Creation, Existence and Dissolution.
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Terminology :
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प्राण (cosmic energy),
रयि (cosmic material),
चेतना (sentience inherent),
शरीर (Body), मन (mind) चित्त (consciousness),
अस्तित्व (Existence),
भान (Intelligence / Consciousness),
चैतन्य (Awareness),
Give rise to :
The apparent relative Time (काल).
The idea of Cause (कारण), and Effect (कार्य), is the notion, that rises up in the individual.
बुद्धि (Intellect), -- the sentient being, who has such a अन्तःकरण (psyche).
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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयो तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)
जन्माद्यस्य यतः।।
(ब्रह्मसूत्र १/१/२)
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असन्नेव स भवति।
असद्ब्रह्मेति वेद चेत्।
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद।
सन्तमेनं ततो विदुरिति।
तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य।
अथातोऽनुप्रश्नाः।
उता विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चन गच्छती३।
आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चित्समश्नुता३ उ।
सोऽकामयत्।
बहु स्यां प्रजायेयेति।
स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा इद्ँसर्वमसृजत यदिदं किं च।
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।
तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्।
(त्यत् च अभवत् -- त्यत् - असौ, ditto the same, = सः, the one described earlier)
निरुक्तं चानिरुक्तं च।
निलयनं चानिलयनं च।
विज्ञानं चाविज्ञानं च।
सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्।
यदिदं किं च।
तत्सत्यमित्याचक्षते।
तदप्येष श्लोको भवति।
(तैत्तिरीय उपनिषद् - ब्रह्मान्दवल्ली, षष्ठमनुवाक)
अथ सप्तम अनुवाक :
असद्वा इदमग्र आसीत्।
ततो वै सदजायत।
तदात्मान्ँ स्वयमकुरुत।
तस्मात्तत्सुकृतमुच्यत* इति।
यद्वै तत्सुकृतं* रसो वै सः।
(* कठोपनिषद् - सुकृत १-३-१)
रस्ँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।
को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।
एष एव ह्यानन्दयति।
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलमनमभयं प्रतिष्ठां विन्दते।
अथ सो अभयं गतो भवति।
यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरं अन्तरं कुरुते।
अथ तस्य भयं भवति।
तत्त्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य।
तदप्येष श्लोको भवति।
सप्तम अनुवाक समाप्त।।
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सदेव सौम्य इदमग्र आसीत्।।
ततो असत् अजायत।।
अथ वा असत् एव....
यदासीत अग्रे ....
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इस प्रकार अस्तित्व जो है, नित्य, शाश्वत, सनातन और अविनाशी (दृष्टा) है, जिसका विनाश नहीं हो सकता।
"यह है, -अस्ति यत्, - अस्तित्व," -- ऐसा कोई कहता है।
यह कहनेवाला कोई चेतन तत्व है, न कि जड।
कहनेवाला चेतन ही दृष्टा है और वह जिस अस्तित्व को देखता है जिसका ईक्षण करता है वह जड दृश्य है।
चेतन के द्वारा ईक्षण होने की घटना ही तप है।
ईक्षण रूपी अग्नि में ही उस चेतन के ही प्रसंग से, जड सतत रूपान्तरित होता हुआ, - जो है, उसे ही प्रतीत होता है।
यह हुआ प्रसव (Creation / Evolution) ।
इस प्रक्रिया के इस क्रम में जन्म एक बिन्दु है जहाँ अविनाशी अवयक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करता है। तब क्रमशः पहले जड और चेतन में, और इसके बाद अन्तःकरण और बाह्यकरण के रूप में और विकसित होता है।
यह सब कब प्रारंभ हुआ? -- यह प्रश्न बुद्धि में ही उठता है, और प्रमादवश (because of inattention) बुद्धि (intellect) में ही इस प्रकार काल (Time) की प्रतीति और काल / समय का आभासी जन्म होता है । अविनाशी, नित्य, सनातन शाश्वत इस अस्तित्व पर चेतन में बुद्धि के व्यक्त होने के परिणाम से ही, उस बुद्धि से ही काल का उद्भव हुआ।
काल का (उद्भव / उत्पन्न होने से पहले) 'कब' का प्रश्न ही कहाँ और कैसे उठ सकता है?
अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते....।।
यह हुआ काल और व्यापक आकाश (space) जो मूलतः वही अविनाशी है जो कि दृष्टा है और जो दृष्टा की तरह से अविकारी आधारभूत (Immutable prime principle) है।
इति प्रसवः।।
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अथ प्रतिप्रसवः
पातञ्जल योग-सूत्र (अध्याय २) : साधनपाद
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।१।।
समाधि भावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च।।२।।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।३।।
अविद्या -- क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्।।४।।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।।५।।
अस्मिता --
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता।।६।।
राग: --
सुखानुशयी रागः।।७।।
द्वेषः --
दुःखानुशयी द्वेषः।।८।।
अभिनिवेशः --
स्व-रसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः।।९।।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।।१०।।
(ते क्लेशाः प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः)
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।११।।
(ध्यानहेयाः तत् वृत्तयः)
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इति प्रतिप्रसवः।।
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