Saturday 25 March 2023

विभूतिपाद

पातञ्जल योगसूत्र १८, १९ २०:

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संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।।१८।।

प्रत्ययस्य परचित्त ज्ञानम्।।१९।।

न च तत् सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात्।।२०।।

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छाया अन्धेरे में मनुष्य का साथ छोड़ जाती है किन्तु शुभ अशुभ और मिश्रित कर्म अपना फल प्रदान करने तक उसके संस्कारों के माध्यम से पीछा करते रहते हैं। इसलिए संस्कारों को जानने से पहले चित्त की प्रवृत्ति को जान लेना आवश्यक है। अपने संस्कारों की पहचान अपने चित्त की प्रवृत्ति / प्रवृत्तियाँ जानकर की जा सकती है। दूसरों के संस्कारों की पहचान उनके हाव-भाव, इंगित, प्रत्ययों (लक्षणों) से। जैसा उपरोक्त योग-सूत्र २० से भी स्पष्ट है, दूसरे के हाव-भाव, इंगित के आधार पर उसके चित्त की प्रवृत्ति का अनुमान तो हो सकता है, किन्तु उस के चित्त की ऐसी प्रवृत्ति क्यों है, इसे नहीं जाना जा सकता। किन्तु फिर भी यह तो समझा ही जा सकता है कि जैसे हमारे अपने चित्त की प्रवृत्तियाँ हमारे ही संस्कारों का प्रतिबिम्ब और उनकी द्योतक होती हैं, वैसे ही दूसरों के चित्त की प्रवृत्तियाँ भी उनके संस्कारों की। और इससे यह भी समझा जा सकता है कि किस प्रकार हमारे पूर्वकृत कर्मों के संस्कार ही इस वर्तमान जन्म में हमें मिलनेवाले माता-पिता, वंश, जाति, कुल आदि में जन्म लेने के लिए कारण होते हैं। इसलिए किसी ने किसी भी वंश, जाति, या कुल में जन्म लिया हो, अपने संस्कारों के अवलोकन से वह स्वयं ही जान और समझ सकता है कि इस जन्म से पूर्व  किस जाति, कुल, वंश आदि में उसका जन्म हुआ होगा। मनुष्य इस रीति से अपने चित्त की प्रवृत्ति से अपने संस्कारों की, और उन संस्कारों के माध्यम से, अपनी पूर्वजाति का भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है। और तब कुसंग क्या है, और सत्संग क्या है इसे भी वह समझ सकता है। तब वह यह भी समझ सकता है कि कैसे कुसंग उसके लिए हानिकारक है और सत्संग का फल शुभ है।

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संगति और संस्कार

कर्म, कर्मफल, प्रवृत्ति और संगति

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