और वैराग्य
(योग-सूत्र : समाधिपाद)
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तत्र स्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः।।१३।।
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारसेवितो दृढभूमिः।।१४।।
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।।१५।।
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।।१६।।
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तत्र अर्थात् वहाँ, उस स्थान पर।
कहाँ?
यत्र यदा / तदा दृष्टुः अवस्थानम्।।
वहाँ पर, जहाँ, जब दृष्टा अपने स्वरूप में अवस्थित होता है।
कुत्र?
स्वरूपे - शुद्ध स्वरूप में
दृष्टा कौन?
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
दृष्टा जो दर्शन ही है, और दर्शन / देखने में ही अन्तर्निहित है, यद्यपि नित्य शुद्ध एकमेव आत्मा ही है, किन्तु उसे देखने में, कोई प्रत्यय / वृत्ति की ही सहायता लेना आवश्यक होता है ।
(पाहातेपण्याच्या आत पाहात्याला पहावें। इति गुरूपदेशः)
मन की उस शान्त, वृत्तिमात्र की गति से रहित स्थिति में पुनः पुनः लौटने के यत्न को ही अभ्यास कहते हैं।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।२६।।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।२७।।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकलमषः।।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।२८।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६)
दीर्घकाल तक निरन्तर ऐसा यत्न करते रहने पर यह अभ्यास दृढ हो जाता है।
अब, यह वैराग्य क्या है और कैसे सिद्ध होता है इसे स्पष्ट किया जाता है :
समस्त दृश्य श्रव्य आदि इन्द्रिय-विषयों के भोगों के प्रति राग, अर्थात् तृष्णा की अत्यन्त निवृत्ति हो जाने, और तृष्णा को वश में कर लेने को ही वैराग्य कहा जाता है।
इस वैराग्य से भी बढ़कर परम वैराग्य वह होता है जो कि पुरुष (आत्मा के स्वरूप) का ज्ञान होने पर जागृत होता है।
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