उषःसूक्तम्
Monday, 13 March 2023
Thursday, 26 January 2023
तदेजति तन्नैजति
मंत्र ५
तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके।।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।
The Four Fold Mind :
मन के चार मुख (चतुरानन)
Active, In-active, Passive, Impassive.
सक्रिय (परस्मैपदी), निष्क्रिय (आत्मनेपदी) समरस (उभयपदी), असंसक्त,
इसके तुल्य मानसिक स्थितियाँ क्रमशः इस प्रकार हैं --
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति / सविकल्प समाधि, निर्विकल्प समाधि।
निर्विकल्प समाधि भी केवल निर्विकल्प (सबीज) या सहज निर्विकल्प (निर्बीज) हो सकती है।
निर्विकल्प ही तुरीय है। सहज निर्विकल्प ही असंसक्त अर्थात् तुरीयातीत Impassive है, जिसका वर्णन इस मंत्र में किया गया है।
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तत् एजति तत् न एजति तत् दूरे तत् उ अन्तिके।
तत् अन्तरस्य सर्वस्य तत् उ सर्वस्य अस्य बाह्यतः।।
यहाँ सर्व / इदम् सर्वनाम का प्रयोग एकवचन में दृष्टव्य है। अर्थात् 'सब' का प्रयोग बहुवचन में नहीं है; जैसा कि 'सब लोग' में है। चूँकि काल / समय भी सब (Total / Totality) के ही अन्तर्गत है इसलिए उक्त मंत्र काल के सन्दर्भ में भी सुसंगत है। --
अर्थ वह गतिशील है, वह गतिशून्य है, वह दूर है, और वह भीतर है। वह इस सब के (अस्य सर्वस्य) के भीतर और बाहर भी है।
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Sunday, 22 January 2023
अनेजदेकम्
मंत्र ४
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।
अन्वय : अन्-एजत् एकं मनसः जवीयः न एनत् देवाः आप्नुवन् पूर्वं-अर्षत् । तत् धावतः अन्यान् अति-एति, तिष्ठत् तस्मिन् अपः मातरिश्वा दधाति।।
सरल अर्थ : वह (काल) मन से भी अधिक तीव्र वेग से चलता है, दौड़ते हुए उसकी गति को देवता भी न पकड़ पाए । यद्यपि वह (काल) दौड़ते हुए सबका अतिक्रमण कर जाता है, तथापि वह पूर्ण अचल है, उसकी इस अचलता में ही वर्षा, वाष्परूपी जल, श्वास रूपी प्राण अर्थात् जीवन प्रतिष्ठित हैं।
भावार्थ : काल के आदि और अन्त को कौन जानता है? सम्पूर्ण जीवन काल के अन्तर्गत गतिशील है, जबकि काल चलायमान (प्रतीत होते हुए भी) नितान्त निश्चल, शाश्वत्, सनातन, चिरन्तन उनका अधिष्ठान है।
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Thursday, 5 January 2023
कुर्वन्नेवेह कर्माणि
मंत्र ३
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।३।।
अन्वय : कुर्वन् एव हि कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एवं त्वयि न अन्यथा इतः अस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।
सरल अर्थ : मनुष्य को चाहिए कि कर्म करते हुए वह सौ वर्ष तक जीते रहने की इच्छा करे। इससे अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे कि मनुष्य श्रेयस् की प्राप्ति कर सके। वैसे भी कर्म मनुष्य को नहीं बाँधता, कर्म मनुष्य को उसके दृष्टिकोण के ही अनुसार बाँधता या मुक्त करता है।
विशेष अर्थ : 'शतं समाः' का अर्थ है सौ या बहुत वर्षों तक।
सं - वत् सरति इति संवत्सरः अर्थात् वर्ष।
क्योंकि कोई भी मनुष्य क्षण भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं यह सकता, उसकी प्रकृति ही उसे किसी न किसी कर्म को करने के लिए बाध्य कर देती है :
न ही कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।५।।
(अध्याय ३)
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।
(अध्याय १८)
ध्यान देने योग्य है कि इससे पूर्व अर्जुन कहते हैं:
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
(अध्याय १)
फिर किस प्रकार का कर्म मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।४८।।
(अध्याय १८)
स्वयं का ही उदाहरण देते हुए वे अर्जुन से कहते हैं :
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।१४।।
(अध्याय ४)
इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने बारे में कह रहे हैं, इसका सीधा सरल अर्थ यह है, कि वे उस मनुष्य के बारे में कह रहे हैं, जो --
"कर्म मुझमें लिपायमान नहीं होते, और न ही मुझे कर्म करने की लालसा है",
इस तरह से अपने स्वयं को जो भली-भाँति जानता है, वह कर्मों से नहीं बाँधा जाता है।
पुनः यहाँ भी स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न समय पर मनुष्य के द्वारा भिन्न भिन्न कर्म किए जा सकते हैं और समय समय के अनुसार ही उन प्राप्त हुए विहित कर्तव्य कर्मों को मनुष्य अपने विवेक से कर सकता है।
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1/9, 4/14, 18/48,
Wednesday, 4 January 2023
कस्य स्विद्धनम् ।।
मंत्र - १
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।
अन्वय : ईशा वास्यम् इदम् सर्वम् यत् किम् च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्वित् धनम्।।
सरल अर्थ :
इस जगती (अस्तित्व) में असंख्य जगत् हैं। प्रत्येक मनुष्य का अपना व्यक्तिगत विश्व होता है, और ऐसे असंख्य व्यक्ति अपने अपने विश्व में अपना जीवन जीते हैं। कोई भी किसी दूसरे के जीवन के बारे में जैसा अनुमान लगाता है, वह उसकी अपनी बुद्धि, संस्कार और स्मृति पर आधारित होता है। शुद्ध भौतिक दृष्टि से यद्यपि सभी व्यक्ति उन्हीं पाँच मूल महाभूतों से बने होते हैं, जिनसे कि यह अस्तित्व बना है। अस्तित्व भी पुनः काल और स्थान के अन्तर्गत है। इसी प्रकार काल और स्थान भी अस्तित्व के अन्तर्गत हैं। काल को ईश्वर-तुल्य समझा जा सकता है, जैसा कि पिछले पोस्ट में कहा गया था। ईश्वर के बारे में यद्यपि कोई किसी प्रकार का दावा नहीं कर सकता, किन्तु काल के बारे में ऐसी कोई दुविधा नहीं है। क्या कोई है जो काल की सत्यता पर सन्देह करता हो! काल केवल मान्यता है या विज्ञान-सम्मत तथ्य भी है! स्पष्ट है कि यद्यपि हम काल के स्वरूप के बारे में ठीक ठीक कुछ नहीं जानते, और वैज्ञानिक भी इस बारे में काल के स्वरूप से अंतिम रूप से कुछ तय नहीं कर पा रहे हैं, किन्तु यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि काल ही अस्तित्व की प्रत्येक ही छोटी से छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी घटना को भी परिभाषित, संचालित और नियंत्रित करता है। हम किसी हद तक काल के लक्षणों का अवलोकन और अनुमान कर तदनुसार अपने कार्य सफलतापूर्वक संपन्न कर सकते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हमने काल को जीत लिया है।
मंत्रार्थ : यह सम्पूर्ण अस्तित्व काल के ही द्वारा शासित उसका ही व्यक्त प्रकार है। यही हमारा वास्तविक धन है, जिसे हम न तो उत्पन्न कर सकते हैं, न संग्रह कर सकते हैं, और जिसे न ही व्यय कर सकते हैं। फिर भी काल का समुचित उपभोग तो कर ही सकते हैं। अर्थात् यह ध्यान में रखकर कि व्यतीत काल पुनः नहीं आ सकता। इसी प्रकार आनेवाले भावी के लिए हम कोई योजना तो बना सकते हैं, किन्तु भविष्य का केवल अनुमान ही किया जा सकता है, उसे ठीक ठीक जान पाना तो असंभव ही है। यदि कोई उसे जानता भी हो तो भी उसे बदल नहीं सकता, क्योंकि बदलने का मतलब यही हुआ कि उसके द्वारा जो जाना था, वह जानना ही मूलतः त्रुटिपूर्ण था। इसलिए कोई दैवज्ञ भी यद्यपि किसी भावी घटना की अक्षरशः ठीक भविष्यवाणी भी कर सकता है, फिर भी वह किसी भी उपाय से उसे बदलने का दावा नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा दावा करता है, तो इससे यही सिद्ध होगा कि उसने भविष्य का जैसा अनुमान किया है, उस अनुमान में ही कोई त्रुटि थी।
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Monday, 2 January 2023
यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
अथ शान्तिपाठः
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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मंत्र १
ईशावास्यमिद्ँसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।
मंत्र २
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँसमाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।
मंत्र ३
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँ'स्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।३।।
मंत्र ४
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्मर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।
मंत्र ५
तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।५।।
मंत्र ६
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।६।।
मंत्र ७
यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।७।।
मंत्र ८
स पर्यगाच्छुक्रमकाय-
मव्रणमस्नाविर्ँ शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूस्वयंभूर्याथातथ्यतो-
ऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।८।।
मंत्र ९
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ' रताः।।९।।
मंत्र १०
अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्व विचचक्षिरे।।१०।।
मंत्र ११
विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभय्ँ सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।११।।
मंत्र १२
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ'रताः।।१२।।
मंत्र १३
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद् विचचक्षिरे।।१३।।
मंत्र १४
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद् वेदोभय्ँ सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते।।१४।।
मंत्र १५
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।१५।।
मंत्र १६
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजा-पत्य व्यूह रश्मीन् समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि।।१६।।
मंत्र १७
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त्ँ शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृत्ँ स्मर क्रतो स्मर कृत्ँ स्मर।।१७।।
मंत्र १८
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम-उक्तिं विधेम।।१८।।
।। यजुर्वेदीय ईशावास्योपनिषद् समाप्त।।
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शान्तिपाठः
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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ईशावास्यमिद्ँसर्वम्
समय और सामायिक
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ईशावास्योपनिषद् : एक नया सन्दर्भ
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सामान्यतः जिसे समय या काल कहा समझा जाता है, उसे पुनः दो प्रकारों में देखा जा सकता है। एक तो वह समय है, जो कि बीतता है, दूसरा वह, जो कि नहीं बीतता है। इन दोनों प्रकारों के अतिरिक्त समय का एक रूप वह भी है जिसे पकड़ा तो नहीं जा सकता, किन्तु जिसे स्पर्श भर किया जाता या किया जा सकता है। वह है समय में सुनिश्चित किया गया कोई विशेष क्षण, जैसा कि रॉकेट लांच करते समय होता है, और जिसके लिए उल्टी गिनती की जाती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो समय या काल, सापेक्ष और निरपेक्ष भी होता है, सावधिक (अन्तरालयुक्त) निरवधिक (अन्तरालशून्य) भी हो सकता है। वह समय जो कि सतत, अबाध और निर्विघ्न प्रवाहशील है, ऐसा ही एक समय है, जबकि कोई पूर्व-निश्चित वह विशेष क्षण, जिसे क्षणिक रूप से स्पर्श किया जा सकता है इसी प्रवाहशील प्रतीत होते समय में स्थित एक ऐसा बिन्दु है, जो आते ही प्रस्थान कर जाता है।
इस प्रकार उस महान काल या समय को, जो कि एक प्राकृतिक और चेतन महाशक्ति भी है, यम भी कहा जाता है, जो अस्तित्व की नियामक शक्ति है। इन्हीं चेतन महाशक्तियों को आधिदैविक भी कहा जाता है क्योंकि जैसे मनुष्य इत्यादि के चेतन होते हुए भी उनकी शक्ति और सामर्थ्य इनसे बहुत भिन्न प्रकार का और नाममात्र के लिए होता है। जैसे अग्नि, वायु, आप्, पृथ्वी, नभ, या इन्द्र, मरुत्, सोम, वरुण और यम आदि। आधिभौतिक स्तर पर अनेक व्यक्त चेतन रूप एक ही साथ अनेक देवताओं के रूप में हो सकते हैं जिसका विशेष उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १० में देखा जा सकता है। इन्हें विभूति कहा जाता है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्तमेव च।।२०।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।३०।।
यद्यद्विभूतिमत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।।४१।।
इस प्रकार विभूति वे आत्माएँ हैं जो योगसाधन के क्रम में कहीं अवरुद्ध हो गईं और देवता की उपाधि को प्राप्त कर कुछ समय तक के लिए उस स्थिति में अवस्थित नहीं। कठोपनिषद् में भी इसकी पुष्टि की गई है जहाँ यमराज नचिकेता से यही कहते हैं कि सोम, वरुण आदि देवताओं की तरह उन्होंने भी इस उपाधि को पुण्यकर्मों का अनुष्ठान कर प्राप्त किया हैंं, और अन्ततः इसे भी त्याग देंगे।
स्वामी विवेकानन्द ईश्वर का वर्णन इस प्रकार से करते हैं :
सांख्यदर्शन के मतानुसार, वेद में जिस ईश्वर की बात कही गई है, वह ऐसी ही एक मुक्तात्मा का वर्णनमात्र है। इसके अतिरिक्त जगत् का अन्य कोई नित्यमुक्त, आनन्दमय सृष्टिकर्ता नहीं है। दूसरी ओर, योगीगण कहते हैं, ---- "नहीं ईश्वर है; अन्य सभी आत्माओं से, सभी पुरुषों से अलग एक विशेष पुरुष है; वह सृष्टि का नित्य प्रभु है, वह नित्यमुक्त है और सभी गुरुओं का गुरुस्वरूप है।" सांख्यमतवाले जिन्हें प्रकृतिलय कहते हैं, योगी-गण उनका अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि वे योगभ्रष्ट योगी हैं। कुछ समय तक के लिए उनकी चरम लक्ष्य की ओर की गति में बाधा होती है, और उस समय वे जगत् के अंशविशेष के अधिपतिरूप से अवस्थान करते हैं।
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।। १९।।
(राजयोग - स्वामी विवेकानन्द, समाधिपाद)
नियामक अर्थात् शासक जिसे अंग्रेजी में Governing and Regulatory Power कह सकते हैं। संस्कृत / हिन्दी में इसे ईशिता कहा जाता है -- तुदादिगणीय √इष् धातु का प्रयोग इच्छा होने या करने के अर्थ में किया जाता है। संसार का प्रत्येक प्राणी इच्छा के ही द्वारा शासित होता है और "अपनी इच्छाओं पर वश रखना चाहिए" कहे जाने का तात्पर्य है कि अशुभ इच्छाओं पर शुभ इच्छाओं का शासन होना चाहिए।
काल या समय ही वह महान ईश्वर है जिसकी इच्छा से समस्त जीव शासित होते हैं। √इष् धातु से ही ईश्वर तथा ईशिता दोनों ही शब्दों की व्त्युत्पत्ति की जा सकती है। अस्तित्व इसी चेतन और महान शक्ति से प्रेरित और परिचालित होता है।
ईशिता सर्वभूतानां सर्वभूतमयँश्च यत्।
ईशावास्येन संबोध्यमीश्वरं तं नमाम्यहम्।।
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यद्यपि काल अर्थात् समय के लिए 'वह' और 'यह' इन दोनों ही सर्वनामों का प्रयोग किया जा सकता है, 'यह', 'वह', 'तुम' और 'मैं' भी काल के ही अन्तर्गत प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं।
किन्तु काल का भान भी किसी चेतन (पुरुष) के सन्दर्भ पर ही निर्भर होता है। स्पष्ट है कि यह भान ही चेतनता / चेतना है जो आदि और अन्त से स्वतंत्र है। अर्थात् जिसमें काल का आगमन और प्रस्थान हुआ करता है। यह सहज स्वभाविक भान इसलिए कालनिरपेक्ष ईश्वर ही है जो पूर्ण होने से इच्छा ज्ञान और क्रिया इन तीनों से ही स्वतन्त्र है। किन्तु व्यक्ति जिसे अपने 'होने' का भान है, इच्छा से परिचालित होता है, उन अनुभवों और उनकी स्मृति से उत्पन्न सापेक्ष ज्ञान को सत्य मानकर उस आधार पर इच्छा से परिचालित होकर ऐसा कार्य (कर्म) करता है, जिससे उसे सुख प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है।
इस प्रकार, इच्छा, ज्ञान और क्रिया का यह क्रम अपने आपके एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना के जाग्रत होने के अनन्तर ही प्रारंभ होता है।
अपने इस स्वतंत्र अस्तित्व का भान ही सुख की इच्छा के रूप में सतत व्यक्त रूप में व्यक्ति चेतना है, और इस सीमित चेतना में अंतःकरण के सक्रिय होने पर व्यक्ति का अपना जीवन है ऐसा आभास उत्पन्न होता है जो अंततः दृढ विश्वास बन जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति के अनुभवों के क्रम की स्मृति से उत्पन्न ज्ञान उस भान की ही छाया मात्र है जो नित्य, सनातन और शाश्वत है। काल का उद्भव उसी भान से होता है :
अक्षरात्सञ्जायते कालः कालाद्व्यापको उच्यते व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो, यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजा।
(शिवाथर्वशीर्षम्)
किन्तु चूँकि काल के अस्तित्व को सभी मान्य करते हुए भी यह भी मानते हैं कि उसके स्वरूप के विषय में स्पष्ट और सुनिश्चित कुछ कोई नहीं जानता।
इसी आधार पर ईशावास्योपनिषद् में जिस परमात्मा का वर्णन किया गया है, उसे काल के रूप में भी देखा जा सकता है और इस पूरे ग्रन्थ का अध्ययन इस दृष्टि से भी किया जा सकता है।
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शान्तिपाठ
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
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वह (कालरूपी ईश्वर) पूर्ण है, यह (कालरूपी जगत्) पूर्ण है। उस पूर्ण से इस पूर्ण के व्यक्त होने पर भी पूर्ण ही यथावत् पूर्ण की तरह से अवशिष्ट रहता है।
इसी आधार पर अगले पोस्ट्स में विचार किया जाएगा।
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