Thursday 29 September 2022

तृतीय अनुवाक

शीक्षा वल्ली 

तृतीय अनुवाक 

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सह नौ यशः।

सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।

अथातः स्ँ हिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः।

पञ्चस्वधिकरणेषु। 

अधिलोकमधिज्यौतिषमधिविद्यमधिप्रजमध्यात्मम्। 

ता महा स्ँ हिता इत्याचक्षते। 

अथाधिलोकम्। 

पृथिवी पूर्वरूपम्। 

द्यौरुत्तररूपम्। 

आकाशः संधिः।

वायुः संधानम्। 

इत्यधिलोकम्।।

अथाधिज्यौतिषम्।

अग्निः पूर्वरूपम्।

आदित्य उत्तररूपम्।

आपः संधिः।

वैद्युत् संधानम्।

इत्यधिज्यौतिषम्।

अथाधिविद्यम्। 

आचार्यः पूर्वरूपम्। 

अन्तेवास्युत्तररूपम्। 

विद्या संधिः। 

प्रवचन्ँ संधानम्। 

इत्यधिविद्यम्। 

अथाधिप्रजम्। 

माता पूर्वरूपम्। 

पितोत्तररूपम्। 

प्रजा संधिः।

प्रजनन्ँ संधानम्। 

इत्यधिप्रजम्। 

अथाध्यात्मम्। 

अधरा हनुः पूर्वरूपम्। 

उत्तरा हनुः उत्तररूपम्। 

वाक् संधिः। 

जिह्वा संधानम्। 

इत्यध्यात्मम्।

इतीमा महास्ँ हिता य एवमेता महास्ँ हिता व्याख्याता वेद। संधीयते प्रजया पशूभिः। ब्रह्मवर्चसेन सुवर्गेण लोकेन।।

।।तृतीय अनुवाक।।

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अधिकरण और अधिष्ठान समानार्थी हैं। किन्तु अधिष्ठान (अधि + स्थान) स्थान का द्योतक है, जबकि अधिकरण (अधि + करण) उस कार्य का जिस स्थान पर वह कार्य होता है।

हम दोनों यशस्वी हों। हम दोनों में ब्रह्म के तेज का विस्तार और प्रसार हो। (इस संकल्प के साथ) इसलिए अब सं-हिताओं के, अर्थात् श्रुतियों के वचनों के उपनिषद् रूपी संकलन की व्याख्या (हम) करेंगे।

पूर्वरूप (fundamental),

उत्तररूप (secondary, next),

संधि (connecting thread) तथा,

संधान (content / exploration), चार तरह से पांचों में, - प्रत्येक अधिकरण (substratum) में यह कार्य होता है। 

ब्रह्म कार्य भी है और अधिष्ठान भी जो पाँच अधिकरणों सहित संपन्न होता है। ये पाँच अधिकरण क्रमशः इस प्रकार से हैं :

अधिलोक, अधिज्यौतिष्, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म। 

इन पांचों के एकत्रस्वरूप को महास्ँ हिता कहा जाता है। 

अब अधिलोक क्या है? 

पृथिवी अधिलोक का पूर्वरूप (prior) है।

द्यौ / द्युलोक (material celestial) अधिलोक का उत्तररूप (next) है।

आकाश (space / sky) उन दोनों (पूर्वरूप तथा उत्तररूप) को परस्पर संबंधित करनेवाला तत्व है।

वायु (air) उनके बीच संचरित होनेवाला संधान (अन्वेषण) है। 

यह हुई अधिलोक अधिकरण की संरचना और उसमें होनेवाला कार्य ।

अब अधिज्यौतिष्  या अधिज्यौतिषम् (Cosmic) :

अग्नि (Fire) पूर्वरूप है।

आदित्य (Sun) उत्तररूप है। 

आप (hydrogen and oxygen in the atomic / ionic state) संधि है और,

वैद्युत (electric spark) संधान है।

यह हुआ अधिज्यौतिष् या अधिज्यौतिषम् अधिकरण।  

अब विद्यारूपी (knowledge)  तीसरे अधिकरण के बारे में :

आचार्य (teacher) अधिविद्य अधिकरण का पूर्वरूप है। 

अन्तेवासी (disciple), अर्थात् उसके आश्रम में उससे विद्या ग्रहण करने का अभिलाषी उत्तररूप है। 

विद्या संधि (connecting link) है, जो आचार्य को विद्यार्थी से संबंधित करती है।

प्रवचन (exposition) संधान / अन्वेषण है। 

यह हुआ अधिविद्य अधिकरण हुआ। 

अब अधिप्रज (प्रजा की उत्पत्ति और वृद्धि) :

माता पूर्वरूप है।

पिता उत्तररूप है। 

प्रजा (संतति) संधि है। 

प्रजनन (संतान की उत्पत्ति का कार्य) संधान है। 

यह अधिप्रज अधिकरण हुआ।

अब अध्यात्म अधिकरण :

अधरा हनु - मुख का निचला अंग, जबड़ा (Jaw), पूर्वरूप है। 

उत्तरा हनु - मुख का ऊपरी अंग, जबड़ा (Jaw), उत्तररूप है।

वाक् (voice) संधि है। 

जिह्वा (tongue) संधान है। 

यह अध्यात्म (spiritual) अधिकरण हुआ।

यही ये पाँच अधिकरण ये पाँच महासंहिताएँ हैं जिनकी व्याख्या यहाँ की गई, उन्हें जानो / जो जानता है, -उसे प्रजा और पशुओं का स्वामित्व प्राप्त होता है। वह अन्न आदि संपत्ति और समृद्धि से सुखी होकर उत्तम लोकों की प्राप्ति करता है। 

तैत्तिरीय उपनिषद् की प्रथम वल्ली, शीक्षा वल्ली का यह तृतीय अनुवाक पूर्ण हुआ।

।। इति शं ।। 

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Tuesday 27 September 2022

विचार, चिन्ता, और मन

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।

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चिन्ता विचार है, और विचार चिन्ता। चिन्ता चिन्तन है, चिन्तन चिन्ता। विचार के अभाव में चिन्तन नहीं हो सकता, और न ही चिन्तन के अभाव में चिन्ता । विचार, चिन्तन, चिन्ता और मन एक ही गतिविधि के अलग अलग चार नाम हैं। गतिविधि एक ही है। मन गतिविधि है, और गतिविधि मन है।  फिर वह क्या है जो विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के एक दूसरे से भिन्न होने का आभास उत्पन्न करता है?

विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन, मूलतः गतिविधि के ही भिन्न प्रतीत होनेवाले चार प्रकार हैं, और चेतना ही उनकी पृष्ठभूमि होती है। चेतना की इस पृष्ठभूमि की निजता और नित्यता की सत्यता तो स्वयंसिद्ध है ही, किन्तु विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन उस पृष्ठभूमि पर विषय, विषयी के बीच आभासी विभाजन आरोपित कर देता है। चेतनारूपी इस पृष्ठभूमि की नित्यता और निजता एक अकाट्य और असंदिग्ध, निर्विवाद तथ्य है, और यही तथ्य विषयी के निरंतर विद्यमान होने के भ्रम को जन्म देता है। मूलतः विषयी और विषय दोनों ही उस एक ही गतिविधि के दो पक्ष हैं जो विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के रूप में चेतना से भिन्न की तरह प्रतीत और अभिव्यक्त होती है।

विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन विषय-आधारित गतिविधि होते हैं, अर्थात् विषय के अभाव में नहीं हो सकते। जागृत तथा स्वप्न ऐसी ही गतिविधियाँ हैं। किन्तु सुषुप्ति में तो विषय और विषयी तथा उनके बीच का विभाजन भी कहाँ होता है? 

पातञ्जल योग-सूत्र में चेतना की इस पृष्ठभूमि को ही दृष्टा तथा विचार, चिन्ता, चिन्तन और मन के रूपों में हो रही गतिविधि को चित्त-वृत्ति कहा गया है। वृत्तियों का वर्गीकरण पाँच प्रकारों में किया गया है और चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। इस प्रकार चित्तवृत्ति के निरुद्ध होने की अवस्था ही योग है। इस अवस्था में दृष्टा (अपने) स्वरूप में स्थित होता है। दृष्टा जब जब इस स्थिति से विचलित हो जाता है, विचार, चिन्ता, चिन्तन तथा मन रूपी गतिविधि प्रारंभ हो जाती है। यही चित्तवृत्ति है। पुनः निद्रा अर्थात् सुषुप्ति को भी चित्तवृत्ति कहा गया है। 

इन चित्तवृत्तियों के पाँच प्रकारों को इस प्रकार से वर्गीकृत किया गया है :

प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। पुनः ये सभी क्लिष्ट या अक्लिष्ट हो सकती हैं।

प्रमाण का अर्थ है : प्रतीति या मूल्यांकन (evaluation),

विपर्यय का अर्थ है : त्रुटिपूर्ण प्रतीति या मूल्यांकन (distortion),

विकल्प का अर्थ है : एक प्रतीति को किसी दूसरी प्रतीति से प्रतिस्थापित / replace कर दिया जाना, 

निद्रा का अर्थ है : अभाव-प्रत्ययात्मक गतिविधि / अभावात्मक वृत्ति, जब विचार, चिन्ता, चिन्तन अर्थात् -- मन की गतिविधि, आनन्द के भोग में लीन होने से विषय और विषयी का भेद भी तात्कालिक रूप से विलीन हो जाता है। निद्रा में विषय-शून्यता की प्रतीति होती है जिसे अभाव-प्रत्यय कहा जाता है। 

और अन्तिम है स्मृति : अर्थात् विचार, चिन्ता, चिन्तन या मन की वह गतिविधि है, जब किसी अनुभूत विषय की पुनरावृत्ति (प्रतीत) होती है। 

इन समस्त वृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य की सहायता से होता है। 

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Friday 23 September 2022

शीक्षा-वल्ली

तैत्तिरीय उपनिषद्

वल्ली - १

प्रथम अनुवाक : शान्तिपाठ 

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।...  अवतु वक्तारम्।। 

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!

यह अनुवाक शान्ति पाठ है। इसकी विवेचना पिछले पोस्ट में की गई है।

यह प्रथम अनुवाक समाप्त हुआ।

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द्वितीय अनुवाक 

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शीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः।  मात्रा बलम्। साम संतानः। इत्युक्तः शीक्षाध्यायः।

विवेचना : 

शास् शासन करना, और शिक्ष् सीखना दोनों धातुओं से शिक्षा और शीक्षा (वैदिक प्रयोग) संज्ञा रूप बने।

समस्त शिक्षा वाणी के माध्यम से ही प्रदान और ग्रहण की जाती है। प्राकृत वाणी के प्रयोग में व्यावहारिक प्रचलन और परंपरा के अनुसार भाव एवं अर्थ को प्रकट एवं ग्रहण किया जाता है, और वह भिन्न भिन्न स्थानों पर इसीलिए भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करती है, इसलिए मनुष्य की बुद्धि की सीमा में ही उसे प्रयोग किया जा सकता है। तकनीकी दक्षता और कौशल सीखने या सिखाने के लिए वाणी के प्रयोग की अधिक आवश्यकता नहीं होती और वाणी के माध्यम से भी किसी भी भाषा में इस ज्ञान का आदान-प्रदान किया जा सकता है। किन्तु वेद अर्थात् आत्मा के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सत्य के ज्ञान को सीखने और सिखाने के लिए इन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग अपर्याप्त सिद्ध होता है। वाणी अग्नि ही है और आज के विज्ञान के मत से भी वाणी (Sound) और अग्नि (Fire) मूलतः ऊर्जा के ही दो प्रकार हैं । अंग्रेजी भाषा का 'Sound' शब्द संस्कृत शब्द 'स्वन' या 'स्वर' का ही सज्ञात (cognate) या अपभ्रंश है। इसी प्रकार  'Fire' भी 'स्फुर्' का सज्ञात (cognate) या अपभ्रंश है।

इसलिए भौतिक ज्ञान से भिन्न आधिदैविक और आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा के लिए प्राकृत भाषा(ओं) के उपयोग की एक सीमा है, और चूँकि वाणी स्वयं भी आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीन रूपों में होती है, इसलिए वाणी के देवता रूपी माध्यम की सहायता से ही उच्चतर आधिदैविक और आध्यात्मिक सत्यों की शिक्षा दी जा सकती है।

वाणी के भौतिक रूप को वैखरी कहा जाता है, जिस भाषा का प्रयोग व्यवहार में किया जाता है उसे वाक् कहा जाता है। यही वाक् विचार के रूप में मन में कार्यरत होती है। इस विचाररूपी वाणी की भाषा तो वही प्राकृत होती है जिसे कि मनुष्य व्यवहार में तथा बोलचाल में काम में लाता है। देवी अथर्वशीर्ष में इसे ही पशुओं की भाषा अर्थात् प्रकृति से प्राप्त भाषा की संज्ञा दी गई है। पश्यते पश्यति, पाशयति पाश्यते इति पशुः । पशु जो देखता है पाश में बद्ध होता है। मनुष्य की पशुओं से श्रेष्ठता इसीलिए होती है क्योंकि मनुष्य के पास मन नामक यंत्र होता है, जिसे वह बिना बोली जानेवाली भाषा के रूप में मनन के रूप में विचार के माध्यम से प्रयोग कर सकता है। 

किन्तु जब तक मनुष्य भाषागत विचार के सहारे मनन करता है, तब तक वाणी का देवता जागृत नहीं होता। वाणी के देवता का  आधिदैविक स्वरूप तब प्रकट होता है जब स्वर और व्यञ्जन अर्थात् वर्ण की शुद्धता स्पष्ट होती है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ण, स्वर तथा व्यञ्जन स्वयं ही देवता होता है। जैसे भरत के नाट्य-शास्त्र में संचारी भावों की संख्या / कोटि 33 है, उसी प्रकार से वाणी के देवता भी 33 कोटि के होते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है, क्योंकि ऋषियों ने इसका आविष्कार अनुसंधान किया है। इन्हीं वर्णों के समूह से मंत्रों के रूप में देवताओं के आधिदैविक तत्व को जाना गया। वर्णः स्वरः का अर्थ हुआ - वाणी के वर्ण स्वर हैं और मात्रा बलम्  का अर्थ हुआ उस वर्ण के उच्चारण किए जाने के लिए जो बल (accent) लगाया जाता है, वह उस वर्ण की मात्रा (amount,  strength) है । इनकी सुसंगति ही साम है। साम ही संतान, सातत्य या फल और परिणाम है। यह हुआ शीक्षाध्यायः। प्राकृत का संस्कृत में उत्परिवर्तन (mutation / evolution) ही श्रुति है। इसलिए संस्कृत तथा वेद के ज्ञान की शिक्षा वाणी के माध्यम से ही दी एवं ग्रहण की जा सकती है। इसी आधार पर, और वाणी के शुद्ध स्वरूप को सुरक्षित करने के लिए लिपि के आविष्कार से भी पहले से आचार्य और शिष्य परंपरा प्रारंभ हुई। इस विकास यात्रा के दो पक्ष हैं। एक है नागरी (या देवनागरी) तथा दूसरा है द्रविड लिपि का प्रयोग। इन दोनों ही पक्षों में इस तथ्य का ध्यान रखा गया है कि लिखी हुई (लिपिबद्ध) भाषा की शुद्धता और ध्वनिसाम्य शुद्धता समान हो। द्रविड भाषा में एक ओर तो ग्रन्थलिपि में वैदिक ज्ञान का संग्रह किया गया, साथ ही मौखिक परंपरा से भी इसकी शुद्धता सुनिश्चित की गई। संस्कृत हो या द्रविड, वाणी और उच्चारण की शुद्धता का महत्व उतना और वैसा ही है जैसे कम्प्यूटर के किसी प्रोग्राम की रचना करते समय कोडिंग-डिकोडिंग का।

संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में लिखे गए ग्रन्थों में अधोमात्रा (आड़ी लकीर, जो नीचे लगाई जाती है) और ऊर्ध्वमात्रा (खड़ी लकीर, जो ऊपर लगाई जाती है) के द्वारा स्वरित,अनुदात्त और  का संकेत किया जाता है, वहीं अवग्रह के चिह्न ऽ तथा १, २, ३ आदि अंकों से भी उच्चारण की शुद्धता सुनिश्चित की जाती है। 

किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि किसी आचार्य से वैदिक शिक्षा को ग्रहण किया जाना अधिक उपयुक्त है। 

द्रविड या தமிழ் लिपि में यह कठिनाई इसलिए और अधिक है क्योंकि वहाँ एक ही वर्णाक्षर के एक से अधिक उच्चारण होते हैं, जबकि यह कठिनाई नागरी लिपि में नहीं होती। फिर भी नागरी लिपि में किसी सीमा तक उच्चारण को शुद्ध रखा जाना संभव है।

दूसरी ओर इसका एक लाभ यह भी है कि कोई अनधिकारी या अपात्र इस ज्ञान को न प्राप्त कर सके।

महाभाष्य में महर्षि पतञ्जलि कहते हैं --

दुष्टो शब्दो स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।

स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।।

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Wednesday 21 September 2022

Creating from Nothing!

 P O E T R Y

~~The Physicist ~~

And The T A O  of  P H Y S I C S.

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Earlier they said :

Nothing (new) could ever be created,

You can but transform; 

The Matter into Energy,

And You can, Energy into Matter.

Energy or Matter, it matters not:

Neither could be created,

Nor could be destroyed!

Now that theory and concept;

Has been discarded.

Even laughed at! 

They now claim;

Physics has gone through total revolution,

They have experimentally created,

And demonstrated that --

Matter / Energy could be created, 

Something could be made from Nothing!

What a sarcasm! What a hype,

What a science of deluded mind!

Don't they see, there is consciousness of;

Creating Something from Nothing, 

The Consciousness prior to;

Creation and destruction?

Is there a time and place,

When and where;

The Consciousness has a beginning,

Or the middle or the end?

Do the Time and the Space,

Exist not in Consciousness?

Is consciousness result of an action?

The Core-error of judgement lies --

In the fact that Matter or Energy, 

The objects and the objective world;

That appear and subsequently disappear, 

Are never created nor destroyed, 

But only go through,

Manifestation and dissolution.

The Consciousness is the background,

Where-in this play takes place, 

And one may though be ignorant,

Oblivious of the fact, 

Consciousness never rises nor sets!

Understanding this simple Reality, 

Is itself realizing the truth.

The Consciousness --

That is itself.

That is verily  धर्म ,

That is verily  therm.

From धर्म / therm arises / manifests

धी (धी धियौ धियः)

the Theo / Theology / Theory / Tao 

ताओ -- लाओत्से

~~~~~~~~~~•~~~~~~~~~~~~•~~~~~~~~~

The Intelligence (Principle). 

The Intelligence arises / manifests as Theo,

Is verily Consciousness Relative.

Wher-in and Where-from, 

The Life / Leaf / Live.

Theo is verily God. Truth, ऋत् .

That is how; 

Nothing is Created nor annihilated.

Everything only manifests / appears to exist,

And subsequently undergos:

Dissolution / disappearance.

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Create is cognate of  संस्कृत root --

कृत / सृत / सृजित

Which are modified forms of the root verbs:

√कृ, डुकृञ्,  and / or  सृज्, 

The former is used to denote 'doing', 

While the later is used to denote :

"To throw out from within".

ऐतरेयोपनिषद् 

प्रथम अध्याय प्रथम खण्ड 

ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१।।

In the beginning, there was this Self (आत्मन्) alone.  Nothing else other than this Self.

He, That very Self indeed wished / observed :

May I bring forth (लोकाः) spaces / spheres.

सः इमाँल्लोकानसृजत। अम्भो मरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्त्तात्ता आपः ।।२।।

He delivered these spaces.

अम्भस् / अम्भो --

The Space that is upper and lower and fills this.

मरीचि - The Space in between them "अन्तरिक्ष".

This is really the Space as Consciousness.

That is how Upanishads reject the theory of "Creation" if anything (from what-so-ever)!

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तैत्तिरीयोपनिषद्

शान्तिपाठ 

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।

शं नो भवत्वर्यमा।

शं न इन्द्रो बृहस्पतिः।

शं नो विष्णुरुरुक्रमः।

नमो ब्रह्मणे।

नमस्ते वायो।

त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।

ऋतं वदिष्यामि।

सत्यं वदिष्यामि।

तन्मामवतु।

तद्वक्तारमवतु।

अवतु माम्।

अवतु वक्तारम्। 

ॐ शान्तिः !शान्तिः !!शान्तिः!!!

--

मित्र (सूर्य) हमें शान्ति प्रदान करें, और वरुण (समुद्र तथा जल) हमें शान्ति प्रदान करें। सूर्य और वरुण अधिभौतिक इन्द्रियगम्य  स्थूल लोकों के लिए प्रत्यक्ष हैं। अर्यमा (सूर्य, जो पितृलोक का शासन करते हैं) हमें शान्ति प्रदान करें। पितृलोक वह लोक है, जहाँ भूलोक में मृत्यु हो जाने के बाद जीव कुछ समय तक वास किया करते हैं, पितरों को इस प्रकार देवता-विशेष माना जाता है, जिनका अस्तित्व आधिदैविक एवं आधिमानसिक दोनों ही स्तरों पर माना जाता है। देवताओं के शासनकर्ता इन्द्र, - हमारे लिए शान्ति प्रदान करें। इन्द्र और बृहस्पति देवताओं के शासक एवं गुरु भी हैं।

गणानां त्वा गणपतये हवामहे

कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।।

ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत

आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्।।०२३।।

(ऋग्वेद मण्डल २)

ॐ गं गणपतये नमः ।।

गणपति ही इन्द्र, बृहस्पति, सूर्य, विष्णु भी हैं, क्योंकि एकमेव तत् सत् ब्रह्म अनेक उपाधियों के माध्यम से युक्त होकर विभिन्न प्रकार  से जाना जाता है।

विष्णु अर्थात् उरुक्रम के रूप में जिस परमात्मा ने तीनों लोकों को तीन क्रमिक चरणों में क्रमशः व्याप्त किया है, वही विष्णु, वे परब्रह्म परमात्मा हमें शान्ति प्रदान करें।

उस ब्रह्म के लिए नमस्कार। हे वायुदेवता! आपको नमस्कार!! चूँकि वायु स्थूल जगत् में तो सर्वत्र गतिशील हैं, सूक्ष्म रूप से भी वे ही प्राणों की भी गति हैं और उस रूप में भी वे देवता हैं, जो कि भूलोक (स्थूल भौतिक) और भुवर्लोक (संसार रूपी जीवन) में सतत संचार करते हैं। वायुदेवता! आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं। आपको ही (मैं) प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा। मैं वाणी से परे के सत्य को अर्थात् ऋत् को वाणी से कहूँगा। (मैं) व्यावहारिक रूप से जिसे सत्य कहा जाता है, उसे ही कहूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे। वह वाणी के माध्यम से सत्य को कहने वाले वक्ता की रक्षा करे। वह मेरी रक्षा करे। वह वक्ता की रक्षा करे।

ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!

इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों ही प्रकारों से सर्वत्र शान्ति व्याप्त हो। 

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Tuesday 20 September 2022

How to change?

The Reality Incognisible! 

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How to change the world, 

How to change oneself?

It's like the question :

How to destroy the world, 

How to kill myself! 

How to destroy the world;

Implies :

The one who destroyes,

Remains intact after the destruction,

And How to kill myself;

Implies :

I survive after killing myself! 

Isn't the question irrational?

Isn't the question il-conceived?

Though one can reconstruct :

How to kill I itself! 

This implies :

There is one "I" that kills; 

There is another;

That is killed!

Isn't this too erroneous;

Isn't this too absurd? 

Are there two 'I';

That co-exist! 

Even if this be true,

Who kills to who?

Who is the killed;

And Who kills? 

Likewise :

I can't kill itself;

I can't kill myself. 

Likewise :

I can't change itself; 

I can't change myself! 

How then I;

Change the World;

-Whatever it be; 

That is :

I myself, or I itself;

Could change the world,

That is not I, nor myself;

That is not I, nor itself!

For, this world;

The phenomenal one;

Exists not without I!

(But I do exist as I for ever, eternally so!)

And I'm the only; 

Phenomenon phenomenal!

Thinking: I shall or will, 

Thinking: I could or would;

Change the world or myself,

Or even I would change;

Is but a silly question / thought;

That is subsequent to another:

I'm this or that, it or thought!

The thoughts emerge out from;

And vanish again into there;

Where I is;

What I is --

The Unchangeable, Immutable.

The only Reality, and The Reason.

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Saturday 17 September 2022

संस्कृत रचना

माननीय प्रधान मंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी जी

को उनके जन्म दिन पर सादर समर्पित

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अभी आधे घंटे पहले अतिथि चीतों के बारे में सोचते हुए एक संस्कृत रचना लिखने का प्रयास किया। ध्यान आया कि आज माननीय प्रधान मंत्री जी का जन्मदिन है। इसलिए ट्विटर पर ट्वीट् कर इसे उन्हें ही समर्पित कर दिया! और उसे ही  RT  कर दिया। 

इसका सामान्य अर्थ यह है :

वह तपस्वी उस वन में गया, जहाँ बाघ, चीते, सिंह, तेंदुए तथा शरभ आदि विचरते थे। फिर भी उनसे उसे न तो कोई भय हुआ और न ही विस्मय। वह उनके बीच वैसे ही निर्भयतापूर्वक रहने लगा जैसे कोई गजराज वन में भयरहित होकर रहा करता है।

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The Ascetic went into the deep forest, where tigers, leopards, lions, jaguars and another such ferocious animal (-- named sharabh) freely roamed about. But the ascetic, - the noble Muni too lived among them without fear or bewilderment just like a fearless king-elephant, living in woods.

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Wednesday 7 September 2022

काशीतलवाहिनी गङ्गा?

काशीतलवाहिनी गङ्गा?

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यह एक प्रहेलिका (पहेली) है, जिसमें प्रश्न भी है और उसका उत्तर भी है।

प्रश्न है :

का शीतलवाहिनी गङ्गा?

उत्तर है :

काशी-तलवाहिनी गङ्गा।। 

प्रश्न है : शीतलजल के प्रवाह से युक्त गङ्गा क्या है?

उत्तर है : काशी में जिसका प्रवाह होता है, वह है गङ्गा।

काशी के विषय में एक वर्णन इस प्रकार से है :

काश्यां तु मरणाद्मुक्तिः जननात्कमलालये।। 

दर्शनादभ्रसदृशीः स्मरणादरुणाचले।।

इसका सामान्य अर्थ है :

काशी (काञ्ची) में मृत्यु होने से मुक्ति होती है, हृदयरूपी कमलालय में जन्म होने से भी, चिदम्बरम् के दर्शन करने से मुक्ति होती है, और इसी प्रकार अरुणाचल के स्मरण से भी।

धरती पर ये चारों स्थान भौगोलिक रूप से क्रमशः वाराणसी, पुष्कर, चिदम्बरम् और अरुणाचल (तिरुवन्नामलै) हैं।

इनका गूढ आशय यह है :

काश (हृदयरूपी आकाश) में जिसकी मृत्यु होती है, उसके प्राण हृदय में अवस्थित परमात्मा शिव में निमग्न हो जाते हैं, जो कि मुक्ति है। इसी हृदयरूपी कमल में जिसे आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है, उसकी भी मुक्ति हो जाति है। चिदम्बर अर्थात् चित्त  रूपी चेतना के अम्बर (आवरण) से जो चैतन्य आवरित है, उस चैतन्य के दर्शन जिसे हो जाते हैं उसकी भी मुक्ति हो जाती है, तथा अरुणाचल शिव (जहाँ आत्मा का भान सदैव अहं-अहं के रूप में अनायास, नित्य, अनवरत स्फुरित होता रहता है), उसके स्मरण होने से भी मुक्ति हो जाती है। 

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अयोध्या मथुरा माया काशी-काञ्ची अवन्तिका।।

पुरी द्वारावती चैव  सप्तैते मोक्षदायिनी।।

अयोध्या, मथुरा / मधुरा / मदुरई, माया मय दानव द्वारा निर्मित नगरी, काशी-काञ्ची -- उत्तर में काशी और दक्षिण में काञ्चीपुरम्, अवन्तिका अर्थात् उज्जयिनी, पुरी अर्थात् श्रीजगन्नाथपुरी और द्वारावती अर्थात् द्वारका ये सातों स्थल स्थान प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होते।

मय दानव / मयासुर का संबंध माया सभ्यता (मेक्सिको / मख-शिखः) से है।  

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Thursday 1 September 2022

विधि-प्रपञ्च है या माया!

कविता : अश्वत्थः प्राहुरव्ययम्।।

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एक दीपक जल रहा, 

बिना बाती, बिन तेल, 

चिज्ज्योति में चल रहा,

विधि-प्रपञ्च का खेल!

एक वृक्ष ऐसा उगा, 

जिसका बीज न मूल,

शाखा, पत्र, असंख्य हैं,

नहि फल हैं, बस फूल!

अभी अभी है, हो रहा,

नहि था, न होगा फिर, 

यह पल जैसे जुग अनंत,

न आरंभ, न ही है अंत!

एक झूला डाल पर, 

हवा में है, डोलता,

उस पे बैठा है मनुज,

भाग्य अपना तौलता!

तराजू के पलड़े दो,

हो रहे नीचे ऊपर,

काँटा इधर से उधर,

चल रहा अस्थिर चंचल,

क्या होता है, क्या पता, 

जब दीपक बुझ जाता है, 

दृष्टा का दृश्य प्रपञ्च से,

क्या रहस्यपूर्ण यह नाता है!

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