योग साधना का प्रारंभ
------------©-----------
महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित योग-विषयक ग्रन्थ के क्रमशः चार अध्यायों योग साधना की शिक्षा दी गई है।
प्रथम अध्याय, समाधिपाद के अंतर्गत योग साधना के प्रयोजन और महत्व के बारे में प्रारंभिक जानकारी दी गई है। योग और उसका अनुशासन और परिभाषा का उल्लेख प्रथम दो सूत्रों में किया गया है:
अथ योगानुशासनम्।।१।।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।
इसे स्पष्ट करने के बाद दृष्टा के सन्दर्भ में वृत्ति का क्या महत्व है और वृत्तियों से दृष्टा से क्या संबंध है इस विषय में बाद के निम्न सूत्रों में इस प्रकार से कहा गया है :
तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।
तात्पर्य यह कि वृत्तियों का निरोध हो जाने की स्थिति में दृष्टा के वास्तविक स्वरूप को जाना जाता है। उस समय दृष्टा अपने उस स्वरूप में स्थित होता है। अर्थात् उस समय उसके उस स्वरूप को जाना जाता है।
दृष्टा का अस्तित्व तो संदेह से परे और स्वयंसिद्ध ही है जिस पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। वह दृष्टा नित्य है या अनित्य है इस पर यदि कोई प्रश्न उठाया जाता है, तो उसका उत्तर तत्काल ही मिल जाता है, क्योंकि यदि दृष्टा अनित्य हो तो उसके स्वरूप के बारे में जिज्ञासा करना व्यर्थ होगा। किन्तु अभी दृष्टा का स्वरूप क्या है, इसे गौण मान लिया गया है और वृत्ति का स्वरूप क्या है तथा वृत्ति का निरोध या निवारण (dissolution) कैसे किया जा सकता है, इस पर प्रधान रूप से ध्यान दिया गया है।
यद्यपि दृष्टा काल से अबाधित वास्तविकता है, किन्तु वृत्तियों से आवरित होने के कारण उसका स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पा रहा है, और तर्क से भी उसके अस्तित्व की सत्यता सिद्ध होती है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, इसलिए दृष्टा स्वरूपतः क्या है, इसे समझ सकने के लिए यह आवश्यक है कि पहले वृत्तियों का निवारण कर दिया जाए।
'इतरत्र' को दो प्रकार से समझा जा सकता है :
इतः अत्र, या इतर-त्र।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र वृत्ति सारूप्यं इतरत्र
में इसी का संकेत है।
यह शायद कुछ आश्चर्यजनक है कि योगशास्त्र और भक्तिशास्त्र के ग्रन्थों में मुक्ति को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मुक्ति की कामना भी स्वयं ही एक बंधन है और जब तक कामना है, मुक्ति कैसे हो सकती है? इस प्रश्न को सीधे ही न उठाते हुए, योगशास्त्र में चित्त-वृत्ति का निरोध कैसे हो इस बारे में, और भक्तिशास्त्र में परमात्मा या ईश्वर की उपासना द्वारा चित्त की शुद्धि कैसे हो, इसे ही अधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि चित्त के शुद्ध हो जाने, और वृत्ति के निरोध का फल समान ही है और वही आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर का साक्षात्कार या मुक्ति है।
इसलिए बाद के सूत्रों में वृत्तियों के स्वरूप और प्रकारों के बारे में इस प्रकार से कहा गया है :
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।
अभावप्रत्यालम्बना वृत्तिर्निद्रा।।१०।।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।
इसके बाद उपरोक्त वृत्तियों का निरोध जिस विधि से किया जा सकता है, उसे स्पष्ट किया गया है :
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।१२।।
अभ्यास और वैराग्य इन दोनों के माध्यम से वृत्ति-निरोध संभव होता है।
***
No comments:
Post a Comment