Sunday 11 December 2022

कर्तुराज्ञया

कर्म-दर्शन

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षड् दर्शनों में से एक, -मीमांसा दर्शन में कर्मकाण्ड की विवेचना की जाती है। और कर्म के माध्यम से तीन पुरुषार्थों -धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि कैसे हो सकती है, इस विषय में विस्तार से बतलाया गया है। किन्तु कर्म पुनः सकाम या निष्काम, इन दोनों प्रकार का हो सकता है। कर्म किसी भी प्रकार से क्यों न किया जाए, आवश्यक रूप से उसकी कोई न कोई प्रतिक्रिया या फल भी होता ही है जो संस्कार बन जाता है और उस संस्कार से ही मनुष्य सतत कर्म और कर्मफल की कर्मश्रँखला में सदा बँधा ही रहता है।

सबसे महत्वपूर्ण और प्रबल दुर्निवार समस्या यह है कि कामना सहित किया जानेवाला ही ऐसी श्रृंखला निर्मित करता है, न कि निष्काम और वैराग्ययुक्त बुद्धि से 'प्राप्त हुआ कर्तव्य है', - इस दृष्टि से किया जाने वाला कर्म।

जब तक किसी भी कामना से प्रेरित होकर कर्म किया जाता है, तब तक मनुष्य में 'मैं' कर्ता, भोक्ता, स्वामी और परिज्ञाता (गीता 18/18) की तरह नेपथ्य में विद्यमान रहता ही है। किन्तु मनुष्य जब केवल प्रारब्धवश प्राप्त हुए कर्मों को ही बिना किसी फल की प्राप्ति की आशा से रहित होकर, कर्तव्य के निर्वाह के लिए ही करता है, तब ऐसे कर्म से कोई नया संस्कार नहीं उत्पन्न होता है।

सबसे विचित्र सच्चाई यह है कि किसी भी कर्म का कुछ या कोई न कोई फल अवश्य ही होता है, किन्तु वह कब प्राप्त होगा, इसे मनुष्य कभी नहीं जान सकता। इसका एक अपवाद यही है कि प्राप्त हुए सभी विहित कर्मों को वैराग्यबुद्धि से, सहज-रूप से होने दिया जाए। इस (निष्काम) कर्म को भी इसलिए ईश्वर को समर्पित कर देने से या प्राप्त होने से किए जानेवाले प्रारब्ध की तरह हो जाने देने से नया संस्कार नहीं उत्पन्न होता।

क्योंकि फल एकमात्र प्रदान करनेवाला ईश्वर ही है। और यही कर्मबन्धन से मुक्ति या मोक्ष नामक चौथा पुरुषार्थ है।

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Tuesday 29 November 2022

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः

चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् : श्रीशङ्कराचार्यकृतम्

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दिनमपि रजनी सायंप्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। 

कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।१।।

ध्रुवपदम् :

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते। 

प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे।।

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पित जानू।

करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः।।२।।

भजगोविन्दम् मूढमते...

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारे रक्तः। 

पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे।।३।।

भज गोविन्दं  मूढमते...

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायम्बर बहुकृतवेशः।

पश्यन्नपि न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोकः।।४।।

भज गोविन्दं मूढमते...

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गङ्गाजललवकणिका पीता। 

सकृदपि यस्य मुरारि समर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम्।।५।।

भज गोविन्दं मूढमते...

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्। 

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्।।६।।

भज गोविन्दं मूढमते...

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।

वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्न।।७।।

भज गोविन्दं मूढमते...

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे।।८।।

भज गोविन्दं मूढमते...

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।

पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्।।९।।

भज गोविन्दं मूढमते...

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः। 

नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः।।१०।।

भज गोविन्दं मूढमते...

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।

एतन्मांसवसादिविकारः मनसि विचारय बारम्बारम्।।११।।

भज गोविन्दं मूढमते... 

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।

इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्।।१२।।

भज गोविन्दं मूढमते...

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।

नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम्।।१३।।

भज गोविन्दं मूढमते...

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।

गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये।।१४।।

भज गोविन्दं मूढमते...

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।

यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्।।१५।।

भज गोविन्दं मूढमते...

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।

नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः।।१६।।

भज गोविन्दं मूढमते...

कुरु ते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।

ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन।।१७।।

भज गोविन्दम् मूढमते...

।। इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं - चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।।

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Friday 25 November 2022

जीवन और चेतना

जीवन का अद्भुत् रोमाञ्च!

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Wednesday 23 November 2022

The Past Is Memory.

P O E T R Y / 24-11-2022

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In This Timeless Eternal Now,

Memory Creates The Past,

The Past Creates The Memory.

The Past Feeds Upon The Memory,

The Memory Feeds Upon The Past.

Truly A Vicious Circle Endless!

This Is Survives Why!,

The Thought, How!!

The Now, -Where The Memory,

The Now, -Where The Past, 

The Now, -Where The Thought, 

Neither Breed, Nor Survive,

Is This Very Moment, The Now!

Where The Past Ceases To Be,

Where The Memory Ceases To Be,

Where The Thought Ceases To Be!

Where Only, -The Awakening Is, 

Where Only, -The Awareness Is,

The Only Reality Alone,

-That Reigns Over, Ever Supreme!

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Wednesday 16 November 2022

The Undifferentiated

And The Differentiated Whole.
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Existence as such is Undifferentiated Whole while the manifestation is the differentiated Totality. Totality is the aggregate of parts and the Undifferentiated Whole has no parts any. The Sanskrit equivalents are as follows :
Undifferentiated : अव्याकृत
Differentiated : व्याकृत,
Whole : समष्टि,
Totality : सम्पूर्ण (सर्वविभाग-समन्वय),
Part : विभाग,
Manifest : व्यक्त,
Non-manifest : अव्यक्त,
Thought : वृत्ति,
Knowledge : स्मृति,
(Thought, Knowledge and Memory are synonyms)
Intellect : बुद्धि,
Intelligence : प्रज्ञा, भान, 
Wisdom : ज्ञान,
Revelation : बोध, भान, 
Realization : संबोध, 
Awakening : जागृति
Consciousness : Reality / the Undifferentiated Whole Who is not ignorance, delusion. The pronoun "Who" is used to point out that this "Awareness" alone is the Un-differentiated Whole, Who is aware of Existence, while the Awareness itself not the principle or element non-existence.
So this Awareness / Consciousness could also be further assumed to be either the manifest or the non-manifest. Undifferentiated or the differenciated.
Individual manifest : व्यक्ति भाव, 
Enlightenment : निर्वाण

This is only an approximate, virtual, though tentative vocabulary, to as to facilitate the conversation, and avoid the verbal conflict. 

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The Real and The Unreal.

The True and The False. 

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Just for record; Five Screenshots.


















Wednesday 9 November 2022

Thursday 3 November 2022

The Neuron

Consciousness and Neuroscience 

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A neuron doesn't realize it's a neuron... 

Really? 




Sunday 30 October 2022

#twitterforlearning

A Screenshot from my Twitter Account --

TwitterforLearning! (twitterforlearning) 




श्रीमद्भगवद्गीता -- 5/14,

प्रह्लादकृत नृसिंह-स्तुति -14,

श्वेताश्वतरोपनिषद् -- 1/2,

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अध्याय 1, श्लोक 2



This Screen-shot above of my twitter page prompted me to write this post.

Because of reasons unknown, This reminded me of three Sanskrit Stanzas from different  three sources.

From Shrimadbhadgita / Chapter 5,

Stanza 14, श्रीमद्भगवद्गीता -- अध्याय 5,

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

The next is from :

Srimdbhagvat Section 7, Chapter 9 --

Prahladkrit nrsingh-stotram,

श्रीमद्भागवते महापुराणे सप्तमस्कन्धे नवमेऽध्याये प्रह्लादकृत-नृसिंहस्तोत्रम्

माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः 

कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः।।

छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं

संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः।।१४।।

And the last one is from the Shwtashvara -  Upanishad -1/3,

श्वेताश्वतरोपनिषद्,

अध्याय १,

मंत्र / श्लोक ३ --

कालः स्वभावः नियतिर्यदृच्छा

भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।।

संयोग एषां न त्वात्मभावा-

दात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः।।

(This should be read with reference to and in the context of the earlier one :

श्वेताश्वतरोपनिषद्

प्रथमोऽध्यायः

हरिः ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति --

किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता

जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा।। 

अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु

वर्तामहे ब्रह्मविदो वरिष्ठाम्।।१।।)

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This post elaborates the answer that I gave in my tweet to him.

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Saturday 29 October 2022

Idea is Insecurity

The Bird. 

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Understanding the ego.

Awakening and Freedom

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There is no freedom of thought any. There is no such a political or social freedom any, --  Never.

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Monday 24 October 2022

The Heritage and the Lineage.

Veda, Upanishad and Purana

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वेद, उपनिषद् और पुराण

।।प्रह्लादकृत नृसिंह स्तोत्रम्।।

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प्रह्लाद उवाच :

(१ से २२ तक.... और इसी क्रम में आगे ...)

एकस्त्वमेव जगदेतदमुष्य यत्त्व-

माद्ययन्तयोः पृथगवस्यसि मध्यतश्च।। 

सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं 

नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः।।२३।।

त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो

माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था।। 

यद्यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च

तद्वै तदेव वसुकालवदिष्टतर्वोः।।२४।।

न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये

शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः।। 

योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्र-

स्तुर्ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्क्षे।।२५।।

तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या

सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम्।।

अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधे-

र्नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्हाब्जम्।।२६।।

तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमान-

स्त्वां बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य।।

नाविन्दब्दशतमप्सु निमज्जमानो

जातेऽङ्कुरे कथमु होपलभेत बीजम्।।२७।।

स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आस्थितोऽब्जं

कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः।।

त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं

भूतेन्द्रियाशमये विततं ददर्श।।२८।।

एवं सहस्रवदनाङ्घ्रिशिरःकरोरु-

नासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम्।।

मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं

दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः।।२९।।

(इति यथा प्रह्लादकृत नृसिंहस्तोत्रे वर्णितम्)

स एव ब्रह्मा,

देवानां प्रथमः सम्बभूव,

इति मुण्डकोपनिषदि यथा हि --

प्रथम मुण्डक, प्रथम खण्ड --

ॐ ब्रह्मा हि देवानां प्रथमः सम्बभूव

विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठा-

मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।१।।

अथर्वणे यां प्रवदेत  ब्रह्मा-

थर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।।

स भारद्वाजाय सत्यवहाय

प्राह भारद्वजोऽङ्गिरसे परावराम्।।२।।

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।।

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च।।४।।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।

अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।५।।

ब्रह्मविद्या हि ब्रह्माणी अथ सरस्वती।।

अथ गङ्गा च यमुना द्वे हिमवान्कन्ये।।

गङ्गा सुरसरिः।।

यमुना च सूर्यजाता यमधर्मिणी।।

अपि च सरयू इति अयोध्यातटवाहिनी।।

तमसा इति वैतरणी।।

अङ्गिरा गिरा च वाक् वाचा वाणी वैखरी ध्वनिरूपा सरस्वती।।

अङ्गिरया आङ्लभाषा व्युत्पन्ना।।

गिरया च ग्रीकभाषा ग्रीञ्च ग्रीस् इति।।

सरस्वती विशुद्धा निराकार निर्गुणा विलुप्ति आध्यात्मिका च।। 

गङ्गा सतोरूपा काशीतलवाहिनी देवसरिता आधिदैविकी ।।

यमुना यमस्य सहजाता रजोगुणी यमधर्मिणी आधिभौतिका लौकिकी च।।

यमस्य यमुना यामिनी, तमस्य तमसा।।

अथ *इल आख्यानम् --

यथा हि श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे सप्ताशीतितमे सर्गे --

तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणेनोक्तं वाक्यं वाक्यविशारदः।।

प्रत्युवाच महातेजाः प्रहसन् राघवो वचः।।१।।

एवमेव नरश्रेष्ठ यथा वदसि लक्ष्मण।।

वृत्रघातमशेषेण वाजिमेधफलं तथा।।२।।

श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः।।

पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमान् *इलो नाम सुधार्मिकः।।३।।

स राजा पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा महायशाः।।

राज्यं चैव नरव्याघ्र पुत्रवत् पर्यपालयत्।।४।।

सुरैश्च परमोदारैर्दैतेयश्च महाधनैः।।

नाग-राक्षस-गन्धर्वैर्यक्षैश्च सुमहात्मभिः।।५।।

पूज्यते नित्यशः सौम्य भयार्तै रघुनन्दन।।

अबिभ्यंश्च त्रयो लोकाः सरोषस्य महात्मनः।।६।।

स राजा तादृशोऽप्यासीद् धर्मे वीर्ये च निष्ठितः।।

बुद्ध्या च परमोदारो *बाह्लीकेशो महायशाः।।७।।

स प्रचक्रे महाबाहुर्मृगयां रुचिर घने।।

चैत्रे मनोरमे मासे सभृत्यबलवाहनः।।८।।

(चैत्रं तु प्रथमं मासं संवत्सरे यथा प्राप्तम्।

संवत्सरं तथैव तत् काले नित्यं प्रवर्तते।।)

शिवक्षेत्र, *बाह्लीक, *इल, इला और इलावर्त

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प्रजघ्ने स नृपोऽरण्ये मृगाञ्शतसहस्रशः।।

हत्वैव तृप्तिर्नाभूच्च राज्ञस्तस्य महात्मनः।।९।।

नानामृगाणामयुतं वध्यमानं महात्मना।।

यत्र जातो महासेनस्तं देशमुपचक्रमे।।१०।।

तस्मिन् प्रदेशे देवेशः शैलराजसुतां हरः।।

रमयामास दुर्धर्षः सर्वैरनुचरैः सह।।११।।

कृत्वास्त्रीरूपमात्मानमुमेशो गोपतिध्वजः।।

देव्याः प्रियचिकीर्षुः संस्तस्मिन् पर्वतनिर्झरे।।१२।।

यत्र यत्र वनोद्देशे सत्त्वाः पुरुषवादिनः।।

वृक्षाः पुरुषनामानस्ते सर्वे स्त्रीजना भवन्।।१३।।

यच्च किञ्चन तत् सर्वं नारीसंज्ञं भभूत ह।।

एतस्मिन्नन्तरे राजा स *इलः कर्दमात्मजः।।१४।।

निघ्नन् मृगसहस्राणि तं देशमुपचक्रमे।

स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्याल मृगपक्षिणम्।।१५।।

आत्मानं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन।।

तस्य दुःखं महच्चासीद् दृष्ट्वाऽऽत्मानं तथागतम्।।१६।।

उमापतेश्च तत् कर्म ज्ञात्वा त्रासमुपागमत्।।

ततो देवं महात्मानं शितिकण्ठं कपर्दिनम्।।१७।।

जगाम शरणं राजा सभृत्यबलवाहनः।।

ततः प्रहस्य वरदः सह देव्या महेश्वरः।।१८।।

प्रजापतिसुतं वाक्यमुवाच वरदः स्वयं।।

उत्तिष्ठैत्तिष्ठ राजर्षे कार्दमेय महाबल।।१९।।

पुरुषत्वमृते सौम्य वरं वरय सुव्रत।।

ततः स राजा शोकार्थः प्रत्याख्यातो महात्मना।।२०।।

स्त्रीभूतोऽसौ न जग्राह वरमन्यं सुरोत्तमात्।।

ततः शोकेन महता शैलराजसुतां नृपः।।२१।।

प्रणिपत्य उमां देवीं सर्वेणैवान्तरात्मना।।

ईशे वराणां वरदे लोकानामसि भामिनी।।२२।।

अमोघदर्शने देवि भज सौम्येन चक्षुषा।।

हृद्गतं तस्य राजर्षेर्विज्ञाय हरसंनिधौ।।२३।।

प्रत्युवाच शुभं वाक्यं देवी रुद्रस्य सम्मता।।

अर्धस्य देवो वरदो वरार्धस्य तव ह्यहम्।।२४।।

तस्मादर्धं गृहाण त्वं स्त्रीपुंसोर्यावदिच्छसि।।

ततद्भुतं श्रुत्वा देव्या वरमनुत्तमम्।।२५।।

सम्प्रष्टमना भूत्वा राजा वाक्यमथाब्रवीत्।।

यदि देवि प्रसन्ना मे रूपेणाप्रतिमा भुवि।।२६।।

मासं स्त्रीमुपासित्वा मासं स्यां पुरुषः पुनः।।

ईप्सीतं तस्य विज्ञाय देवी सुरुचिरानना।।२७।।

प्रत्युवाच शुभं वाक्यमेवमेव भविष्यति।।

राजन् पुरुषभूतस्त्वं स्त्रीभावं न स्मरिष्यसि।।२८।।

स्त्रीभूतसश्च परं मासं न स्मरिष्यसि पौरुषम्।।

एवं स राजा पुरुषो मासं भूत्वाथ कार्दमिः।।

त्रैलोक्यसुन्दरी नारी मासमेकमिलाभवत्।।२९।।

कौन है यह राजा प्रजापति कर्दम के कुल में उत्पन्न हुआ था और जिसका सम्पर्क बाद में इल तथा इला के रूप में महात्मा बुध से हुआ। इला के रूप में स्त्री रूप में होने पर बुध से उनका पुत्र चन्द्रमा हुआ। इला और इल से ही ऐल (जैन) धर्म  का कोई संबंध है। इससे ही ऐलाचार्य शब्द बना। अरबी भाषा में ऐलची  भी इस से ही व्युत्पन्न या अपभ्रंश है जिसका अर्थ 'दूत' होता है। संस्कृत भाषा में 'अल्' प्रत्यय पूर्णता का द्योतक है, जैसा कि -- अलंकरण, अलंकृत, अलंकार आदि में दृष्टव्य है। यह उपसर्ग (prefix) एवं समास (suffix) दोनों ही तरह से संस्कृत के ही साथ साथ अरबी, लैटिन, और अंग्रेजी भाषाओं में भी इसी अर्थ का द्योतक है - जैसे  all, et al, में। आलम अर्थात् संसार तो प्रसिद्ध है ही। 

ज्योतिषीय दृष्टि से भी बुध जो नपुंसक ग्रह माना जाता है इसी आधार पर एक मास तक स्त्री और अगले एक मास तक पुरुष की भूमिका में होता है। चन्द्रमा का एक मास लगभग 27 से 28 दिनों तक की अवधि का होता है, जबकि सूर्य का लगभग 30 से 31 दिनों तक की अवधि का।

वाल्मीकि रामायण में ज्योतिषीय तथ्यों का जैसा उल्लेख पाया जाता है उससे यही सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ के सभी पात्रों की भूमिका अधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक स्तरों पर एक साथ सत्य है। इस ग्रन्थ से वेदों, उपनिषदों और पुराणों के मध्य सुसंगति खोजने और स्थापित करने के लिए सहायता भी मिलती है।

*** 

इति अलम्।। 

Cognates :

James, Thames,  Angel, Anglo, Greece, Greek, 

 




 


Monday 3 October 2022

Sunday 2 October 2022

~~ ABCD ~~

Of  Intelligence! 

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Action Between Conflict and Desire. 

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Action is the dynamic aspect of Desire. 

Desire is the potential aspect of Action.

Conflict between the two is Doubt.

Accordingly, depending upon, this Conflict is at two levels, and kinds of the mind-set and the temperament.

The two kinds are the intellectual and the sentimental.

This obsession with the conflict between intellect and sentiment on one hand, and between thought and feeling on the other, and is the root-cause of discontent.

The desire itself is an aggregate of so many different and divergent wishes that it is just impossible to fulfil them together.

Everyone, without exception is prone to and be possessed by these contradicting, multiple and many desires.

Still, the two main tendencies of the mind are the thought and the feeling.

Everyone has any one of the two prominent, - that dominates the other.

This is the basic tug of war within oneself. 

Sometimes the thought dominates over the feeling and at some other time, the feeling dominates over the thought.

So a common man is driven mostly either by the feeling or by the thinking. 

People say :

"I want, like, dislike, desire, fear, love, hate, -of this and that."

Then they say :

"I think, in this manner, way; I'm of the view, opinion, ..."

Feelings, desires, fears, cravings, attachment, detachment, indifference, reluctance, hatred, affection, love, come from the heart, and the thought, views, ideals, opinions, rationales, even ideologies, philosophies, come from the brain.

Memory is the bridge between the two, and the memory is but the habit that works in a mechanical way, according to conditions and conditioning.

At gross level there are basically two types of people in general.

Maybe, we could say :

Most of the males tend to behave driven by their individual brain, while the females are driven by their individual heart.

But because of the need of the moment, the things get so mixed-up, in such a way that one can hardly understand what drives in one, - the action.

The Utopia of Success and Failure.  

In the ultimate analysis and inference, one tries to be successful and avoid failure. One can but sure see, it is not that success always  brings happiness, one had expected. Sometimes even if you're successful you are not happy. You've to maintain that chain of successes and stay firmly in the competition. And you know, because of the situation, no one can always be successful.

So really and essentially we are after finding  happiness and the success and failure don't matter as much. We want to be happy but it is not easy, and there is no some set formula that can help us in our efforts of being happy always. It is just not easy to attain happiness for ever. What do we mean by happiness? Is it a kind of pleasure, or there are only a few long or short moments of thrill, excitement, and joy that we mistake for happiness? Is it not that, it is; -the pleasure, the excitement, the thrill, what keeps us anticipating striving always for success, and through it we do feel occasionally a momentary happiness. Is that true happiness or just an activity that lets us think we are happy! Or, is it not, because of our attention that has diverted away from  boredom, and though there are needs of the livelihood and one has to work to somehow meet the bare necessities of living the life? 

Instead of making our efforts at finding out happiness, could we perhaps try to see why we are unhappy? Why is this meaningless-ness in life? Of course, food, clothes, shelter we need the most, we also need security and a healthy life without disease. But there is the old age, when the vigor, life and energy in us go waning and we somehow keep on dragging only. Before coming of the age and when the vigor and energy have gone in a way, that there is no hope left any, we never question:

"Why we are unhappy?!"

Either there are problems and difficulties in living day to day life, or if we are successful, we hope of acquiring even more success, joy and wealth in life, which invariably brings with it, the worries too.

As an alternative and in passing the time in waiting, we seek amusement, entertainment. This way we somehow ignore this question :

"Why we are unhappy?!"

Either this never occurs to us, or makes no impact upon us. Blind to it, we get occupied with rather trivial things that attract us and are amused. This amusement is what our life is all about. Worries too keep us occupied all the time! 

A few years ago I used to be fully absorbed in a problem. I loved very much playing and solving the Sudoku. I could almost succeed in solving any 9x9 Sudoku, howsoever easy or difficult.

But the question :

"What next?"

Never occurred to me!

"Even if I have succeeded in solving such a problem, does it really makes sense? Does it really matter?"

I could perhaps pass my whole life in solving such many Sudoku, or I may become more  clever, but does it make me any more wise, more intelligent, so that I can understand : 

"What is life, or what life is about?"

Getting excited, thrilled or amused doesn't make me any mature. Going through many and innumerable experiences hardly makes me mature. I remain as much a stupid and idiot as I had been earlier.

The same thing is true about success. 

Do I see the point?

Only if a spark in me is kindled and only if the question arises in me :

"What is it, the life, the world, the 'me', and the 'other' is all about?"

Only if such a question pierces through my very being, then only perhaps I may become intelligent.

Like the Sudoku I can ponder endlessly over innumerable philosophical questions about anything; Science, Mathematics, knowledge and other subjects that need and are based on "information".

Does that make me really any more wise?

Or, I remain as much an idiot and as much a stupid as I had ever been so far, -before this question arose in me?

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Rishi Sunak

ऋषि सनक 

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भारतवंशी ब्रिटिश सांसद ऋषि सुनक दुःखी हैं। उन्हें बुद्धिभ्रष्ट अंग्रेजों के देश में कार्य करने का अवसर मिला, तो उन्होंने पूरा प्रयास किया कि ऋषि अङ्गिरा / अङ्गिरस के आंग्ल वंशजों का उद्धार हो सके। अब एक सप्ताह में ही जैसा कि कहा जा रहा है, लिज़ ट्रुस् ने अपनी अविवेकपूर्ण नीतियों से इंग्लैंड की अर्थ-व्यवस्था को घुटनों पर ला खड़ा कर दिया है।

नाम और लक्षण शास्त्र के आधार पर देखा जाए तो यह प्रतीत होता है ऋषि सुनक पर ब्रह्माजी के मानसपुत्रों सनक-सुनंदन आदि का वरद हस्त हो सकता है। 

।।विनाशकाले विपरीत बुद्धि।।

***

Thursday 29 September 2022

तृतीय अनुवाक

शीक्षा वल्ली 

तृतीय अनुवाक 

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सह नौ यशः।

सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।

अथातः स्ँ हिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः।

पञ्चस्वधिकरणेषु। 

अधिलोकमधिज्यौतिषमधिविद्यमधिप्रजमध्यात्मम्। 

ता महा स्ँ हिता इत्याचक्षते। 

अथाधिलोकम्। 

पृथिवी पूर्वरूपम्। 

द्यौरुत्तररूपम्। 

आकाशः संधिः।

वायुः संधानम्। 

इत्यधिलोकम्।।

अथाधिज्यौतिषम्।

अग्निः पूर्वरूपम्।

आदित्य उत्तररूपम्।

आपः संधिः।

वैद्युत् संधानम्।

इत्यधिज्यौतिषम्।

अथाधिविद्यम्। 

आचार्यः पूर्वरूपम्। 

अन्तेवास्युत्तररूपम्। 

विद्या संधिः। 

प्रवचन्ँ संधानम्। 

इत्यधिविद्यम्। 

अथाधिप्रजम्। 

माता पूर्वरूपम्। 

पितोत्तररूपम्। 

प्रजा संधिः।

प्रजनन्ँ संधानम्। 

इत्यधिप्रजम्। 

अथाध्यात्मम्। 

अधरा हनुः पूर्वरूपम्। 

उत्तरा हनुः उत्तररूपम्। 

वाक् संधिः। 

जिह्वा संधानम्। 

इत्यध्यात्मम्।

इतीमा महास्ँ हिता य एवमेता महास्ँ हिता व्याख्याता वेद। संधीयते प्रजया पशूभिः। ब्रह्मवर्चसेन सुवर्गेण लोकेन।।

।।तृतीय अनुवाक।।

--

अधिकरण और अधिष्ठान समानार्थी हैं। किन्तु अधिष्ठान (अधि + स्थान) स्थान का द्योतक है, जबकि अधिकरण (अधि + करण) उस कार्य का जिस स्थान पर वह कार्य होता है।

हम दोनों यशस्वी हों। हम दोनों में ब्रह्म के तेज का विस्तार और प्रसार हो। (इस संकल्प के साथ) इसलिए अब सं-हिताओं के, अर्थात् श्रुतियों के वचनों के उपनिषद् रूपी संकलन की व्याख्या (हम) करेंगे।

पूर्वरूप (fundamental),

उत्तररूप (secondary, next),

संधि (connecting thread) तथा,

संधान (content / exploration), चार तरह से पांचों में, - प्रत्येक अधिकरण (substratum) में यह कार्य होता है। 

ब्रह्म कार्य भी है और अधिष्ठान भी जो पाँच अधिकरणों सहित संपन्न होता है। ये पाँच अधिकरण क्रमशः इस प्रकार से हैं :

अधिलोक, अधिज्यौतिष्, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म। 

इन पांचों के एकत्रस्वरूप को महास्ँ हिता कहा जाता है। 

अब अधिलोक क्या है? 

पृथिवी अधिलोक का पूर्वरूप (prior) है।

द्यौ / द्युलोक (material celestial) अधिलोक का उत्तररूप (next) है।

आकाश (space / sky) उन दोनों (पूर्वरूप तथा उत्तररूप) को परस्पर संबंधित करनेवाला तत्व है।

वायु (air) उनके बीच संचरित होनेवाला संधान (अन्वेषण) है। 

यह हुई अधिलोक अधिकरण की संरचना और उसमें होनेवाला कार्य ।

अब अधिज्यौतिष्  या अधिज्यौतिषम् (Cosmic) :

अग्नि (Fire) पूर्वरूप है।

आदित्य (Sun) उत्तररूप है। 

आप (hydrogen and oxygen in the atomic / ionic state) संधि है और,

वैद्युत (electric spark) संधान है।

यह हुआ अधिज्यौतिष् या अधिज्यौतिषम् अधिकरण।  

अब विद्यारूपी (knowledge)  तीसरे अधिकरण के बारे में :

आचार्य (teacher) अधिविद्य अधिकरण का पूर्वरूप है। 

अन्तेवासी (disciple), अर्थात् उसके आश्रम में उससे विद्या ग्रहण करने का अभिलाषी उत्तररूप है। 

विद्या संधि (connecting link) है, जो आचार्य को विद्यार्थी से संबंधित करती है।

प्रवचन (exposition) संधान / अन्वेषण है। 

यह हुआ अधिविद्य अधिकरण हुआ। 

अब अधिप्रज (प्रजा की उत्पत्ति और वृद्धि) :

माता पूर्वरूप है।

पिता उत्तररूप है। 

प्रजा (संतति) संधि है। 

प्रजनन (संतान की उत्पत्ति का कार्य) संधान है। 

यह अधिप्रज अधिकरण हुआ।

अब अध्यात्म अधिकरण :

अधरा हनु - मुख का निचला अंग, जबड़ा (Jaw), पूर्वरूप है। 

उत्तरा हनु - मुख का ऊपरी अंग, जबड़ा (Jaw), उत्तररूप है।

वाक् (voice) संधि है। 

जिह्वा (tongue) संधान है। 

यह अध्यात्म (spiritual) अधिकरण हुआ।

यही ये पाँच अधिकरण ये पाँच महासंहिताएँ हैं जिनकी व्याख्या यहाँ की गई, उन्हें जानो / जो जानता है, -उसे प्रजा और पशुओं का स्वामित्व प्राप्त होता है। वह अन्न आदि संपत्ति और समृद्धि से सुखी होकर उत्तम लोकों की प्राप्ति करता है। 

तैत्तिरीय उपनिषद् की प्रथम वल्ली, शीक्षा वल्ली का यह तृतीय अनुवाक पूर्ण हुआ।

।। इति शं ।। 

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Tuesday 27 September 2022

विचार, चिन्ता, और मन

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।

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चिन्ता विचार है, और विचार चिन्ता। चिन्ता चिन्तन है, चिन्तन चिन्ता। विचार के अभाव में चिन्तन नहीं हो सकता, और न ही चिन्तन के अभाव में चिन्ता । विचार, चिन्तन, चिन्ता और मन एक ही गतिविधि के अलग अलग चार नाम हैं। गतिविधि एक ही है। मन गतिविधि है, और गतिविधि मन है।  फिर वह क्या है जो विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के एक दूसरे से भिन्न होने का आभास उत्पन्न करता है?

विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन, मूलतः गतिविधि के ही भिन्न प्रतीत होनेवाले चार प्रकार हैं, और चेतना ही उनकी पृष्ठभूमि होती है। चेतना की इस पृष्ठभूमि की निजता और नित्यता की सत्यता तो स्वयंसिद्ध है ही, किन्तु विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन उस पृष्ठभूमि पर विषय, विषयी के बीच आभासी विभाजन आरोपित कर देता है। चेतनारूपी इस पृष्ठभूमि की नित्यता और निजता एक अकाट्य और असंदिग्ध, निर्विवाद तथ्य है, और यही तथ्य विषयी के निरंतर विद्यमान होने के भ्रम को जन्म देता है। मूलतः विषयी और विषय दोनों ही उस एक ही गतिविधि के दो पक्ष हैं जो विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के रूप में चेतना से भिन्न की तरह प्रतीत और अभिव्यक्त होती है।

विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन विषय-आधारित गतिविधि होते हैं, अर्थात् विषय के अभाव में नहीं हो सकते। जागृत तथा स्वप्न ऐसी ही गतिविधियाँ हैं। किन्तु सुषुप्ति में तो विषय और विषयी तथा उनके बीच का विभाजन भी कहाँ होता है? 

पातञ्जल योग-सूत्र में चेतना की इस पृष्ठभूमि को ही दृष्टा तथा विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के रूपों में हो रही गतिविधि को चित्त-वृत्ति कहा गया है। वृत्तियों का वर्गीकरण पाँच प्रकारों में किया गया है और चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। इस प्रकार चित्तवृत्ति के निरुद्ध होने की अवस्था ही योग है। इस अवस्था में दृष्टा (अपने) स्वरूप में स्थित होता है। दृष्टा जब जब इस स्थिति से विचलित हो जाता है, विचार, चिन्ता, चिन्तन तथा मन रूपी गतिविधि प्रारंभ हो जाती है। यही चित्तवृत्ति है। पुनः निद्रा अर्थात् सुषुप्ति को भी चित्तवृत्ति कहा गया है। 

इन चित्तवृत्तियों के पाँच प्रकारों को इस प्रकार से वर्गीकृत किया गया है :

प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। पुनः ये सभी क्लिष्ट या अक्लिष्ट हो सकती हैं।

प्रमाण का अर्थ है : प्रतीति या मूल्यांकन (evaluation),

विपर्यय का अर्थ है : त्रुटिपूर्ण प्रतीति या मूल्यांकन (distortion),

विकल्प का अर्थ है : एक प्रतीति को किसी दूसरी प्रतीति से प्रतिस्थापित / replace कर दिया जाना, 

निद्रा का अर्थ है : अभाव-प्रत्ययात्मक गतिविधि / अभावात्मक वृत्ति, जब विचार, चिन्ता, चिन्तन अर्थात् -- मन की गतिविधि, आनन्द के भोग में लीन होने से विषय और विषयी का भेद भी तात्कालिक रूप से विलीन हो जाता है। निद्रा में विषय-शून्यता की प्रतीति होती है जिसे अभाव-प्रत्यय कहा जाता है। 

और अन्तिम है स्मृति : अर्थात् विचार, चिन्ता, चिन्तन या मन की वह गतिविधि है, जब किसी अनुभूत विषय की पुनरावृत्ति (प्रतीत) होती है। 

इन समस्त वृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य की सहायता से होता है। 

***


Friday 23 September 2022

शीक्षा-वल्ली

तैत्तिरीय उपनिषद्

वल्ली - १

प्रथम अनुवाक : शान्तिपाठ 

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।...  अवतु वक्तारम्।। 

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!

यह अनुवाक शान्ति पाठ है। इसकी विवेचना पिछले पोस्ट में की गई है।

यह प्रथम अनुवाक समाप्त हुआ।

~~~

द्वितीय अनुवाक 

--

शीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः।  मात्रा बलम्। साम संतानः। इत्युक्तः शीक्षाध्यायः।

विवेचना : 

शास् शासन करना, और शिक्ष् सीखना दोनों धातुओं से शिक्षा और शीक्षा (वैदिक प्रयोग) संज्ञा रूप बने।

समस्त शिक्षा वाणी के माध्यम से ही प्रदान और ग्रहण की जाती है। प्राकृत वाणी के प्रयोग में व्यावहारिक प्रचलन और परंपरा के अनुसार भाव एवं अर्थ को प्रकट एवं ग्रहण किया जाता है, और वह भिन्न भिन्न स्थानों पर इसीलिए भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करती है, इसलिए मनुष्य की बुद्धि की सीमा में ही उसे प्रयोग किया जा सकता है। तकनीकी दक्षता और कौशल सीखने या सिखाने के लिए वाणी के प्रयोग की अधिक आवश्यकता नहीं होती और वाणी के माध्यम से भी किसी भी भाषा में इस ज्ञान का आदान-प्रदान किया जा सकता है। किन्तु वेद अर्थात् आत्मा के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सत्य के ज्ञान को सीखने और सिखाने के लिए इन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग अपर्याप्त सिद्ध होता है। वाणी अग्नि ही है और आज के विज्ञान के मत से भी वाणी (Sound) और अग्नि (Fire) मूलतः ऊर्जा के ही दो प्रकार हैं । अंग्रेजी भाषा का 'Sound' शब्द संस्कृत शब्द 'स्वन' या 'स्वर' का ही सज्ञात (cognate) या अपभ्रंश है। इसी प्रकार  'Fire' भी 'स्फुर्' का सज्ञात (cognate) या अपभ्रंश है।

इसलिए भौतिक ज्ञान से भिन्न आधिदैविक और आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा के लिए प्राकृत भाषा(ओं) के उपयोग की एक सीमा है, और चूँकि वाणी स्वयं भी आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीन रूपों में होती है, इसलिए वाणी के देवता रूपी माध्यम की सहायता से ही उच्चतर आधिदैविक और आध्यात्मिक सत्यों की शिक्षा दी जा सकती है।

वाणी के भौतिक रूप को वैखरी कहा जाता है, जिस भाषा का प्रयोग व्यवहार में किया जाता है उसे वाक् कहा जाता है। यही वाक् विचार के रूप में मन में कार्यरत होती है। इस विचाररूपी वाणी की भाषा तो वही प्राकृत होती है जिसे कि मनुष्य व्यवहार में तथा बोलचाल में काम में लाता है। देवी अथर्वशीर्ष में इसे ही पशुओं की भाषा अर्थात् प्रकृति से प्राप्त भाषा की संज्ञा दी गई है। पश्यते पश्यति, पाशयति पाश्यते इति पशुः । पशु जो देखता है पाश में बद्ध होता है। मनुष्य की पशुओं से श्रेष्ठता इसीलिए होती है क्योंकि मनुष्य के पास मन नामक यंत्र होता है, जिसे वह बिना बोली जानेवाली भाषा के रूप में मनन के रूप में विचार के माध्यम से प्रयोग कर सकता है। 

किन्तु जब तक मनुष्य भाषागत विचार के सहारे मनन करता है, तब तक वाणी का देवता जागृत नहीं होता। वाणी के देवता का  आधिदैविक स्वरूप तब प्रकट होता है जब स्वर और व्यञ्जन अर्थात् वर्ण की शुद्धता स्पष्ट होती है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ण, स्वर तथा व्यञ्जन स्वयं ही देवता होता है। जैसे भरत के नाट्य-शास्त्र में संचारी भावों की संख्या / कोटि 33 है, उसी प्रकार से वाणी के देवता भी 33 कोटि के होते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है, क्योंकि ऋषियों ने इसका आविष्कार अनुसंधान किया है। इन्हीं वर्णों के समूह से मंत्रों के रूप में देवताओं के आधिदैविक तत्व को जाना गया। वर्णः स्वरः का अर्थ हुआ - वाणी के वर्ण स्वर हैं और मात्रा बलम्  का अर्थ हुआ उस वर्ण के उच्चारण किए जाने के लिए जो बल (accent) लगाया जाता है, वह उस वर्ण की मात्रा (amount,  strength) है । इनकी सुसंगति ही साम है। साम ही संतान, सातत्य या फल और परिणाम है। यह हुआ शीक्षाध्यायः। प्राकृत का संस्कृत में उत्परिवर्तन (mutation / evolution) ही श्रुति है। इसलिए संस्कृत तथा वेद के ज्ञान की शिक्षा वाणी के माध्यम से ही दी एवं ग्रहण की जा सकती है। इसी आधार पर, और वाणी के शुद्ध स्वरूप को सुरक्षित करने के लिए लिपि के आविष्कार से भी पहले से आचार्य और शिष्य परंपरा प्रारंभ हुई। इस विकास यात्रा के दो पक्ष हैं। एक है नागरी (या देवनागरी) तथा दूसरा है द्रविड लिपि का प्रयोग। इन दोनों ही पक्षों में इस तथ्य का ध्यान रखा गया है कि लिखी हुई (लिपिबद्ध) भाषा की शुद्धता और ध्वनिसाम्य शुद्धता समान हो। द्रविड भाषा में एक ओर तो ग्रन्थलिपि में वैदिक ज्ञान का संग्रह किया गया, साथ ही मौखिक परंपरा से भी इसकी शुद्धता सुनिश्चित की गई। संस्कृत हो या द्रविड, वाणी और उच्चारण की शुद्धता का महत्व उतना और वैसा ही है जैसे कम्प्यूटर के किसी प्रोग्राम की रचना करते समय कोडिंग-डिकोडिंग का।

संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में लिखे गए ग्रन्थों में अधोमात्रा (आड़ी लकीर, जो नीचे लगाई जाती है) और ऊर्ध्वमात्रा (खड़ी लकीर, जो ऊपर लगाई जाती है) के द्वारा स्वरित,अनुदात्त और  का संकेत किया जाता है, वहीं अवग्रह के चिह्न ऽ तथा १, २, ३ आदि अंकों से भी उच्चारण की शुद्धता सुनिश्चित की जाती है। 

किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि किसी आचार्य से वैदिक शिक्षा को ग्रहण किया जाना अधिक उपयुक्त है। 

द्रविड या தமிழ் लिपि में यह कठिनाई इसलिए और अधिक है क्योंकि वहाँ एक ही वर्णाक्षर के एक से अधिक उच्चारण होते हैं, जबकि यह कठिनाई नागरी लिपि में नहीं होती। फिर भी नागरी लिपि में किसी सीमा तक उच्चारण को शुद्ध रखा जाना संभव है।

दूसरी ओर इसका एक लाभ यह भी है कि कोई अनधिकारी या अपात्र इस ज्ञान को न प्राप्त कर सके।

महाभाष्य में महर्षि पतञ्जलि कहते हैं --

दुष्टो शब्दो स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।

स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।।

***





Wednesday 21 September 2022

Creating from Nothing!

 P O E T R Y

~~The Physicist ~~

And The T A O  of  P H Y S I C S.

--

Earlier they said :

Nothing (new) could ever be created,

You can but transform; 

The Matter into Energy,

And You can, Energy into Matter.

Energy or Matter, it matters not:

Neither could be created,

Nor could be destroyed!

Now that theory and concept;

Has been discarded.

Even laughed at! 

They now claim;

Physics has gone through total revolution,

They have experimentally created,

And demonstrated that --

Matter / Energy could be created, 

Something could be made from Nothing!

What a sarcasm! What a hype,

What a science of deluded mind!

Don't they see, there is consciousness of;

Creating Something from Nothing, 

The Consciousness prior to;

Creation and destruction?

Is there a time and place,

When and where;

The Consciousness has a beginning,

Or the middle or the end?

Do the Time and the Space,

Exist not in Consciousness?

Is consciousness result of an action?

The Core-error of judgement lies --

In the fact that Matter or Energy, 

The objects and the objective world;

That appear and subsequently disappear, 

Are never created nor destroyed, 

But only go through,

Manifestation and dissolution.

The Consciousness is the background,

Where-in this play takes place, 

And one may though be ignorant,

Oblivious of the fact, 

Consciousness never rises nor sets!

Understanding this simple Reality, 

Is itself realizing the truth.

The Consciousness --

That is itself.

That is verily  धर्म ,

That is verily  therm.

From धर्म / therm arises / manifests

धी (धी धियौ धियः)

the Theo / Theology / Theory / Tao 

ताओ -- लाओत्से

~~~~~~~~~~•~~~~~~~~~~~~•~~~~~~~~~

The Intelligence (Principle). 

The Intelligence arises / manifests as Theo,

Is verily Consciousness Relative.

Wher-in and Where-from, 

The Life / Leaf / Live.

Theo is verily God. Truth, ऋत् .

That is how; 

Nothing is Created nor annihilated.

Everything only manifests / appears to exist,

And subsequently undergos:

Dissolution / disappearance.

***

Create is cognate of  संस्कृत root --

कृत / सृत / सृजित

Which are modified forms of the root verbs:

√कृ, डुकृञ्,  and / or  सृज्, 

The former is used to denote 'doing', 

While the later is used to denote :

"To throw out from within".

ऐतरेयोपनिषद् 

प्रथम अध्याय प्रथम खण्ड 

ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१।।

In the beginning, there was this Self (आत्मन्) alone.  Nothing else other than this Self.

He, That very Self indeed wished / observed :

May I bring forth (लोकाः) spaces / spheres.

सः इमाँल्लोकानसृजत। अम्भो मरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्त्तात्ता आपः ।।२।।

He delivered these spaces.

अम्भस् / अम्भो --

The Space that is upper and lower and fills this.

मरीचि - The Space in between them "अन्तरिक्ष".

This is really the Space as Consciousness.

That is how Upanishads reject the theory of "Creation" if anything (from what-so-ever)!

***




तैत्तिरीयोपनिषद्

शान्तिपाठ 

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।

शं नो भवत्वर्यमा।

शं न इन्द्रो बृहस्पतिः।

शं नो विष्णुरुरुक्रमः।

नमो ब्रह्मणे।

नमस्ते वायो।

त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।

ऋतं वदिष्यामि।

सत्यं वदिष्यामि।

तन्मामवतु।

तद्वक्तारमवतु।

अवतु माम्।

अवतु वक्तारम्। 

ॐ शान्तिः !शान्तिः !!शान्तिः!!!

--

मित्र (सूर्य) हमें शान्ति प्रदान करें, और वरुण (समुद्र तथा जल) हमें शान्ति प्रदान करें। सूर्य और वरुण अधिभौतिक इन्द्रियगम्य  स्थूल लोकों के लिए प्रत्यक्ष हैं। अर्यमा (सूर्य, जो पितृलोक का शासन करते हैं) हमें शान्ति प्रदान करें। पितृलोक वह लोक है, जहाँ भूलोक में मृत्यु हो जाने के बाद जीव कुछ समय तक वास किया करते हैं, पितरों को इस प्रकार देवता-विशेष माना जाता है, जिनका अस्तित्व आधिदैविक एवं आधिमानसिक दोनों ही स्तरों पर माना जाता है। देवताओं के शासनकर्ता इन्द्र, - हमारे लिए शान्ति प्रदान करें। इन्द्र और बृहस्पति देवताओं के शासक एवं गुरु भी हैं।

गणानां त्वा गणपतये हवामहे

कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।।

ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत

आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्।।०२३।।

(ऋग्वेद मण्डल २)

ॐ गं गणपतये नमः ।।

गणपति ही इन्द्र, बृहस्पति, सूर्य, विष्णु भी हैं, क्योंकि एकमेव तत् सत् ब्रह्म अनेक उपाधियों के माध्यम से युक्त होकर विभिन्न प्रकार  से जाना जाता है।

विष्णु अर्थात् उरुक्रम के रूप में जिस परमात्मा ने तीनों लोकों को तीन क्रमिक चरणों में क्रमशः व्याप्त किया है, वही विष्णु, वे परब्रह्म परमात्मा हमें शान्ति प्रदान करें।

उस ब्रह्म के लिए नमस्कार। हे वायुदेवता! आपको नमस्कार!! चूँकि वायु स्थूल जगत् में तो सर्वत्र गतिशील हैं, सूक्ष्म रूप से भी वे ही प्राणों की भी गति हैं और उस रूप में भी वे देवता हैं, जो कि भूलोक (स्थूल भौतिक) और भुवर्लोक (संसार रूपी जीवन) में सतत संचार करते हैं। वायुदेवता! आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं। आपको ही (मैं) प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा। मैं वाणी से परे के सत्य को अर्थात् ऋत् को वाणी से कहूँगा। (मैं) व्यावहारिक रूप से जिसे सत्य कहा जाता है, उसे ही कहूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे। वह वाणी के माध्यम से सत्य को कहने वाले वक्ता की रक्षा करे। वह मेरी रक्षा करे। वह वक्ता की रक्षा करे।

ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!

इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों ही प्रकारों से सर्वत्र शान्ति व्याप्त हो। 

***


Tuesday 20 September 2022

How to change?

The Reality Incognisible! 

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How to change the world, 

How to change oneself?

It's like the question :

How to destroy the world, 

How to kill myself! 

How to destroy the world;

Implies :

The one who destroyes,

Remains intact after the destruction,

And How to kill myself;

Implies :

I survive after killing myself! 

Isn't the question irrational?

Isn't the question il-conceived?

Though one can reconstruct :

How to kill I itself! 

This implies :

There is one "I" that kills; 

There is another;

That is killed!

Isn't this too erroneous;

Isn't this too absurd? 

Are there two 'I';

That co-exist! 

Even if this be true,

Who kills to who?

Who is the killed;

And Who kills? 

Likewise :

I can't kill itself;

I can't kill myself. 

Likewise :

I can't change itself; 

I can't change myself! 

How then I;

Change the World;

-Whatever it be; 

That is :

I myself, or I itself;

Could change the world,

That is not I, nor myself;

That is not I, nor itself!

For, this world;

The phenomenal one;

Exists not without I!

(But I do exist as I for ever, eternally so!)

And I'm the only; 

Phenomenon phenomenal!

Thinking: I shall or will, 

Thinking: I could or would;

Change the world or myself,

Or even I would change;

Is but a silly question / thought;

That is subsequent to another:

I'm this or that, it or thought!

The thoughts emerge out from;

And vanish again into there;

Where I is;

What I is --

The Unchangeable, Immutable.

The only Reality, and The Reason.

***

 



Saturday 17 September 2022

संस्कृत रचना

माननीय प्रधान मंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी जी

को उनके जन्म दिन पर सादर समर्पित

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अभी आधे घंटे पहले अतिथि चीतों के बारे में सोचते हुए एक संस्कृत रचना लिखने का प्रयास किया। ध्यान आया कि आज माननीय प्रधान मंत्री जी का जन्मदिन है। इसलिए ट्विटर पर ट्वीट् कर इसे उन्हें ही समर्पित कर दिया! और उसे ही  RT  कर दिया। 

इसका सामान्य अर्थ यह है :

वह तपस्वी उस वन में गया, जहाँ बाघ, चीते, सिंह, तेंदुए तथा शरभ आदि विचरते थे। फिर भी उनसे उसे न तो कोई भय हुआ और न ही विस्मय। वह उनके बीच वैसे ही निर्भयतापूर्वक रहने लगा जैसे कोई गजराज वन में भयरहित होकर रहा करता है।

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The Ascetic went into the deep forest, where tigers, leopards, lions, jaguars and another such ferocious animal (-- named sharabh) freely roamed about. But the ascetic, - the noble Muni too lived among them without fear or bewilderment just like a fearless king-elephant, living in woods.

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Wednesday 7 September 2022

काशीतलवाहिनी गङ्गा?

काशीतलवाहिनी गङ्गा?

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यह एक प्रहेलिका (पहेली) है, जिसमें प्रश्न भी है और उसका उत्तर भी है।

प्रश्न है :

का शीतलवाहिनी गङ्गा?

उत्तर है :

काशी-तलवाहिनी गङ्गा।। 

प्रश्न है : शीतलजल के प्रवाह से युक्त गङ्गा क्या है?

उत्तर है : काशी में जिसका प्रवाह होता है, वह है गङ्गा।

काशी के विषय में एक वर्णन इस प्रकार से है :

काश्यां तु मरणाद्मुक्तिः जननात्कमलालये।। 

दर्शनादभ्रसदृशीः स्मरणादरुणाचले।।

इसका सामान्य अर्थ है :

काशी (काञ्ची) में मृत्यु होने से मुक्ति होती है, हृदयरूपी कमलालय में जन्म होने से भी, चिदम्बरम् के दर्शन करने से मुक्ति होती है, और इसी प्रकार अरुणाचल के स्मरण से भी।

धरती पर ये चारों स्थान भौगोलिक रूप से क्रमशः वाराणसी, पुष्कर, चिदम्बरम् और अरुणाचल (तिरुवन्नामलै) हैं।

इनका गूढ आशय यह है :

काश (हृदयरूपी आकाश) में जिसकी मृत्यु होती है, उसके प्राण हृदय में अवस्थित परमात्मा शिव में निमग्न हो जाते हैं, जो कि मुक्ति है। इसी हृदयरूपी कमल में जिसे आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है, उसकी भी मुक्ति हो जाति है। चिदम्बर अर्थात् चित्त  रूपी चेतना के अम्बर (आवरण) से जो चैतन्य आवरित है, उस चैतन्य के दर्शन जिसे हो जाते हैं उसकी भी मुक्ति हो जाती है, तथा अरुणाचल शिव (जहाँ आत्मा का भान सदैव अहं-अहं के रूप में अनायास, नित्य, अनवरत स्फुरित होता रहता है), उसके स्मरण होने से भी मुक्ति हो जाती है। 

***

अयोध्या मथुरा माया काशी-काञ्ची अवन्तिका।।

पुरी द्वारावती चैव  सप्तैते मोक्षदायिनी।।

अयोध्या, मथुरा / मधुरा / मदुरई, माया मय दानव द्वारा निर्मित नगरी, काशी-काञ्ची -- उत्तर में काशी और दक्षिण में काञ्चीपुरम्, अवन्तिका अर्थात् उज्जयिनी, पुरी अर्थात् श्रीजगन्नाथपुरी और द्वारावती अर्थात् द्वारका ये सातों स्थल स्थान प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होते।

मय दानव / मयासुर का संबंध माया सभ्यता (मेक्सिको / मख-शिखः) से है।  

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Thursday 1 September 2022

विधि-प्रपञ्च है या माया!

कविता : अश्वत्थः प्राहुरव्ययम्।।

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एक दीपक जल रहा, 

बिना बाती, बिन तेल, 

चिज्ज्योति में चल रहा,

विधि-प्रपञ्च का खेल!

एक वृक्ष ऐसा उगा, 

जिसका बीज न मूल,

शाखा, पत्र, असंख्य हैं,

नहि फल हैं, बस फूल!

अभी अभी है, हो रहा,

नहि था, न होगा फिर, 

यह पल जैसे जुग अनंत,

न आरंभ, न ही है अंत!

एक झूला डाल पर, 

हवा में है, डोलता,

उस पे बैठा है मनुज,

भाग्य अपना तौलता!

तराजू के पलड़े दो,

हो रहे नीचे ऊपर,

काँटा इधर से उधर,

चल रहा अस्थिर चंचल,

क्या होता है, क्या पता, 

जब दीपक बुझ जाता है, 

दृष्टा का दृश्य प्रपञ्च से,

क्या रहस्यपूर्ण यह नाता है!

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Monday 15 August 2022

God, Faith and Truth.

The Core Reality. 

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I know I am.

I'm aware of my existence.

This awareness is not the knowledge that I acquired from the world or from someone else. This awareness is Intelligence, and not the information of and about myself.

This Intelligence has nothing to do with the intellect that begins the moment when I get  information of any kind and form, and then the same gets stored in the form of memory. 

Or, may be in the form of a bundle of many a thoughts, feelings, sentiments, emotions and memories, bound together in an assortment, arbitrary collection.

While I, and the awareness 'I am' are but the two aspects of the same phenomenon, -the unique truth, the Intellect tends to classify, bifurcate and define them as if the two are not the one whole truth.

It is only when the intellect is there, the I and the world appear in consciousness; shine up, and are thought to be as if the two are two independent, different and distinct facts.

That is where the attention is divided and the Reality -- I, I'm, and the world appear to be mutually different, distinct and exclusive appearances independent from one-another.

Where / What is God then? 

Is not this proposed, assumed and supposed God a fact secondary to I, I'm and the world around I'm?

As has been already said :

I, I'm and the awareness of I and I'm are the same unique principle, - the Intelligence, what could be the place of God there in this whole frame?

It is impossible to please God without faith in Him... (Hebrews 11:6)

So faith in God is the essential pre-requisite for pleasing Him. Faith implies, one believes in the existence of God. Because, without this faith, how can one please or displease Him?

For such a firm faith, there should be either a direct revelation of such a God or indirect knowledge of the same. 

It's really such a difficult, Catch-22 situation.

You don't know, and therefore you have to believe someone else's experience or words.

And the belief or faith needs the essential revelation of the truth,  -the experience.

Again, and no doubt, that you are, and you also know that you are. You are, because you know I'm. And because you know, you are. This awareness, this knowing of I'm, is itself the authentic, spontaneous, natural insight, and the evidence, you can never deny to. Perhaps, one could give a name and call it God.

The word is not important, nor necessary.

But if you trust such a man who has realized this fact you can understand him. 

In understanding him, you shall understand and see what he talks about.

Though this could be an indirect realization of the God, may certainly help you. But until and unless you realize this truth in the form of the awareness of  'I'm' and your attention is then turned upon the truth : 

You are because you know you're / I'm, and this knowing is there because you are, - and the two facts are essentially and inevitably only and the same unique truth, -- you shall never be free from the conflict.

This is the Direct Realization, the Final and the Ultimate.

When really, you trust such a man who has arrived at this truth, and you have no reason whatsoever to doubt him, you have reached. 

But then you do not follow him blindly. And you will never force your realization upon those others, who don't know or trust you.

But if and when your faith itself is not firm enough, you may try to impose your beliefs upon others.

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Thursday 11 August 2022

सूर्य की सन्तानें

संज्ञा और छाया : धर्म और संस्कृति

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परिधि और क्षितिज की कथा सुबह लिखी थी।

फिर लगा, कि क्या यह कथा केवल एक बौद्धिक-काल्पनिक मनोरंजन है, या इसमें अनायास ही इससे भी अधिक कुछ गूढ रहस्य या तात्पर्य व्यक्त हुआ है! 

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४ का यह श्लोक याद आया :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

वैवस्वान् / वैवस्वत् वर्तमान युग के मनु का नाम है।

स्कन्द-पुराण के अनुसार :

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणश्चांशुरेव च ।

भगो विवस्न्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा।।

एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते। 

जघन्यजः स सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।।

(माहेश्वर-कुमारिका खण्ड, कलाप ग्राम निवासी सुतनु द्वारा नारदजी के जटिल प्रश्नों का समाधान)

संज्ञा का तात्पर्य है चेतना, जो कि भूतमात्र में, -सभी जीवों में जीवन है -- श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय १०, श्लोक २२ के अनुसार, "भूतानामस्मि चेतना।।"

किन्तु उसी चेतना consciousness की छाया / shadow है -- "चेतनता" - material-consciousness...। 

संज्ञा, विश्वकर्मा की पुत्री थी, जिसका विवाह भगवान् सूर्य से हुआ। किन्तु वह सूर्य के प्रचंड ताप से व्याकुल हो उठी, उसने अपने जैसी एक छायाप्रतिमा निर्मित की, और भगवान् सूर्य से उसे हुई सन्तानों - यम, यमुना और मनु को उसे सौंपकर उसने छाया से कहा - तुम यह रहस्य किसी पर प्रकट न करना। तब छाया ने पूछा, कि उसके प्राणों पर संकट आ खड़ा हो क्या तब भी? संज्ञा बोली : उस स्थिति में तुम अवश्य ही कह देना। संज्ञा तब पिता के घर लौट आई। उसे अकेले आया देख, विश्वकर्मा ने पूछा : सूर्यदेव कहाँ है? तब उसने पूरी कहानी उन्हें सुना दी। विश्वकर्मा बोले : स्त्री का घर वहीं होता है, जहाँ वह अपने पति के साथ रहती है, तुम वहाँ लौट जाओ। उस समय तो संज्ञा वहाँ से तो लौट गई किन्तु सूर्यदेव के पास न जाकर घोर वन में चली गई। और वहाँ तपस्या करने लगी। उसने अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण कर लिया, और चरती रही। भगवान् सूर्य इस सबसे अनजान थे और छाया को ही संज्ञा समझ रहे थे। छाया से उन्हें तीन सन्तानें भगवान् शनि, तापी नामक नदी और सावर्णि मनु (एमानुएल) प्राप्त हुए। छाया अपनी सन्तानों से तो प्यार दुलार करती किन्तु यम, यमुना और मनु की उपेक्षा करती। एक दिन यम ने क्रोध के वश में उस पर पैर का प्रहार किया, तो वह यम को शाप देने लगी। यम पिता के पास पहुँचे और कहा : लगता है, यह हमारी माता नहीं है, क्योंकि कोई माता कभी सन्तान को शाप नहीं देती। तब सूर्यदेव ने छाया से पूछा -- सच सच बता तू कौन है? तब छाया ने उन्हें सब कुछ स्पष्ट कह दिया। भगवान् सूर्य तब संज्ञा को खोजते हुए जब विश्वकर्मा के पास जा पहुँचे, तो उन्हें पता चला, कि संज्ञा वहाँ से तत्काल ही कहीं चली गई थी। तब वे उसे खोजते हुए सर्वत्र विचरण करते रहे और अन्ततः उसे घोर वन (मन नामक महा-अरण्य) में घोड़ी के रूप में चरते देखा तब उन्होंने भी अश्व का रूप धारण कर लिया। वहाँ उनके यमक -दो पुत्र हुए। उन्हें अश्विनौ (equinox) कहा जाता है।यही भौतिक सृष्टि का रहस्य है।

इन्हीं अश्विनौ या नासत्यौ का दूसरा रूप संपाती और जटायु के रूप में रामायण में पाया जाता है। जटायु विषुव (equinox) है, जबकि संपाती कर्क और मकर संक्रांति (solstice) है।

चूँकि इस दृष्टि से भी यम और यमुना भाई-बहन हैं, और यम ही सार्वभौम धर्म ( महर्षि पातञ्जल-योगदर्शन में वर्णित सार्वभौम महाव्रत) है, जबकि यमुना विश्व-संस्कृति है।

इस प्रकार से विवेचना करने पर लगा कि यह कथा संयोग-मात्र नहीं है।

यहाँ इतना ही। 

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Wednesday 10 August 2022

परिधि और क्षितिज

रक्षा-सूत्र (रक्षा-बन्धन पर्व)

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मेरे दूसरे किसी ब्लॉग में वेदव्यास, क्षिति, परिधि, और क्षितिज से संबंधित कथाओं के क्रम में ही यह एक नई और अभी अभी ही रचित कथा है। श्रावणी इस पर्व का ही एक और नाम है। इस तिथि को ब्राह्मण अपने पुराने यज्ञोपवीत को विसर्जित कर नया रक्षासूत्र / यज्ञोपवीत ग्रहण और धारण करते हैं। 

संक्षेप में कथासूत्र एक बार पुनः :

महर्षि वेदव्यास की पत्नी का नाम था क्षिति, उनकी दो संतानें थीं क्षितिज नामक पुत्र, और परिधि नामक पुत्री। 

रक्षाबन्धन के इस पर्व की तिथि पर भगवान् महर्षि वेदव्यास जी ने अपने पुत्र और पुत्री को श्रावणी उपाकर्म का महत्व समझाया और उन्हें यह शिक्षा दी। 

"वत्स! प्रत्येक वर्ष, श्रावण मास की शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन यह उपाकर्म किया जाता है। श्रावण मास श्रुति के श्रवण के लिए उपयुक्त है। इस तिथि को ही संस्कृति ने धर्म को अपनी रक्षा के लिए रक्षासूत्र के बन्धन में बाँधा था। यह सनातन काल से चला आ रहा क्रम है जिसका उल्लंघन करना समस्त संसार के लिए अनिष्टकारी होता है। संस्कृति तथा धर्म का, परस्पर क्रमशः बहन-भाई का संबंध है। जब तक संस्कृति और धर्म के बीच के इस संबंध का निर्वाह किया जाता है, तब तक संसार में सर्वत्र सुख-शान्ति बनी रहती है। जैसे ही इस संबंध का विस्मरण हो जाता है, संसार में क्लेश, कष्ट दुःख और व्याधि उत्पन्न होने लगते हैं। 

इसे स्मरण रखने का सरल उपाय यह है कि बहन अपने भाई के माथे पर कुंकुम का तिलक लगाकर उसकी दक्षिण कलाई पर रेशम के धागे से बने इस रक्षा-सूत्र को बाँधे ।

दाहिना हाथ रक्षा के कर्म का द्योतक है,जबकि माथा, कपाल, भाल, स्मरण और संकल्प का।

केवल परिवार या वंश के लिए ही नहीं, पूरे संसार के कल्याण के लिए ही यह एक पावन और अत्यन्त ही शुभ कार्य है।"

सर्वे भवन्तु सुखिनः।

।। इति रक्षाबन्धन-पर्व कथा।।

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जहाँ समय नहीं है!

ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। 

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चूँकि 'यहाँ' और 'वहाँ' समय-निरपेक्ष सत्य है, और 'तब' और 'अब' समय-सापेक्ष, इसलिए 'तब समय नहीं था' ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं होगा।

फिर भी, यहाँ और वहाँ, अब और तब भी, चेतना का अस्तित्व तो निर्विवादतः अकाट्यतः सत्य और स्वप्रमाणित है ही। चेतना नामक तत्त्व को भी उसके स्वरूप के अनुसार पुनः दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। एक तो वह, जो शरीर के रूप में किसी जीव अर्थात् जैव इकाई (organism) में संगठित (organized) चेतन प्राणी विशेष, जो इन्द्रियों के माध्यम से अपने आसपास के संसार को जानता है। जानने का यह रूप शाब्दिक या स्मृतिगत न होकर केवल संवेदन का प्रकार होता है - जैसे दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद को जानना। इन सभी  संवेदनों को शब्द से संबद्ध किए बिना भी, वैसे भी अनुभव-गम्य भिन्न भिन्न प्रतीतियों के रूप में जाना जाता है, और इसके बाद ही उन अनुभवों से उन्हें अनुकूल या प्रतिकूल, प्रिय या अप्रिय आदि प्रकारों में ग्रहण कर लिया जाता है। प्रिय को सुखद और अप्रिय को दुःखद कह सकते हैं। कोई विषय कभी तो प्रिय और कभी अप्रिय भी प्रतीत हो सकता है। 

इस जैव या शरीर में उत्पन्न चेतना को शारीरिक तत्त्वों, पदार्थों, रसायनों और स्नायविक प्रणाली में विद्यमान सूक्ष्म वैद्युत संचार का परिणाम माना जाए तो प्रश्न उठता है कि इस शारीरिक जैव चेतना के अभाव में 'जो है', उसे कौन जानता होगा? यदि यह माना जाए कि इस प्रकार का जाननेवाला कोई अस्तित्वमान ही नहीं है, तो इसकी सत्यता का क्या प्रमाण है? विज्ञान कार्य और कारण के बीच, तथा कारण और परिणाम के बीच तर्कसंगति स्थापित कर किसी ऐसे सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता है, जिसे अचल, अपरिवर्तनशील नियम की तरह स्वीकार किया जा सके। जो सदा और सर्वत्र सत्य हो। स्पष्ट है कि यदि ऐसा कोई सत्य होता हो तो वह स्थान-निरपेक्ष और काल-निरपेक्ष होगा।

इस प्रकार 'वहाँ' काल और स्थान का महत्व समाप्त हो जाएगा। विज्ञान द्वारा अभी तक क्या ऐसा कोई सत्य प्राप्त किया गया है, या किया जाना संभव है? 

सत्य को प्राप्त करने का अर्थ हुआ -- (उस) सत्य को जानना, और यह जानना बुद्धिगम्य नहीं हो सकता, -- बुद्धि के माध्यम से उसे नहीं जाना जा सकता क्योंकि जैसा कि अभी कहा गया, -- बुद्धि वह प्रतीति है, जो जैव अनुभूतियों का परिणाम है और जो शरीर रूपी संगठित कार्य-प्रणाली के अनेक कार्यों में से ही केवल एक है।

तात्पर्य यह हुआ कि विज्ञान कभी भी उस सत्य को जान नहीं सकता । और यह भी पूरी तरह तय है कि उसका अस्तित्व है, और इसे विज्ञान अस्वीकार भी नहीं कर सकता।

उसे ही चेतना का वह प्रकार कहा जाता है जो असंख्य शरीरों में वैयक्तिक व्यक्ति चेतना के रूप में प्रकट होता है। 

किन्तु मनुष्य मात्र अन्वेषण और अनुसंधान के माध्यम से, और बुद्धि की सहायता लिए बिना ही उस सत्य को निजता के रूप में अनायास अवश्य ही जान सकता है।

इसे ही

'प्रज्ञानं ब्रह्म'

महावाक्य से व्यक्त किया जाता है। 

यह प्रज्ञान; - जानना, यह निजता ही स्वरूपतः वह चेतना है, जो शरीर में व्यक्त चेतना की तरह का परिणाम नहीं, बल्कि वह एकमात्र उद्गम है, जहाँ से समस्त जगत् की प्रतीति अस्तित्व की तरह होती है। जगत् परिणाम है। 

इसलिए उसे 'वहाँ' या 'यहाँ' तो कहा जा सकता है, 'तब' / 'अब' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह काल-निरपेक्ष सत्य है। चूँकि 'वहाँ' और 'यहाँ' सार्वत्रिक के अन्तर्गत हैं, इसलिए उसे 'वहाँ' या / और 'यहाँ' भी कहना अनुपयुक्त न होगा। 

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गुरुकुल, यह घर सनातन!

कविता : यह जीवन ही गुरुकुल है! 

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एक सादा सा अपना ऐसा ही घर हो कहीं, 

ऐसे ही अपने घर में अपना बसर हो कहीं!

समीप ही कोई झरना या सरोवर हो कहीं, 

न हो घोर गहन वन, या महानगर कहीं!

हो रही हो नित्य प्रज्वलित अग्नि हवन की,

ऐसा वह ऋषि-आश्रम, भूमि याग-यज्ञ की!

गौएँ हों, गोवत्स हों, बाल-गोपाल और, गौशाला,

आचार्यों का द्विजों का विद्यालय हो, पाठशाला,

छात्रगण जहाँ करते हों, नित्य पाठ वेद-मन्त्रों का,

और ऋषि-पत्नियों की हो, पवित्र एक पाकशाला!

भोर से बहुत पहले ही, ब्रह्म-मुहूर्त में ही उठ, 

शौच आदि नित्य नियत कर्मों से हो निवृत्त,

दत्तचित्त स्वाध्याय, संध्यादि कर्म में हों प्रवृत्त।

फलाहार, दुग्ध दधि घृत, अन्न आदि का सेवन,

पाकर तृप्ति सात्त्विक, संतोष, पुष्टिदायी भोजन,

घड़ी भर विश्राम भी हो, गोधूलि वेला में पुनः जब, 

लौटती हों धेनुएँ, संध्या में गोपालकों के साथ तब, 

जब वह सन्ध्या सिन्दूरी हो, सायं पुनः सन्ध्याकर्म,

वेदमंत्रों से अग्नि में हवन, याग-यज्ञ आदि निज-धर्म,

अनुष्ठान चारों वर्णों के, चारों आश्रमों के धर्म। 

सावधान हो कर्तव्य सतत कि, न हो कहीं अधर्म।

देवता अग्नि हो प्रकट प्रत्यक्ष समक्ष सभी रूपों में,

तमोहर, वैश्वानर, व्याधिहर, प्रज्वलित स्वरूपों में। 

वन्य जन्तु-जीवों से सबकी ही वह रक्षा करे,

वनस्पतियाँ,ओषधियाँ, अन्न सबकी क्षुधा हरे।

वायु ऐसी हो सुरभित, प्राणमयी, जीवनमयी,

देवता हों प्रसन्न तुष्ट, प्रकृति भी हो, वरदायिनी।

शीतल जल, अमृत जैसा, और वायु जैसा ही, 

पालक हो, पावन हो, उस पुण्य-भूमि जैसा ही,

न हो भय शत्रुओं का, दुर्भिक्ष, या आधि-व्याधि, 

प्रीति हो अभिवृद्धि  हो, स्नेह, अभय, समृद्धि! 

पुरुषार्थपूर्ण जीवन के चार क्रम बीतें सार्थक,

न हो संताप, क्षोभ, शोक, व्याकुलता, निरर्थक। 

मन में न हो लोभ, भय, संदेह, अविश्वास या संशय,

सब पूर्ण हों संकल्प शुभ, कर्त्तव्य, और सभी निश्चय। 

कृषि, गौरक्ष्य, वाणिज्य, वणिक् वर्ग के हों कर्तव्य,

वीरता, रक्षा, उत्साह, पराक्रम, शौर्य हों क्षत्रियों के,

द्विजवर्ग अध्ययन, पठन पाठन करें धर्म-शास्त्रों का,

क्षत्रिय प्रशिक्षण, अभ्यास, एवं संचालन शस्त्रों का।

शूद्र वर्ग करे सेवा सभी वर्णों की, अवर्णों की भी, 

नारी हो आर्या, वत्सला, नारी, माता जैसी सबकी।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, हो आचरण, 

न कि हिंसा, असत्य, स्तेय, अमर्यादा, कलह, या दुराचरण। 

उन्नति का यही वह पथ, पुरातन जो है सनातन धर्म,

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ श्रेयस्कर, जो है मर्म।

जहाँ सभी सुखी हों और सभी हों निरामय,

न कोई भी हो दुःखी, प्रसन्न और विगतभय ।।

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हमारे दुर्भाग्य से सनातन-धर्म के विरोधियों द्वारा एक दुष्प्रचार यह किया जाता है कि वर्णाश्रम धर्म जातिवाद का समर्थक है, इसके प्रत्युत्तर में यही कहा जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ में स्पष्टतः कहा गया है कि किसी भी मनुष्य का वर्ण मनुष्य के गुण और कर्म (की प्रवृत्तियों) के अनुसार होता है। इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि जाति, मुख्यतः मनुष्य, या उसके वंश के आजीविका के प्रकार से तय होती है, न कि उसके गुण और कर्म (की प्रवृत्तियों) से। किसी मनुष्य का वर्ण उसके जन्म से नहीं, उसकी प्रवृत्तियों और कर्म के प्रकार से ही माना जाना चाहिए। और इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपना वर्ण चुनने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। गीता या सनातन-धर्म इसलिए न तो जाति-प्रथा को, और न ही जन्म पर आधारित वर्ण को निर्णायक मानते हैं।

न तो कोई वर्ण अन्य किसी वर्ण से ऊँचा है, न नीचा है। और न ही वे समान हैं। सबकी अपनी अपनी विशेषता अर्थात् गुण तो हैं, किन्तु किसी में भी कोई दोष नहीं है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।। 

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

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