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Wednesday, 20 July 2022

यत्नः अभ्यासः

और वैराग्य 

(योग-सूत्र : समाधिपाद)

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तत्र स्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः।।१३।।

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारसेवितो दृढभूमिः।।१४।।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।।१५।।

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।।१६।।

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तत्र अर्थात् वहाँ, उस स्थान पर। 

कहाँ? 

यत्र यदा / तदा दृष्टुः अवस्थानम्।।

वहाँ पर, जहाँ, जब दृष्टा अपने स्वरूप में अवस्थित होता है। 

कुत्र?

स्वरूपे - शुद्ध स्वरूप में

दृष्टा कौन? 

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।

दृष्टा जो दर्शन ही है, और दर्शन / देखने में ही अन्तर्निहित है, यद्यपि नित्य शुद्ध एकमेव आत्मा ही है, किन्तु उसे देखने में, कोई प्रत्यय / वृत्ति की ही सहायता लेना आवश्यक होता है ।

(पाहातेपण्याच्या आत पाहात्याला पहावें। इति गुरूपदेशः)

मन की उस शान्त, वृत्तिमात्र की गति से रहित स्थिति में पुनः पुनः लौटने के यत्न को ही अभ्यास कहते हैं।

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।२६।।

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।।

उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।२७।।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकलमषः।।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।२८।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६)

दीर्घकाल तक निरन्तर ऐसा यत्न करते रहने पर यह अभ्यास दृढ हो जाता है।

अब, यह वैराग्य क्या है और कैसे सिद्ध होता है इसे स्पष्ट किया जाता है  :

समस्त दृश्य श्रव्य आदि इन्द्रिय-विषयों के भोगों के प्रति राग, अर्थात् तृष्णा की अत्यन्त निवृत्ति हो जाने, और तृष्णा को वश में कर लेने को ही वैराग्य कहा जाता है।

इस वैराग्य से भी बढ़कर परम वैराग्य वह होता है जो कि पुरुष (आत्मा के स्वरूप) का ज्ञान होने पर जागृत होता है।

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Tuesday, 19 July 2022

अभ्यासवैराग्याभ्यां

योग साधना का प्रारंभ 

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महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित योग-विषयक ग्रन्थ के क्रमशः चार अध्यायों योग साधना की शिक्षा दी गई है। 

प्रथम अध्याय, समाधिपाद के अंतर्गत योग साधना के प्रयोजन और महत्व के बारे में प्रारंभिक जानकारी दी गई है। योग और उसका अनुशासन और परिभाषा का उल्लेख प्रथम दो सूत्रों में किया गया है:

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

इसे स्पष्ट करने के बाद दृष्टा के सन्दर्भ में वृत्ति का क्या महत्व है और वृत्तियों से दृष्टा से क्या संबंध है इस विषय में बाद के निम्न सूत्रों में इस प्रकार से कहा गया है :

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

तात्पर्य यह कि वृत्तियों का निरोध हो जाने की स्थिति में दृष्टा के वास्तविक स्वरूप को जाना जाता है। उस समय दृष्टा अपने उस स्वरूप में स्थित होता है। अर्थात् उस समय उसके उस स्वरूप को जाना जाता है। 

दृष्टा का अस्तित्व तो संदेह से परे और स्वयंसिद्ध ही है जिस पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। वह दृष्टा नित्य है या अनित्य है इस पर यदि कोई प्रश्न उठाया जाता है, तो उसका उत्तर तत्काल ही मिल जाता है, क्योंकि यदि दृष्टा अनित्य हो तो उसके स्वरूप के बारे में जिज्ञासा करना व्यर्थ होगा। किन्तु अभी दृष्टा का स्वरूप क्या है, इसे गौण मान लिया गया है और वृत्ति का स्वरूप क्या है तथा वृत्ति का निरोध या निवारण (dissolution) कैसे किया जा सकता है, इस पर प्रधान रूप से ध्यान दिया गया है। 

यद्यपि दृष्टा काल से अबाधित वास्तविकता है, किन्तु वृत्तियों से आवरित होने के कारण उसका स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पा रहा है, और तर्क से भी उसके अस्तित्व की सत्यता सिद्ध होती है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, इसलिए दृष्टा स्वरूपतः क्या है, इसे समझ सकने के लिए यह आवश्यक है कि पहले वृत्तियों का निवारण कर दिया जाए। 

'इतरत्र' को दो प्रकार से समझा जा सकता है :

इतः अत्र, या इतर-त्र। 

वृत्तिसारूप्यमितरत्र वृत्ति सारूप्यं इतरत्र 

में इसी का संकेत है।

यह शायद कुछ आश्चर्यजनक है कि योगशास्त्र और भक्तिशास्त्र के ग्रन्थों में मुक्ति को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मुक्ति की कामना भी स्वयं ही एक बंधन है और जब तक कामना है, मुक्ति कैसे हो सकती है? इस प्रश्न को सीधे ही न उठाते हुए, योगशास्त्र में चित्त-वृत्ति का निरोध कैसे हो इस बारे में, और भक्तिशास्त्र में परमात्मा या ईश्वर की उपासना द्वारा चित्त की शुद्धि कैसे हो, इसे ही अधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि चित्त के शुद्ध हो जाने, और वृत्ति के निरोध का फल समान ही है और वही आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर का साक्षात्कार या मुक्ति है।

इसलिए बाद के सूत्रों में वृत्तियों के स्वरूप और प्रकारों के बारे में इस प्रकार से कहा गया है :

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभावप्रत्यालम्बना वृत्तिर्निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।

इसके बाद उपरोक्त वृत्तियों का निरोध जिस विधि से किया जा सकता है, उसे स्पष्ट किया गया है :

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।

अभ्यास और वैराग्य इन दोनों के माध्यम से वृत्ति-निरोध संभव होता है। 

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Monday, 18 July 2022

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

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एक महिला डॉक्टर के पास पहुँची। 

"कहिए क्या तक़लीफ है आपको?"

डॉक्टर ने पूछा। 

"डॉक्टर साहब, विचार बहुत आते हैं, मैं परेशान हो जाती हूँ, लेकिन उनकी भीड़ लग जाती है।"

"कैसे विचार आते हैं, जरा डिटेल में बताइए!"

"यही, जैसे कि अभी यहाँ आई तो देखा कि आपकी ओ.पी.डी. में एक भी व्यक्ति नहीं दिखलाई दिया। मैं सोचने लगी कि ऐसी स्थिति में जब आपके यहाँ कोई पेशेन्ट ही नहीं है, तो आपकी आजीविका कैसे चलती होगी! इस जगह का किराया, दूसरे सारे खर्चों की व्यवस्था आप किस तरह से कर पाते होंगे!"

वह महिला तो चली गई लेकिन डॉक्टर साहब अब सिर पकड़ कर इस सोच में डूबे हैं कि अब क्या करें!

विचार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते।

मनुष्य मनु की संतान होने से उसके पास मन नामक जो यंत्र है, वह निरंतर विचारों को ग्रहण करता (निगलता) और फिर निरंतर उन्हें व्यक्त करता (उगलता) रहता है। इस प्रक्रिया पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। अनचाहे ही अनेक विचार उसके मन में बेतरतीब ढंग से आते जाते रहते हैं और कभी कभी तो उसे लगने लगता है कि क्या वह पागल हो जाएगा! बड़ों के ही नहीं, बच्चें तक के मन (या दिमाग़?) में कितने ही विचार न चाहते हुए भी कुलाँचे भरते रहते हैं। मनुष्य जितना अधिक शिक्षित होता है, उसी अनुपात में उसमें (या उसके मन में) विचारों की भीड़ जमा होने लगती है। फिर भी प्राथमिकता के आधार पर उनमें से कुछ को वह अधिक महत्व देता है, बाक़ी को नज़र-अन्दाज करने की कोशिश करता है। जिन्हें वह नज़र-अन्दाज कर देता है वे ओ.पी.डी. में अपनी बारी आने तक बेचैनी से इन्तजार करते हुए बैठे होते हैं। कभी कभी उनमें से कोई उग्र होकर उपद्रव भी करने लगता है।

जो भी हो, जैसे वायु, तापमान और ज्वलनशील पदार्थ मिलकर एक चक्र निर्मित कर सकते हैं, जिसके पूर्ण होते ही आग भड़क उठती है, वैसे ही विचार, विचारकर्ता और विचार का विषय, इन तीनों के मिलते ही विचार-प्रक्रिया का कार्य प्रारंभ हो जाता है। अग्नि के कारक तो एक दूसरे से भिन्न और अलग अलग होते हैं, और उन्हें अलग अलग करते ही अग्नि बुझ जाती है। किन्तु जिसे हम विचार, विचार करना, या विचार आना कहते हैं, उस प्रक्रिया में भी क्या विचार, विचारकर्ता और विचार का विषय, -ऐसे तीन कारकों की पहचान कर पाना और उन्हें एक दूसरे से अलग कर पाना संभव है? 

इसे दूसरी तरह से यूँ  कहें, कि क्या विचार, विचारकर्ता -विचार करनेवाला, और विचार जिस वस्तु ( अर्थात् कोई विषय) के बारे में किया जाता या होता है, वह विषय, क्या एक दूसरे से स्वतंत्र और अलग अलग होते हैं?

मैं मानता हूँ कि यह जरा कठिन है, इसलिए और एक तरह से समझने के लिए यह देखने का प्रयास करें - विचारकर्ता, विचार और विचार का विषय, - इन तीनों में से यदि कोई एक न हो, तो क्या बाकी दो में से कोई एक भी, या दोनों ही हो सकते हैं?

तात्पर्य यह कि बुद्धि में उत्पन्न हुए भ्रम के ही कारण उन्हें पृथक् पृथक् तीन भिन्न भिन्न रूपों में देखा जाता है, जबकि वस्तुतः वे एक और एक ही समग्र प्रक्रिया के तीन पक्ष होते हैं। विचार के आते ही ये तीनों अव्यक्त से व्यक्त हो उठते हैं, और इसी प्रकार से विचार के विलीन होते ही व्यक्त से पुनः अव्यक्त में लौट जाते हैं।

इसलिए विचार ही मन है, जो विषय, विचारकर्ता और विचार के विषय में तीन रूपों में व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करता रहता है। विचार को ही महर्षि पतञ्जलि ने अपने योग-सूत्रों में वृत्ति कहा है। और, विचार के निरोध को ही, अर्थात् वृत्ति के निरोध को ही योग कहा है :

प्रथम अध्याय  -- समाधिपाद

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अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

इसलिए, विचार की यंत्रणा से मुक्ति पाने के मुख्यतः दो तरीके हो सकते हैं -

पहला तरीका है -- ध्यान को एक विषय से हटाकर दूसरे विषय पर ले जाना। यद्यपि इसमें भी कभी कभी सफलता मिल पाती है, तो कभी कभी नहीं भी मिल पाती है। 

दूसरा तरीका है -- ध्यान को एक ही विषय / विचार पर एकाग्र (focus) करना। यह विषय कोई बाहरी वस्तु, चित्र, मूर्ति आदि या आंतरिक विषय जैसे मंत्र आदि हो सकता है।

इस प्रकार चित्त (ध्यान)  के एकाग्र होने पर मन / विचारकर्ता विषय से एकरूप हो जाता है। इसलिए इस तरह से एक प्रकार की शान्ति प्राप्त हो सकती है।

इनसे अलग तीसरा तरीका भी है, जिसका वर्णन अगले पोस्ट में किया जाएगा। 

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