Sunday 11 December 2022

कर्तुराज्ञया

कर्म-दर्शन

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षड् दर्शनों में से एक, -मीमांसा दर्शन में कर्मकाण्ड की विवेचना की जाती है। और कर्म के माध्यम से तीन पुरुषार्थों -धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि कैसे हो सकती है, इस विषय में विस्तार से बतलाया गया है। किन्तु कर्म पुनः सकाम या निष्काम, इन दोनों प्रकार का हो सकता है। कर्म किसी भी प्रकार से क्यों न किया जाए, आवश्यक रूप से उसकी कोई न कोई प्रतिक्रिया या फल भी होता ही है जो संस्कार बन जाता है और उस संस्कार से ही मनुष्य सतत कर्म और कर्मफल की कर्मश्रँखला में सदा बँधा ही रहता है।

सबसे महत्वपूर्ण और प्रबल दुर्निवार समस्या यह है कि कामना सहित किया जानेवाला ही ऐसी श्रृंखला निर्मित करता है, न कि निष्काम और वैराग्ययुक्त बुद्धि से 'प्राप्त हुआ कर्तव्य है', - इस दृष्टि से किया जाने वाला कर्म।

जब तक किसी भी कामना से प्रेरित होकर कर्म किया जाता है, तब तक मनुष्य में 'मैं' कर्ता, भोक्ता, स्वामी और परिज्ञाता (गीता 18/18) की तरह नेपथ्य में विद्यमान रहता ही है। किन्तु मनुष्य जब केवल प्रारब्धवश प्राप्त हुए कर्मों को ही बिना किसी फल की प्राप्ति की आशा से रहित होकर, कर्तव्य के निर्वाह के लिए ही करता है, तब ऐसे कर्म से कोई नया संस्कार नहीं उत्पन्न होता है।

सबसे विचित्र सच्चाई यह है कि किसी भी कर्म का कुछ या कोई न कोई फल अवश्य ही होता है, किन्तु वह कब प्राप्त होगा, इसे मनुष्य कभी नहीं जान सकता। इसका एक अपवाद यही है कि प्राप्त हुए सभी विहित कर्मों को वैराग्यबुद्धि से, सहज-रूप से होने दिया जाए। इस (निष्काम) कर्म को भी इसलिए ईश्वर को समर्पित कर देने से या प्राप्त होने से किए जानेवाले प्रारब्ध की तरह हो जाने देने से नया संस्कार नहीं उत्पन्न होता।

क्योंकि फल एकमात्र प्रदान करनेवाला ईश्वर ही है। और यही कर्मबन्धन से मुक्ति या मोक्ष नामक चौथा पुरुषार्थ है।

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