ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
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एक महिला डॉक्टर के पास पहुँची।
"कहिए क्या तक़लीफ है आपको?"
डॉक्टर ने पूछा।
"डॉक्टर साहब, विचार बहुत आते हैं, मैं परेशान हो जाती हूँ, लेकिन उनकी भीड़ लग जाती है।"
"कैसे विचार आते हैं, जरा डिटेल में बताइए!"
"यही, जैसे कि अभी यहाँ आई तो देखा कि आपकी ओ.पी.डी. में एक भी व्यक्ति नहीं दिखलाई दिया। मैं सोचने लगी कि ऐसी स्थिति में जब आपके यहाँ कोई पेशेन्ट ही नहीं है, तो आपकी आजीविका कैसे चलती होगी! इस जगह का किराया, दूसरे सारे खर्चों की व्यवस्था आप किस तरह से कर पाते होंगे!"
वह महिला तो चली गई लेकिन डॉक्टर साहब अब सिर पकड़ कर इस सोच में डूबे हैं कि अब क्या करें!
विचार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते।
मनुष्य मनु की संतान होने से उसके पास मन नामक जो यंत्र है, वह निरंतर विचारों को ग्रहण करता (निगलता) और फिर निरंतर उन्हें व्यक्त करता (उगलता) रहता है। इस प्रक्रिया पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। अनचाहे ही अनेक विचार उसके मन में बेतरतीब ढंग से आते जाते रहते हैं और कभी कभी तो उसे लगने लगता है कि क्या वह पागल हो जाएगा! बड़ों के ही नहीं, बच्चें तक के मन (या दिमाग़?) में कितने ही विचार न चाहते हुए भी कुलाँचे भरते रहते हैं। मनुष्य जितना अधिक शिक्षित होता है, उसी अनुपात में उसमें (या उसके मन में) विचारों की भीड़ जमा होने लगती है। फिर भी प्राथमिकता के आधार पर उनमें से कुछ को वह अधिक महत्व देता है, बाक़ी को नज़र-अन्दाज करने की कोशिश करता है। जिन्हें वह नज़र-अन्दाज कर देता है वे ओ.पी.डी. में अपनी बारी आने तक बेचैनी से इन्तजार करते हुए बैठे होते हैं। कभी कभी उनमें से कोई उग्र होकर उपद्रव भी करने लगता है।
जो भी हो, जैसे वायु, तापमान और ज्वलनशील पदार्थ मिलकर एक चक्र निर्मित कर सकते हैं, जिसके पूर्ण होते ही आग भड़क उठती है, वैसे ही विचार, विचारकर्ता और विचार का विषय, इन तीनों के मिलते ही विचार-प्रक्रिया का कार्य प्रारंभ हो जाता है। अग्नि के कारक तो एक दूसरे से भिन्न और अलग अलग होते हैं, और उन्हें अलग अलग करते ही अग्नि बुझ जाती है। किन्तु जिसे हम विचार, विचार करना, या विचार आना कहते हैं, उस प्रक्रिया में भी क्या विचार, विचारकर्ता और विचार का विषय, -ऐसे तीन कारकों की पहचान कर पाना और उन्हें एक दूसरे से अलग कर पाना संभव है?
इसे दूसरी तरह से यूँ कहें, कि क्या विचार, विचारकर्ता -विचार करनेवाला, और विचार जिस वस्तु ( अर्थात् कोई विषय) के बारे में किया जाता या होता है, वह विषय, क्या एक दूसरे से स्वतंत्र और अलग अलग होते हैं?
मैं मानता हूँ कि यह जरा कठिन है, इसलिए और एक तरह से समझने के लिए यह देखने का प्रयास करें - विचारकर्ता, विचार और विचार का विषय, - इन तीनों में से यदि कोई एक न हो, तो क्या बाकी दो में से कोई एक भी, या दोनों ही हो सकते हैं?
तात्पर्य यह कि बुद्धि में उत्पन्न हुए भ्रम के ही कारण उन्हें पृथक् पृथक् तीन भिन्न भिन्न रूपों में देखा जाता है, जबकि वस्तुतः वे एक और एक ही समग्र प्रक्रिया के तीन पक्ष होते हैं। विचार के आते ही ये तीनों अव्यक्त से व्यक्त हो उठते हैं, और इसी प्रकार से विचार के विलीन होते ही व्यक्त से पुनः अव्यक्त में लौट जाते हैं।
इसलिए विचार ही मन है, जो विषय, विचारकर्ता और विचार के विषय में तीन रूपों में व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करता रहता है। विचार को ही महर्षि पतञ्जलि ने अपने योग-सूत्रों में वृत्ति कहा है। और, विचार के निरोध को ही, अर्थात् वृत्ति के निरोध को ही योग कहा है :
प्रथम अध्याय -- समाधिपाद
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अथ योगानुशासनम्।।१।।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।
इसलिए, विचार की यंत्रणा से मुक्ति पाने के मुख्यतः दो तरीके हो सकते हैं -
पहला तरीका है -- ध्यान को एक विषय से हटाकर दूसरे विषय पर ले जाना। यद्यपि इसमें भी कभी कभी सफलता मिल पाती है, तो कभी कभी नहीं भी मिल पाती है।
दूसरा तरीका है -- ध्यान को एक ही विषय / विचार पर एकाग्र (focus) करना। यह विषय कोई बाहरी वस्तु, चित्र, मूर्ति आदि या आंतरिक विषय जैसे मंत्र आदि हो सकता है।
इस प्रकार चित्त (ध्यान) के एकाग्र होने पर मन / विचारकर्ता विषय से एकरूप हो जाता है। इसलिए इस तरह से एक प्रकार की शान्ति प्राप्त हो सकती है।
इनसे अलग तीसरा तरीका भी है, जिसका वर्णन अगले पोस्ट में किया जाएगा।
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