Monday 15 August 2022

God, Faith and Truth.

The Core Reality. 

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I know I am.

I'm aware of my existence.

This awareness is not the knowledge that I acquired from the world or from someone else. This awareness is Intelligence, and not the information of and about myself.

This Intelligence has nothing to do with the intellect that begins the moment when I get  information of any kind and form, and then the same gets stored in the form of memory. 

Or, may be in the form of a bundle of many a thoughts, feelings, sentiments, emotions and memories, bound together in an assortment, arbitrary collection.

While I, and the awareness 'I am' are but the two aspects of the same phenomenon, -the unique truth, the Intellect tends to classify, bifurcate and define them as if the two are not the one whole truth.

It is only when the intellect is there, the I and the world appear in consciousness; shine up, and are thought to be as if the two are two independent, different and distinct facts.

That is where the attention is divided and the Reality -- I, I'm, and the world appear to be mutually different, distinct and exclusive appearances independent from one-another.

Where / What is God then? 

Is not this proposed, assumed and supposed God a fact secondary to I, I'm and the world around I'm?

As has been already said :

I, I'm and the awareness of I and I'm are the same unique principle, - the Intelligence, what could be the place of God there in this whole frame?

It is impossible to please God without faith in Him... (Hebrews 11:6)

So faith in God is the essential pre-requisite for pleasing Him. Faith implies, one believes in the existence of God. Because, without this faith, how can one please or displease Him?

For such a firm faith, there should be either a direct revelation of such a God or indirect knowledge of the same. 

It's really such a difficult, Catch-22 situation.

You don't know, and therefore you have to believe someone else's experience or words.

And the belief or faith needs the essential revelation of the truth,  -the experience.

Again, and no doubt, that you are, and you also know that you are. You are, because you know I'm. And because you know, you are. This awareness, this knowing of I'm, is itself the authentic, spontaneous, natural insight, and the evidence, you can never deny to. Perhaps, one could give a name and call it God.

The word is not important, nor necessary.

But if you trust such a man who has realized this fact you can understand him. 

In understanding him, you shall understand and see what he talks about.

Though this could be an indirect realization of the God, may certainly help you. But until and unless you realize this truth in the form of the awareness of  'I'm' and your attention is then turned upon the truth : 

You are because you know you're / I'm, and this knowing is there because you are, - and the two facts are essentially and inevitably only and the same unique truth, -- you shall never be free from the conflict.

This is the Direct Realization, the Final and the Ultimate.

When really, you trust such a man who has arrived at this truth, and you have no reason whatsoever to doubt him, you have reached. 

But then you do not follow him blindly. And you will never force your realization upon those others, who don't know or trust you.

But if and when your faith itself is not firm enough, you may try to impose your beliefs upon others.

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Thursday 11 August 2022

सूर्य की सन्तानें

संज्ञा और छाया : धर्म और संस्कृति

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परिधि और क्षितिज की कथा सुबह लिखी थी।

फिर लगा, कि क्या यह कथा केवल एक बौद्धिक-काल्पनिक मनोरंजन है, या इसमें अनायास ही इससे भी अधिक कुछ गूढ रहस्य या तात्पर्य व्यक्त हुआ है! 

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४ का यह श्लोक याद आया :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।।

विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

वैवस्वान् / वैवस्वत् वर्तमान युग के मनु का नाम है।

स्कन्द-पुराण के अनुसार :

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणश्चांशुरेव च ।

भगो विवस्न्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा।।

एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते। 

जघन्यजः स सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।।

(माहेश्वर-कुमारिका खण्ड, कलाप ग्राम निवासी सुतनु द्वारा नारदजी के जटिल प्रश्नों का समाधान)

संज्ञा का तात्पर्य है चेतना, जो कि भूतमात्र में, -सभी जीवों में जीवन है -- श्रीमद्भगवद्गीता -अध्याय १०, श्लोक २२ के अनुसार, "भूतानामस्मि चेतना।।"

किन्तु उसी चेतना consciousness की छाया / shadow है -- "चेतनता" - material-consciousness...। 

संज्ञा, विश्वकर्मा की पुत्री थी, जिसका विवाह भगवान् सूर्य से हुआ। किन्तु वह सूर्य के प्रचंड ताप से व्याकुल हो उठी, उसने अपने जैसी एक छायाप्रतिमा निर्मित की, और भगवान् सूर्य से उसे हुई सन्तानों - यम, यमुना और मनु को उसे सौंपकर उसने छाया से कहा - तुम यह रहस्य किसी पर प्रकट न करना। तब छाया ने पूछा, कि उसके प्राणों पर संकट आ खड़ा हो क्या तब भी? संज्ञा बोली : उस स्थिति में तुम अवश्य ही कह देना। संज्ञा तब पिता के घर लौट आई। उसे अकेले आया देख, विश्वकर्मा ने पूछा : सूर्यदेव कहाँ है? तब उसने पूरी कहानी उन्हें सुना दी। विश्वकर्मा बोले : स्त्री का घर वहीं होता है, जहाँ वह अपने पति के साथ रहती है, तुम वहाँ लौट जाओ। उस समय तो संज्ञा वहाँ से तो लौट गई किन्तु सूर्यदेव के पास न जाकर घोर वन में चली गई। और वहाँ तपस्या करने लगी। उसने अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण कर लिया, और चरती रही। भगवान् सूर्य इस सबसे अनजान थे और छाया को ही संज्ञा समझ रहे थे। छाया से उन्हें तीन सन्तानें भगवान् शनि, तापी नामक नदी और सावर्णि मनु (एमानुएल) प्राप्त हुए। छाया अपनी सन्तानों से तो प्यार दुलार करती किन्तु यम, यमुना और मनु की उपेक्षा करती। एक दिन यम ने क्रोध के वश में उस पर पैर का प्रहार किया, तो वह यम को शाप देने लगी। यम पिता के पास पहुँचे और कहा : लगता है, यह हमारी माता नहीं है, क्योंकि कोई माता कभी सन्तान को शाप नहीं देती। तब सूर्यदेव ने छाया से पूछा -- सच सच बता तू कौन है? तब छाया ने उन्हें सब कुछ स्पष्ट कह दिया। भगवान् सूर्य तब संज्ञा को खोजते हुए जब विश्वकर्मा के पास जा पहुँचे, तो उन्हें पता चला, कि संज्ञा वहाँ से तत्काल ही कहीं चली गई थी। तब वे उसे खोजते हुए सर्वत्र विचरण करते रहे और अन्ततः उसे घोर वन (मन नामक महा-अरण्य) में घोड़ी के रूप में चरते देखा तब उन्होंने भी अश्व का रूप धारण कर लिया। वहाँ उनके यमक -दो पुत्र हुए। उन्हें अश्विनौ (equinox) कहा जाता है।यही भौतिक सृष्टि का रहस्य है।

इन्हीं अश्विनौ या नासत्यौ का दूसरा रूप संपाती और जटायु के रूप में रामायण में पाया जाता है। जटायु विषुव (equinox) है, जबकि संपाती कर्क और मकर संक्रांति (solstice) है।

चूँकि इस दृष्टि से भी यम और यमुना भाई-बहन हैं, और यम ही सार्वभौम धर्म ( महर्षि पातञ्जल-योगदर्शन में वर्णित सार्वभौम महाव्रत) है, जबकि यमुना विश्व-संस्कृति है।

इस प्रकार से विवेचना करने पर लगा कि यह कथा संयोग-मात्र नहीं है।

यहाँ इतना ही। 

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Wednesday 10 August 2022

परिधि और क्षितिज

रक्षा-सूत्र (रक्षा-बन्धन पर्व)

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मेरे दूसरे किसी ब्लॉग में वेदव्यास, क्षिति, परिधि, और क्षितिज से संबंधित कथाओं के क्रम में ही यह एक नई और अभी अभी ही रचित कथा है। श्रावणी इस पर्व का ही एक और नाम है। इस तिथि को ब्राह्मण अपने पुराने यज्ञोपवीत को विसर्जित कर नया रक्षासूत्र / यज्ञोपवीत ग्रहण और धारण करते हैं। 

संक्षेप में कथासूत्र एक बार पुनः :

महर्षि वेदव्यास की पत्नी का नाम था क्षिति, उनकी दो संतानें थीं क्षितिज नामक पुत्र, और परिधि नामक पुत्री। 

रक्षाबन्धन के इस पर्व की तिथि पर भगवान् महर्षि वेदव्यास जी ने अपने पुत्र और पुत्री को श्रावणी उपाकर्म का महत्व समझाया और उन्हें यह शिक्षा दी। 

"वत्स! प्रत्येक वर्ष, श्रावण मास की शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन यह उपाकर्म किया जाता है। श्रावण मास श्रुति के श्रवण के लिए उपयुक्त है। इस तिथि को ही संस्कृति ने धर्म को अपनी रक्षा के लिए रक्षासूत्र के बन्धन में बाँधा था। यह सनातन काल से चला आ रहा क्रम है जिसका उल्लंघन करना समस्त संसार के लिए अनिष्टकारी होता है। संस्कृति तथा धर्म का, परस्पर क्रमशः बहन-भाई का संबंध है। जब तक संस्कृति और धर्म के बीच के इस संबंध का निर्वाह किया जाता है, तब तक संसार में सर्वत्र सुख-शान्ति बनी रहती है। जैसे ही इस संबंध का विस्मरण हो जाता है, संसार में क्लेश, कष्ट दुःख और व्याधि उत्पन्न होने लगते हैं। 

इसे स्मरण रखने का सरल उपाय यह है कि बहन अपने भाई के माथे पर कुंकुम का तिलक लगाकर उसकी दक्षिण कलाई पर रेशम के धागे से बने इस रक्षा-सूत्र को बाँधे ।

दाहिना हाथ रक्षा के कर्म का द्योतक है,जबकि माथा, कपाल, भाल, स्मरण और संकल्प का।

केवल परिवार या वंश के लिए ही नहीं, पूरे संसार के कल्याण के लिए ही यह एक पावन और अत्यन्त ही शुभ कार्य है।"

सर्वे भवन्तु सुखिनः।

।। इति रक्षाबन्धन-पर्व कथा।।

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जहाँ समय नहीं है!

ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। 

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चूँकि 'यहाँ' और 'वहाँ' समय-निरपेक्ष सत्य है, और 'तब' और 'अब' समय-सापेक्ष, इसलिए 'तब समय नहीं था' ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं होगा।

फिर भी, यहाँ और वहाँ, अब और तब भी, चेतना का अस्तित्व तो निर्विवादतः अकाट्यतः सत्य और स्वप्रमाणित है ही। चेतना नामक तत्त्व को भी उसके स्वरूप के अनुसार पुनः दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। एक तो वह, जो शरीर के रूप में किसी जीव अर्थात् जैव इकाई (organism) में संगठित (organized) चेतन प्राणी विशेष, जो इन्द्रियों के माध्यम से अपने आसपास के संसार को जानता है। जानने का यह रूप शाब्दिक या स्मृतिगत न होकर केवल संवेदन का प्रकार होता है - जैसे दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद को जानना। इन सभी  संवेदनों को शब्द से संबद्ध किए बिना भी, वैसे भी अनुभव-गम्य भिन्न भिन्न प्रतीतियों के रूप में जाना जाता है, और इसके बाद ही उन अनुभवों से उन्हें अनुकूल या प्रतिकूल, प्रिय या अप्रिय आदि प्रकारों में ग्रहण कर लिया जाता है। प्रिय को सुखद और अप्रिय को दुःखद कह सकते हैं। कोई विषय कभी तो प्रिय और कभी अप्रिय भी प्रतीत हो सकता है। 

इस जैव या शरीर में उत्पन्न चेतना को शारीरिक तत्त्वों, पदार्थों, रसायनों और स्नायविक प्रणाली में विद्यमान सूक्ष्म वैद्युत संचार का परिणाम माना जाए तो प्रश्न उठता है कि इस शारीरिक जैव चेतना के अभाव में 'जो है', उसे कौन जानता होगा? यदि यह माना जाए कि इस प्रकार का जाननेवाला कोई अस्तित्वमान ही नहीं है, तो इसकी सत्यता का क्या प्रमाण है? विज्ञान कार्य और कारण के बीच, तथा कारण और परिणाम के बीच तर्कसंगति स्थापित कर किसी ऐसे सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता है, जिसे अचल, अपरिवर्तनशील नियम की तरह स्वीकार किया जा सके। जो सदा और सर्वत्र सत्य हो। स्पष्ट है कि यदि ऐसा कोई सत्य होता हो तो वह स्थान-निरपेक्ष और काल-निरपेक्ष होगा।

इस प्रकार 'वहाँ' काल और स्थान का महत्व समाप्त हो जाएगा। विज्ञान द्वारा अभी तक क्या ऐसा कोई सत्य प्राप्त किया गया है, या किया जाना संभव है? 

सत्य को प्राप्त करने का अर्थ हुआ -- (उस) सत्य को जानना, और यह जानना बुद्धिगम्य नहीं हो सकता, -- बुद्धि के माध्यम से उसे नहीं जाना जा सकता क्योंकि जैसा कि अभी कहा गया, -- बुद्धि वह प्रतीति है, जो जैव अनुभूतियों का परिणाम है और जो शरीर रूपी संगठित कार्य-प्रणाली के अनेक कार्यों में से ही केवल एक है।

तात्पर्य यह हुआ कि विज्ञान कभी भी उस सत्य को जान नहीं सकता । और यह भी पूरी तरह तय है कि उसका अस्तित्व है, और इसे विज्ञान अस्वीकार भी नहीं कर सकता।

उसे ही चेतना का वह प्रकार कहा जाता है जो असंख्य शरीरों में वैयक्तिक व्यक्ति चेतना के रूप में प्रकट होता है। 

किन्तु मनुष्य मात्र अन्वेषण और अनुसंधान के माध्यम से, और बुद्धि की सहायता लिए बिना ही उस सत्य को निजता के रूप में अनायास अवश्य ही जान सकता है।

इसे ही

'प्रज्ञानं ब्रह्म'

महावाक्य से व्यक्त किया जाता है। 

यह प्रज्ञान; - जानना, यह निजता ही स्वरूपतः वह चेतना है, जो शरीर में व्यक्त चेतना की तरह का परिणाम नहीं, बल्कि वह एकमात्र उद्गम है, जहाँ से समस्त जगत् की प्रतीति अस्तित्व की तरह होती है। जगत् परिणाम है। 

इसलिए उसे 'वहाँ' या 'यहाँ' तो कहा जा सकता है, 'तब' / 'अब' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह काल-निरपेक्ष सत्य है। चूँकि 'वहाँ' और 'यहाँ' सार्वत्रिक के अन्तर्गत हैं, इसलिए उसे 'वहाँ' या / और 'यहाँ' भी कहना अनुपयुक्त न होगा। 

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गुरुकुल, यह घर सनातन!

कविता : यह जीवन ही गुरुकुल है! 

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एक सादा सा अपना ऐसा ही घर हो कहीं, 

ऐसे ही अपने घर में अपना बसर हो कहीं!

समीप ही कोई झरना या सरोवर हो कहीं, 

न हो घोर गहन वन, या महानगर कहीं!

हो रही हो नित्य प्रज्वलित अग्नि हवन की,

ऐसा वह ऋषि-आश्रम, भूमि याग-यज्ञ की!

गौएँ हों, गोवत्स हों, बाल-गोपाल और, गौशाला,

आचार्यों का द्विजों का विद्यालय हो, पाठशाला,

छात्रगण जहाँ करते हों, नित्य पाठ वेद-मन्त्रों का,

और ऋषि-पत्नियों की हो, पवित्र एक पाकशाला!

भोर से बहुत पहले ही, ब्रह्म-मुहूर्त में ही उठ, 

शौच आदि नित्य नियत कर्मों से हो निवृत्त,

दत्तचित्त स्वाध्याय, संध्यादि कर्म में हों प्रवृत्त।

फलाहार, दुग्ध दधि घृत, अन्न आदि का सेवन,

पाकर तृप्ति सात्त्विक, संतोष, पुष्टिदायी भोजन,

घड़ी भर विश्राम भी हो, गोधूलि वेला में पुनः जब, 

लौटती हों धेनुएँ, संध्या में गोपालकों के साथ तब, 

जब वह सन्ध्या सिन्दूरी हो, सायं पुनः सन्ध्याकर्म,

वेदमंत्रों से अग्नि में हवन, याग-यज्ञ आदि निज-धर्म,

अनुष्ठान चारों वर्णों के, चारों आश्रमों के धर्म। 

सावधान हो कर्तव्य सतत कि, न हो कहीं अधर्म।

देवता अग्नि हो प्रकट प्रत्यक्ष समक्ष सभी रूपों में,

तमोहर, वैश्वानर, व्याधिहर, प्रज्वलित स्वरूपों में। 

वन्य जन्तु-जीवों से सबकी ही वह रक्षा करे,

वनस्पतियाँ,ओषधियाँ, अन्न सबकी क्षुधा हरे।

वायु ऐसी हो सुरभित, प्राणमयी, जीवनमयी,

देवता हों प्रसन्न तुष्ट, प्रकृति भी हो, वरदायिनी।

शीतल जल, अमृत जैसा, और वायु जैसा ही, 

पालक हो, पावन हो, उस पुण्य-भूमि जैसा ही,

न हो भय शत्रुओं का, दुर्भिक्ष, या आधि-व्याधि, 

प्रीति हो अभिवृद्धि  हो, स्नेह, अभय, समृद्धि! 

पुरुषार्थपूर्ण जीवन के चार क्रम बीतें सार्थक,

न हो संताप, क्षोभ, शोक, व्याकुलता, निरर्थक। 

मन में न हो लोभ, भय, संदेह, अविश्वास या संशय,

सब पूर्ण हों संकल्प शुभ, कर्त्तव्य, और सभी निश्चय। 

कृषि, गौरक्ष्य, वाणिज्य, वणिक् वर्ग के हों कर्तव्य,

वीरता, रक्षा, उत्साह, पराक्रम, शौर्य हों क्षत्रियों के,

द्विजवर्ग अध्ययन, पठन पाठन करें धर्म-शास्त्रों का,

क्षत्रिय प्रशिक्षण, अभ्यास, एवं संचालन शस्त्रों का।

शूद्र वर्ग करे सेवा सभी वर्णों की, अवर्णों की भी, 

नारी हो आर्या, वत्सला, नारी, माता जैसी सबकी।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, हो आचरण, 

न कि हिंसा, असत्य, स्तेय, अमर्यादा, कलह, या दुराचरण। 

उन्नति का यही वह पथ, पुरातन जो है सनातन धर्म,

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ श्रेयस्कर, जो है मर्म।

जहाँ सभी सुखी हों और सभी हों निरामय,

न कोई भी हो दुःखी, प्रसन्न और विगतभय ।।

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हमारे दुर्भाग्य से सनातन-धर्म के विरोधियों द्वारा एक दुष्प्रचार यह किया जाता है कि वर्णाश्रम धर्म जातिवाद का समर्थक है, इसके प्रत्युत्तर में यही कहा जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ४ में स्पष्टतः कहा गया है कि किसी भी मनुष्य का वर्ण मनुष्य के गुण और कर्म (की प्रवृत्तियों) के अनुसार होता है। इस प्रकार यही सिद्ध होता है कि जाति, मुख्यतः मनुष्य, या उसके वंश के आजीविका के प्रकार से तय होती है, न कि उसके गुण और कर्म (की प्रवृत्तियों) से। किसी मनुष्य का वर्ण उसके जन्म से नहीं, उसकी प्रवृत्तियों और कर्म के प्रकार से ही माना जाना चाहिए। और इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपना वर्ण चुनने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। गीता या सनातन-धर्म इसलिए न तो जाति-प्रथा को, और न ही जन्म पर आधारित वर्ण को निर्णायक मानते हैं।

न तो कोई वर्ण अन्य किसी वर्ण से ऊँचा है, न नीचा है। और न ही वे समान हैं। सबकी अपनी अपनी विशेषता अर्थात् गुण तो हैं, किन्तु किसी में भी कोई दोष नहीं है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।। 

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

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Friday 5 August 2022