समय और सामायिक
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ईशावास्योपनिषद् : एक नया सन्दर्भ
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सामान्यतः जिसे समय या काल कहा समझा जाता है, उसे पुनः दो प्रकारों में देखा जा सकता है। एक तो वह समय है, जो कि बीतता है, दूसरा वह, जो कि नहीं बीतता है। इन दोनों प्रकारों के अतिरिक्त समय का एक रूप वह भी है जिसे पकड़ा तो नहीं जा सकता, किन्तु जिसे स्पर्श भर किया जाता या किया जा सकता है। वह है समय में सुनिश्चित किया गया कोई विशेष क्षण, जैसा कि रॉकेट लांच करते समय होता है, और जिसके लिए उल्टी गिनती की जाती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो समय या काल, सापेक्ष और निरपेक्ष भी होता है, सावधिक (अन्तरालयुक्त) निरवधिक (अन्तरालशून्य) भी हो सकता है। वह समय जो कि सतत, अबाध और निर्विघ्न प्रवाहशील है, ऐसा ही एक समय है, जबकि कोई पूर्व-निश्चित वह विशेष क्षण, जिसे क्षणिक रूप से स्पर्श किया जा सकता है इसी प्रवाहशील प्रतीत होते समय में स्थित एक ऐसा बिन्दु है, जो आते ही प्रस्थान कर जाता है।
इस प्रकार उस महान काल या समय को, जो कि एक प्राकृतिक और चेतन महाशक्ति भी है, यम भी कहा जाता है, जो अस्तित्व की नियामक शक्ति है। इन्हीं चेतन महाशक्तियों को आधिदैविक भी कहा जाता है क्योंकि जैसे मनुष्य इत्यादि के चेतन होते हुए भी उनकी शक्ति और सामर्थ्य इनसे बहुत भिन्न प्रकार का और नाममात्र के लिए होता है। जैसे अग्नि, वायु, आप्, पृथ्वी, नभ, या इन्द्र, मरुत्, सोम, वरुण और यम आदि। आधिभौतिक स्तर पर अनेक व्यक्त चेतन रूप एक ही साथ अनेक देवताओं के रूप में हो सकते हैं जिसका विशेष उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १० में देखा जा सकता है। इन्हें विभूति कहा जाता है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्तमेव च।।२०।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।
यद्यद्विभूतिमत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।।४१।।
इस प्रकार विभूति वे आत्माएँ हैं जो योगसाधन के क्रम में कहीं अवरुद्ध हो गईं और देवता की उपाधि को प्राप्त कर कुछ समय तक के लिए उस स्थिति में अवस्थित नहीं। कठोपनिषद् में भी इसकी पुष्टि की गई है जहाँ यमराज नचिकेता से यही कहते हैं कि सोम, वरुण आदि देवताओं की तरह उन्होंने भी इस उपाधि को पुण्यकर्मों का अनुष्ठान कर प्राप्त किया हैंं, और अन्ततः इसे भी त्याग देंगे।
स्वामी विवेकानन्द ईश्वर का वर्णन इस प्रकार से करते हैं :
सांख्यदर्शन के मतानुसार, वेद में जिस ईश्वर की बात कही गई है, वह ऐसी ही एक मुक्तात्मा का वर्णनमात्र है। इसके अतिरिक्त जगत् का अन्य कोई नित्यमुक्त, आनन्दमय सृष्टिकर्ता नहीं है। दूसरी ओर, योगीगण कहते हैं, ---- "नहीं ईश्वर है; अन्य सभी आत्माओं से, सभी पुरुषों से अलग एक विशेष पुरुष है; वह सृष्टि का नित्य प्रभु है, वह नित्यमुक्त है और सभी गुरुओं का गुरुस्वरूप है।" सांख्यमतवाले जिन्हें प्रकृतिलय कहते हैं, योगी-गण उनका अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि वे योगभ्रष्ट योगी हैं। कुछ समय तक के लिए उनकी चरम लक्ष्य की ओर की गति में बाधा होती है, और उस समय वे जगत् के अंशविशेष के अधिपतिरूप से अवस्थान करते हैं।
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।। १९।।
(राजयोग - स्वामी विवेकानन्द, समाधिपाद)
नियामक अर्थात् शासक जिसे अंग्रेजी में Governing and Regulatory Power कह सकते हैं। संस्कृत / हिन्दी में इसे ईशिता कहा जाता है -- तुदादिगणीय √इष् धातु का प्रयोग इच्छा होने या करने के अर्थ में किया जाता है। संसार का प्रत्येक प्राणी इच्छा के ही द्वारा शासित होता है और "अपनी इच्छाओं पर वश रखना चाहिए" कहे जाने का तात्पर्य है कि अशुभ इच्छाओं पर शुभ इच्छाओं का शासन होना चाहिए।
काल या समय ही वह महान ईश्वर है जिसकी इच्छा से समस्त जीव शासित होते हैं। √इष् धातु से ही ईश्वर तथा ईशिता दोनों ही शब्दों की व्त्युत्पत्ति की जा सकती है। अस्तित्व इसी चेतन और महान शक्ति से प्रेरित और परिचालित होता है।
ईशिता सर्वभूतानां सर्वभूतमयँश्च यत्।
ईशावास्येन संबोध्यमीश्वरं तं नमाम्यहम्।।
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यद्यपि काल अर्थात् समय के लिए 'वह' और 'यह' इन दोनों ही सर्वनामों का प्रयोग किया जा सकता है, 'यह', 'वह', 'तुम' और 'मैं' भी काल के ही अन्तर्गत प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं।
किन्तु काल का भान भी किसी चेतन (पुरुष) के सन्दर्भ पर ही निर्भर होता है। स्पष्ट है कि यह भान ही चेतनता / चेतना है जो आदि और अन्त से स्वतंत्र है। अर्थात् जिसमें काल का आगमन और प्रस्थान हुआ करता है। यह सहज स्वभाविक भान इसलिए कालनिरपेक्ष ईश्वर ही है जो पूर्ण होने से इच्छा ज्ञान और क्रिया इन तीनों से ही स्वतन्त्र है। किन्तु व्यक्ति जिसे अपने 'होने' का भान है, इच्छा से परिचालित होता है, उन अनुभवों और उनकी स्मृति से उत्पन्न सापेक्ष ज्ञान को सत्य मानकर उस आधार पर इच्छा से परिचालित होकर ऐसा कार्य (कर्म) करता है, जिससे उसे सुख प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है।
इस प्रकार, इच्छा, ज्ञान और क्रिया का यह क्रम अपने आपके एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना के जाग्रत होने के अनन्तर ही प्रारंभ होता है।
अपने इस स्वतंत्र अस्तित्व का भान ही सुख की इच्छा के रूप में सतत व्यक्त रूप में व्यक्ति चेतना है, और इस सीमित चेतना में अंतःकरण के सक्रिय होने पर व्यक्ति का अपना जीवन है ऐसा आभास उत्पन्न होता है जो अंततः दृढ विश्वास बन जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति के अनुभवों के क्रम की स्मृति से उत्पन्न ज्ञान उस भान की ही छाया मात्र है जो नित्य, सनातन और शाश्वत है। काल का उद्भव उसी भान से होता है :
अक्षरात्सञ्जायते कालः कालाद्व्यापको उच्यते व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो, यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजा।
(शिवाथर्वशीर्षम्)
किन्तु चूँकि काल के अस्तित्व को सभी मान्य करते हुए भी यह भी मानते हैं कि उसके स्वरूप के विषय में स्पष्ट और सुनिश्चित कुछ कोई नहीं जानता।
इसी आधार पर ईशावास्योपनिषद् में जिस परमात्मा का वर्णन किया गया है, उसे काल के रूप में भी देखा जा सकता है और इस पूरे ग्रन्थ का अध्ययन इस दृष्टि से भी किया जा सकता है।
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शान्तिपाठ
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
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वह (कालरूपी ईश्वर) पूर्ण है, यह (कालरूपी जगत्) पूर्ण है। उस पूर्ण से इस पूर्ण के व्यक्त होने पर भी पूर्ण ही यथावत् पूर्ण की तरह से अवशिष्ट रहता है।
इसी आधार पर अगले पोस्ट्स में विचार किया जाएगा।
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