Consciousness and Neuroscience
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A neuron doesn't realize it's a neuron...
Really?
Consciousness and Neuroscience
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A neuron doesn't realize it's a neuron...
Really?
P O E T R Y
~~The Physicist ~~
And The T A O of P H Y S I C S.
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Earlier they said :
Nothing (new) could ever be created,
You can but transform;
The Matter into Energy,
And You can, Energy into Matter.
Energy or Matter, it matters not:
Neither could be created,
Nor could be destroyed!
Now that theory and concept;
Has been discarded.
Even laughed at!
They now claim;
Physics has gone through total revolution,
They have experimentally created,
And demonstrated that --
Matter / Energy could be created,
Something could be made from Nothing!
What a sarcasm! What a hype,
What a science of deluded mind!
Don't they see, there is consciousness of;
Creating Something from Nothing,
The Consciousness prior to;
Creation and destruction?
Is there a time and place,
When and where;
The Consciousness has a beginning,
Or the middle or the end?
Do the Time and the Space,
Exist not in Consciousness?
Is consciousness result of an action?
The Core-error of judgement lies --
In the fact that Matter or Energy,
The objects and the objective world;
That appear and subsequently disappear,
Are never created nor destroyed,
But only go through,
Manifestation and dissolution.
The Consciousness is the background,
Where-in this play takes place,
And one may though be ignorant,
Oblivious of the fact,
Consciousness never rises nor sets!
Understanding this simple Reality,
Is itself realizing the truth.
The Consciousness --
That is itself.
That is verily धर्म ,
That is verily therm.
From धर्म / therm arises / manifests
धी (धी धियौ धियः)
the Theo / Theology / Theory / Tao
ताओ -- लाओत्से
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The Intelligence (Principle).
The Intelligence arises / manifests as Theo,
Is verily Consciousness Relative.
Wher-in and Where-from,
The Life / Leaf / Live.
Theo is verily God. Truth, ऋत् .
That is how;
Nothing is Created nor annihilated.
Everything only manifests / appears to exist,
And subsequently undergos:
Dissolution / disappearance.
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Create is cognate of संस्कृत root --
कृत / सृत / सृजित
Which are modified forms of the root verbs:
√कृ, डुकृञ्, and / or सृज्,
The former is used to denote 'doing',
While the later is used to denote :
"To throw out from within".
ऐतरेयोपनिषद्
प्रथम अध्याय प्रथम खण्ड
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१।।
In the beginning, there was this Self (आत्मन्) alone. Nothing else other than this Self.
He, That very Self indeed wished / observed :
May I bring forth (लोकाः) spaces / spheres.
सः इमाँल्लोकानसृजत। अम्भो मरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्त्तात्ता आपः ।।२।।
He delivered these spaces.
अम्भस् / अम्भो --
The Space that is upper and lower and fills this.
मरीचि - The Space in between them "अन्तरिक्ष".
This is really the Space as Consciousness.
That is how Upanishads reject the theory of "Creation" if anything (from what-so-ever)!
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Creation, Existence and Dissolution.
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Terminology :
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प्राण (cosmic energy),
रयि (cosmic material),
चेतना (sentience inherent),
शरीर (Body), मन (mind) चित्त (consciousness),
अस्तित्व (Existence),
भान (Intelligence / Consciousness),
चैतन्य (Awareness),
Give rise to :
The apparent relative Time (काल).
The idea of Cause (कारण), and Effect (कार्य), is the notion, that rises up in the individual.
बुद्धि (Intellect), -- the sentient being, who has such a अन्तःकरण (psyche).
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयो तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)
जन्माद्यस्य यतः।।
(ब्रह्मसूत्र १/१/२)
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असन्नेव स भवति।
असद्ब्रह्मेति वेद चेत्।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद।
सन्तमेनं ततो विदुरिति।
तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य।
अथातोऽनुप्रश्नाः।
उता विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चन गच्छती३।
आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चित्समश्नुता३ उ।
सोऽकामयत्।
बहु स्यां प्रजायेयेति।
स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा इद्ँसर्वमसृजत यदिदं किं च।
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।
तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्।
(त्यत् च अभवत् -- त्यत् - असौ, ditto the same, = सः, the one described earlier)
निरुक्तं चानिरुक्तं च।
निलयनं चानिलयनं च।
विज्ञानं चाविज्ञानं च।
सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्।
यदिदं किं च।
तत्सत्यमित्याचक्षते।
तदप्येष श्लोको भवति।
(तैत्तिरीय उपनिषद् - ब्रह्मान्दवल्ली, षष्ठमनुवाक)
अथ सप्तम अनुवाक :
असद्वा इदमग्र आसीत्।
ततो वै सदजायत।
तदात्मान्ँ स्वयमकुरुत।
तस्मात्तत्सुकृतमुच्यत* इति।
यद्वै तत्सुकृतं* रसो वै सः।
(* कठोपनिषद् - सुकृत १-३-१)
रस्ँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।
को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।
एष एव ह्यानन्दयति।
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलमनमभयं प्रतिष्ठां विन्दते।
अथ सो अभयं गतो भवति।
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरं अन्तरं कुरुते।
अथ तस्य भयं भवति।
तत्त्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य।
तदप्येष श्लोको भवति।
सप्तम अनुवाक समाप्त।।
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सदेव सौम्य इदमग्र आसीत्।।
ततो असत् अजायत।।
अथ वा असत् एव....
यदासीत अग्रे ....
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इस प्रकार अस्तित्व जो है, नित्य, शाश्वत, सनातन और अविनाशी (दृष्टा) है, जिसका विनाश नहीं हो सकता।
"यह है, -अस्ति यत्, - अस्तित्व," -- ऐसा कोई कहता है।
यह कहनेवाला कोई चेतन तत्व है, न कि जड।
कहनेवाला चेतन ही दृष्टा है और वह जिस अस्तित्व को देखता है जिसका ईक्षण करता है वह जड दृश्य है।
चेतन के द्वारा ईक्षण होने की घटना ही तप है।
ईक्षण रूपी अग्नि में ही उस चेतन के ही प्रसंग से, जड सतत रूपान्तरित होता हुआ, - जो है, उसे ही प्रतीत होता है।
यह हुआ प्रसव (Creation / Evolution) ।
इस प्रक्रिया के इस क्रम में जन्म एक बिन्दु है जहाँ अविनाशी अवयक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करता है। तब क्रमशः पहले जड और चेतन में, और इसके बाद अन्तःकरण और बाह्यकरण के रूप में और विकसित होता है।
यह सब कब प्रारंभ हुआ? -- यह प्रश्न बुद्धि में ही उठता है, और प्रमादवश (because of inattention) बुद्धि (intellect) में ही इस प्रकार काल (Time) की प्रतीति और काल / समय का आभासी जन्म होता है । अविनाशी, नित्य, सनातन शाश्वत इस अस्तित्व पर चेतन में बुद्धि के व्यक्त होने के परिणाम से ही, उस बुद्धि से ही काल का उद्भव हुआ।
काल का (उद्भव / उत्पन्न होने से पहले) 'कब' का प्रश्न ही कहाँ और कैसे उठ सकता है?
अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते....।।
यह हुआ काल और व्यापक आकाश (space) जो मूलतः वही अविनाशी है जो कि दृष्टा है और जो दृष्टा की तरह से अविकारी आधारभूत (Immutable prime principle) है।
इति प्रसवः।।
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अथ प्रतिप्रसवः
पातञ्जल योग-सूत्र (अध्याय २) : साधनपाद
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।१।।
समाधि भावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च।।२।।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।३।।
अविद्या -- क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्।।४।।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।।५।।
अस्मिता --
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता।।६।।
राग: --
सुखानुशयी रागः।।७।।
द्वेषः --
दुःखानुशयी द्वेषः।।८।।
अभिनिवेशः --
स्व-रसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः।।९।।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।।१०।।
(ते क्लेशाः प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः)
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।११।।
(ध्यानहेयाः तत् वृत्तयः)
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इति प्रतिप्रसवः।।
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चिन्ता-चिन्तन .... क्रमशः ...
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दूसरा और एक प्रश्न यह भी है, कि जिसे विज्ञान कहा जा रहा है, क्या वह वैज्ञानिक से भिन्न कोई अन्य और स्वतंत्र वस्तु होता है, या वैज्ञानिक के ही बुद्धि-मन-विचार-चेतना का ही विस्तार, उससे ही सृजित और उस पर ही निर्भर कोई सिद्धान्त, निश्चय, विचारक्रम है? वैज्ञानिक भी कोई मेरे आपके जैसा, मन-बुद्धि, विचार, से युक्त चेतन, जीता-जागता मनुष्य ही तो होता है, जिसके मन-बुद्धि-विचार किसी विशिष्ट प्रारूप pattern / mindset में ढले होते हैं। यह तो स्पष्ट ही है, कि यह चेतन होना अर्थात् चेतनता, consciousness मूलतः अपने आपके अस्तित्व के भान / बोध का ही परिणाम है। क्या अपने अस्तित्व के इस सहज स्वाभाविक और अनायास प्राप्त हुए इस बोध से कोई कभी वंचित हो सकता है? अपने अस्तित्व का यह सहज भान क्या इन्द्रिय-ज्ञान का परिणाम होता है? या कि अपने होने की जागृति / बोध के बाद ही 'मुझे इन्द्रिय-ज्ञान है' ऐसा जाना जाता है?
अपना अस्तित्व और अपने अस्तित्व का भान, ये दोनों परस्पर अविभाज्य हैं यह समझना कठिन नहीं है, न यह कोई बौद्धिक, तार्किक या वैचारिक निष्कर्ष ही है। यह तो प्रत्येक ही प्राणी में अन्तर्निहित अन्तःप्रेरणा और निष्ठा ही है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
किन्तु आप हैं, और आपमें अपने इस अस्तित्व का जो भान है, क्या वह कोई बौद्धिक निश्चय, निष्कर्ष या अनुमान-मात्र है? पर जैसे ही आप अपने-आपके बारे में किसी अनुमान या निष्कर्ष को स्वीकार कर लेते हैं, तत्क्षण ही अपने-आपको परिभाषित और सीमित कर लेते हैं - आप वस्तुतः जो हैं, उसे आपमें उत्पन्न हुई किसी कल्पना के माध्यम से तय कर लेते हैं, और अपनी ही एक ऐसी प्रतिमा निर्मित कर लेते हैं, जो कि आप हैं नहीं!
और कभी आपकी कोई चिन्ता मिट जाती है, तब आप क्षण भर के लिए अपनी उसी सहज स्वाभाविक स्थिति में होते हैं, जहाँ अपने बारे में आपकी कोई प्रतिमा नहीं होती। और तब आपको अनायास ऐसा लगता है मानों आप मुक्त हों। किन्तु पुनः जैसे ही आप अपने अस्तित्व के इस सहज बोध को कल्पना या स्मृति के माध्यम से देखते हुए स्वयं को उस विशिष्ट रूप में देखने लग जाते हैं, तुरन्त ही कोई भविष्य और उस भविष्य के परिप्रेक्ष्य में कोई नई चिन्ता, आशा, अपेक्षा, आशंका उठ खड़ी होती है। तब आप पाप-पुण्य, और कर्म की भिन्न भिन्न धारणाओं, मूल्यांकनों, और मान्यताओं आदि से जुड़ जाते हैं और फिर से भविष्य की चिन्ता आदि से व्याकुल हो उठते हैं। फिर आप कहते हैं :
"समय अनादि और अनन्त है। कोई नहीं जानता कि समय का विस्तार अतीत में, या भविष्य में कहाँ तक है! संक्षेप में - समय कब प्रारंभ हुआ होगा और भविष्य में कहाँ इसका अन्त होगा! समय कहाँ तक फैला हुआ है।"
फिर आप इस विचार से प्रभावित, ग्रस्त, मोहित, अभिभूत हो जाते हैं, और अपनी ही कल्पना में स्वयं को दार्शनिक, चिंतक, या बुद्धिजीवी, अनोखी प्रतिभा (talent) से युक्त विशेष कोई या कुछ समझ लेते हैं!
अब, यह तो आपको ही तय करना है कि क्या आपका अस्तित्व और उस अस्तित्व का जो भान आपमें है, वे दोनों एक दूसरे से भिन्न दो चीजें हैं या एक ही अविभाज्य इकाई हैं, जो कि वस्तुतः आप ही हैं!
यह तो आपको ही तय करना है, कि क्या आप अपनी कल्पना से बनाई गई अपनी कोई विशेष प्रतिमा आदि हैं, या कि उससे नितान्त भिन्न और अलग कुछ और हैं!
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