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Tuesday, 27 September 2022

विचार, चिन्ता, और मन

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।

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चिन्ता विचार है, और विचार चिन्ता। चिन्ता चिन्तन है, चिन्तन चिन्ता। विचार के अभाव में चिन्तन नहीं हो सकता, और न ही चिन्तन के अभाव में चिन्ता । विचार, चिन्तन, चिन्ता और मन एक ही गतिविधि के अलग अलग चार नाम हैं। गतिविधि एक ही है। मन गतिविधि है, और गतिविधि मन है।  फिर वह क्या है जो विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के एक दूसरे से भिन्न होने का आभास उत्पन्न करता है?

विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन, मूलतः गतिविधि के ही भिन्न प्रतीत होनेवाले चार प्रकार हैं, और चेतना ही उनकी पृष्ठभूमि होती है। चेतना की इस पृष्ठभूमि की निजता और नित्यता की सत्यता तो स्वयंसिद्ध है ही, किन्तु विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन उस पृष्ठभूमि पर विषय, विषयी के बीच आभासी विभाजन आरोपित कर देता है। चेतनारूपी इस पृष्ठभूमि की नित्यता और निजता एक अकाट्य और असंदिग्ध, निर्विवाद तथ्य है, और यही तथ्य विषयी के निरंतर विद्यमान होने के भ्रम को जन्म देता है। मूलतः विषयी और विषय दोनों ही उस एक ही गतिविधि के दो पक्ष हैं जो विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के रूप में चेतना से भिन्न की तरह प्रतीत और अभिव्यक्त होती है।

विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन विषय-आधारित गतिविधि होते हैं, अर्थात् विषय के अभाव में नहीं हो सकते। जागृत तथा स्वप्न ऐसी ही गतिविधियाँ हैं। किन्तु सुषुप्ति में तो विषय और विषयी तथा उनके बीच का विभाजन भी कहाँ होता है? 

पातञ्जल योग-सूत्र में चेतना की इस पृष्ठभूमि को ही दृष्टा तथा विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के रूपों में हो रही गतिविधि को चित्त-वृत्ति कहा गया है। वृत्तियों का वर्गीकरण पाँच प्रकारों में किया गया है और चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। इस प्रकार चित्तवृत्ति के निरुद्ध होने की अवस्था ही योग है। इस अवस्था में दृष्टा (अपने) स्वरूप में स्थित होता है। दृष्टा जब जब इस स्थिति से विचलित हो जाता है, विचार, चिन्ता, चिन्तन तथा मन रूपी गतिविधि प्रारंभ हो जाती है। यही चित्तवृत्ति है। पुनः निद्रा अर्थात् सुषुप्ति को भी चित्तवृत्ति कहा गया है। 

इन चित्तवृत्तियों के पाँच प्रकारों को इस प्रकार से वर्गीकृत किया गया है :

प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। पुनः ये सभी क्लिष्ट या अक्लिष्ट हो सकती हैं।

प्रमाण का अर्थ है : प्रतीति या मूल्यांकन (evaluation),

विपर्यय का अर्थ है : त्रुटिपूर्ण प्रतीति या मूल्यांकन (distortion),

विकल्प का अर्थ है : एक प्रतीति को किसी दूसरी प्रतीति से प्रतिस्थापित / replace कर दिया जाना, 

निद्रा का अर्थ है : अभाव-प्रत्ययात्मक गतिविधि / अभावात्मक वृत्ति, जब विचार, चिन्ता, चिन्तन अर्थात् -- मन की गतिविधि, आनन्द के भोग में लीन होने से विषय और विषयी का भेद भी तात्कालिक रूप से विलीन हो जाता है। निद्रा में विषय-शून्यता की प्रतीति होती है जिसे अभाव-प्रत्यय कहा जाता है। 

और अन्तिम है स्मृति : अर्थात् विचार, चिन्ता, चिन्तन या मन की वह गतिविधि है, जब किसी अनुभूत विषय की पुनरावृत्ति (प्रतीत) होती है। 

इन समस्त वृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य की सहायता से होता है। 

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Tuesday, 19 July 2022

दूसरा और एक प्रश्न ...

चिन्ता-चिन्तन .... क्रमशः ...

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दूसरा और एक प्रश्न यह भी है, कि जिसे विज्ञान कहा जा रहा है, क्या वह वैज्ञानिक से भिन्न कोई अन्य और स्वतंत्र वस्तु होता है, या वैज्ञानिक के ही बुद्धि-मन-विचार-चेतना का ही विस्तार, उससे ही सृजित और उस पर ही निर्भर कोई सिद्धान्त, निश्चय, विचारक्रम है? वैज्ञानिक भी कोई मेरे आपके जैसा, मन-बुद्धि, विचार, से युक्त  चेतन, जीता-जागता मनुष्य ही तो होता है, जिसके मन-बुद्धि-विचार किसी विशिष्ट प्रारूप  pattern / mindset  में ढले होते हैं। यह तो स्पष्ट ही है, कि यह चेतन होना अर्थात् चेतनता, consciousness मूलतः अपने आपके अस्तित्व के भान / बोध का ही परिणाम है। क्या अपने अस्तित्व के इस सहज स्वाभाविक और अनायास प्राप्त हुए इस बोध से कोई कभी वंचित हो सकता है? अपने अस्तित्व का यह सहज भान क्या इन्द्रिय-ज्ञान का परिणाम होता है? या कि अपने होने की जागृति / बोध के बाद ही 'मुझे इन्द्रिय-ज्ञान है' ऐसा जाना जाता है?

अपना अस्तित्व और अपने अस्तित्व का भान, ये दोनों परस्पर अविभाज्य हैं यह समझना कठिन नहीं है, न यह कोई बौद्धिक, तार्किक या वैचारिक निष्कर्ष ही है। यह तो प्रत्येक ही प्राणी में अन्तर्निहित अन्तःप्रेरणा और निष्ठा ही है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

किन्तु आप हैं, और आपमें अपने इस अस्तित्व का जो भान है, क्या वह कोई बौद्धिक निश्चय, निष्कर्ष या अनुमान-मात्र है? पर जैसे ही आप अपने-आपके बारे में किसी अनुमान या निष्कर्ष को स्वीकार कर लेते हैं, तत्क्षण ही अपने-आपको परिभाषित और सीमित कर लेते हैं - आप वस्तुतः जो हैं, उसे आपमें उत्पन्न हुई किसी कल्पना के माध्यम से तय कर लेते हैं, और अपनी ही  एक ऐसी प्रतिमा निर्मित कर लेते हैं, जो कि आप हैं नहीं!

और कभी आपकी कोई चिन्ता मिट जाती है, तब आप क्षण भर के लिए अपनी उसी सहज स्वाभाविक स्थिति में होते हैं, जहाँ अपने बारे में आपकी कोई प्रतिमा नहीं होती। और तब आपको अनायास ऐसा लगता है मानों आप मुक्त हों। किन्तु पुनः जैसे ही आप अपने अस्तित्व के इस सहज बोध को कल्पना या स्मृति के माध्यम से देखते हुए स्वयं को उस विशिष्ट रूप में देखने लग जाते हैं, तुरन्त ही कोई भविष्य और उस भविष्य के परिप्रेक्ष्य में कोई नई चिन्ता, आशा, अपेक्षा, आशंका उठ खड़ी होती है। तब आप पाप-पुण्य, और कर्म की भिन्न भिन्न धारणाओं, मूल्यांकनों, और मान्यताओं आदि से जुड़ जाते हैं और फिर से भविष्य की चिन्ता आदि से व्याकुल हो उठते हैं। फिर आप कहते हैं : 

"समय अनादि और अनन्त है। कोई नहीं जानता कि समय का विस्तार अतीत में, या भविष्य में कहाँ तक है! संक्षेप में - समय कब प्रारंभ हुआ होगा और भविष्य में कहाँ इसका अन्त होगा! समय कहाँ तक फैला हुआ है।"

फिर आप इस विचार से प्रभावित, ग्रस्त, मोहित, अभिभूत हो जाते हैं, और अपनी ही कल्पना में स्वयं को दार्शनिक, चिंतक, या बुद्धिजीवी, अनोखी प्रतिभा (talent) से युक्त विशेष कोई या कुछ समझ लेते हैं!

अब, यह तो आपको ही तय करना है कि क्या आपका अस्तित्व और उस अस्तित्व का जो भान आपमें है, वे दोनों एक दूसरे से भिन्न दो चीजें हैं या एक ही अविभाज्य इकाई हैं, जो कि वस्तुतः आप ही हैं!

यह तो आपको ही तय करना है, कि क्या आप अपनी कल्पना से बनाई गई अपनी कोई विशेष प्रतिमा आदि हैं, या कि उससे नितान्त भिन्न और अलग कुछ और हैं! 

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