहा है। और, विचार के निरोध को ही, अर्थात् वृत्ति के निरोध को ही योग कहा है :

प्रथम अध्याय  -- समाधिपाद

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अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

इसलिए, विचार की यंत्रणा से मुक्ति पाने के मुख्यतः दो तरीके हो सकते हैं -

पहला तरीका है -- ध्यान को एक विषय से हटाकर दूसरे विषय पर ले जाना। यद्यपि इसमें भी कभी कभी सफलता मिल पाती है, तो कभी कभी नहीं भी मिल पाती है। 

दूसरा तरीका है -- ध्यान को एक ही विषय / विचार पर एकाग्र (focus) करना। यह विषय कोई बाहरी वस्तु, चित्र, मूर्ति आदि या आंतरिक विषय जैसे मंत्र आदि हो सकता है।

इस प्रकार चित्त (ध्यान)  के एकाग्र होने पर मन / विचारकर्ता विषय से एकरूप हो जाता है। इसलिए इस तरह से एक प्रकार की शान्ति प्राप्त हो सकती है।

इनसे अलग तीसरा तरीका भी है, जिसका वर्णन अगले पोस्ट में किया जाएगा। 

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