Wednesday 29 June 2022

द्वे विद्ये वेदितव्ये।।

अपरा और परा विद्या

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21 जून 2022 को इस ब्लॉग में :

कारण-कार्य और क्रम-कार्य शीर्षक से लिखे पोस्ट में इन दोनों विद्याओं का उल्लेख किया था। 

कारण-कार्य तो स्पष्ट ही है। विज्ञान उसी परिप्रेक्ष्य से और उसी कसौटी पर किसी सिद्धान्त की सत्यता को सुनिश्चित करता है। 

यह अपरा विद्या है, जो ज्ञात से ज्ञात की परिसीमा में गतिशील होती है। इस प्रकार की विद्या में नया प्रतीत होनेवाला जो कुछ भी जाना जाता है, वह वस्तुतः पुराने का ही विकास होता है, न कि अज्ञात का साक्षात्। 

दूसरी ओर परा विद्या है जिसे समझने के लिए सूर्याथर्वशीर्षम् के एक मंत्र का उल्लेख करना पर्याप्त होगा :

सैषां सावित्रीं विद्यां न किञ्चिदपि न कस्मैचित् प्रशंसयेत्।। 

और इसके साथ शिव-अथर्वशीर्षम् के यह मंत्र भी दृष्टव्य है :

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो ...  यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति । अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् । एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं भूर्भुवः स्वरों नम इति।।६।।

यह मधु क्या है? भगवान् आचार्य शङ्कर ने कठोपनिषद् पर अपने भाष्य में 'मध्वदं' का यही आशय प्रकट किया है। मधु है - कर्मफल, और मधु + अद् = मध्वदं होगा -- मधु का सेवन करने वाला -- (अद् - अदादिगण की 'अद्' धातु जिसे खाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है), मध्वद -- अर्थात् वह, जो कि सुख-दुःख रूपी कर्मफलों का उपभोग करता है, अर्थात् यह विज्ञानात्मा या जीव।

कठोपनिषद् अध्याय २, वल्ली १ के मंत्र 

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।।

ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। एतद्वै तत्।।५।।

जीव अर्थात् विज्ञानात्मा, इसकी पुष्टि इससे पूर्व के मंत्रों 

येन रूपं रसं गन्धं शब्दान्स्पर्शान्श्च मैथुनान्।। 

एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते।। एतद्वै तत्।।३।।

तथा, 

स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।।

महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।।४।।

से हो जाती है।

उपरोक्त मंत्रों को कारण-कार्य के परिप्रेक्ष्य में और उस कसौटी पर देखना न्यायसंगत नहीं होगा। 

इन मंत्रों को क्रम-कार्य के परिप्रेक्ष्य में और उसी कसौटी पर ही देखना उचित होगा। 

इस प्रकार ब्रह्म-ज्ञान अर्थात् आत्म-ज्ञान जो परा विद्या है, अपरा विद्या से नितान्त विलक्षण है।

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वैसे तो कठोपनिषद् के सन्दर्भ में इस पोस्ट को हिन्दी-का-ब्लॉग में लिखा जाना चाहिए था, किन्तु कारण-कार्य और क्रम-कार्य के सन्दर्भ में इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 

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(हिन्दी-का-ब्लॉग -- vinaysv.blogspot.com ) 



Friday 24 June 2022

तुम कौन?

कविता : 

होना, जानना, करना और मन

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तुम मन हो, 

या सोचते हो, 

कि तुम मन हो! 

या मन ही सोचता है, 

कि मैं मन हूँ, 

यदि मन सोचता है, 

कि वह सोचता है,

तो उसे सोचने दो! 

यदि मन कहता है,

कि वह कहता है,

तो उसे कहने दो!

क्या मन सुनता भी है? 

क्या तुम सोच सकते हो? 

क्या तुम कह सकते हो?

क्या तुम सुन सकते हो? 

सोचने-कहने के लिए, 

कुछ किया जाना होता है। 

सुनने के लिए,

क्या कुछ किया जाना होता है?

सोचना-कहना कर्म है,

सोचने-कहनेवाला कर्ता है!

क्या सुनना भी कर्म है?

या है सिर्फ होना! 

जैसे नदी होती है,

धूप और छाया होती है!

सुख और दुःख होते हैं!

कर्म और कर्ता होता है!

कार्य और क्रिया होती है!

क्या वह, जो कि होता है,

जानता है?

कि मैं हो रहा हूँ? 

तुम जानते हो, 

या नहीं जानते, 

लेकिन तुम हो बस,

यह जानना भी तुम हो!

यह जानना, न कर्म है, न कर्ता,

यह जानना, होना है, न कि करना!

यह होना, जानना है, न कि करना!

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Thursday 23 June 2022

The Path-less Land,

सालंब / निरालंब

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All paths take you somewhere,

Away from the self, where you are! 

You're that very Path-less Land,

Ever so near, never away far,

How could you reach, 

What is not distant, 

How could you reach, 

That is here, instant!

Who is there to reach, 

And where, one has to reach,

Are the two, the same?

Or is different each?

Yet in the beginning,

You could rely upon,

And could hold onto,

A support that helps,

You're accustomed to!

The way to self, is but nominal,

May be either formal, informal.

You can devote to some object, 

A mantra, name or a method, 

An art-form or your own God!

That is worth rewarding indeed!

Where you can easily leave aside,

All your anxiety, worries and burden,

And come out clean and wholesome!

The purified mind, tranquil and calm, 

And could but see, realize that charm! 

For yourself, what is revealed to you, 

And know for certain, who are you!

Though you've travelled many long paths,

All those, that were in imagination only,

Come to your own truth ultimately!

Come upon the sole, but, not lonely!

Now You've come to a place ultimate, 

A point of no return, to your true state!

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ध्यान या आध्यात्मिक अभ्यास दो ही प्रकार का हो सकता है :

सालंब और निरालंब। 

पहले प्रकार में मन किसी अवलंबन का सहारा लेता है और इस सहारे से धीरे धीरे शुद्ध और स्वच्छ, निर्मल और शान्त स्थिति में रहने लगता है। अन्ततः उसी सहारे या आश्रय में लीन / विलीन और समाहित होने लगता है। तब मन समाधि को जानने लगता है, किन्तु आश्रय से पुनः दूर होते रहने पर, पुनः उसे प्राप्त करने के लिए उत्कंठित होता है।

यह सालंब ध्यान हुआ। इसमें कितने ही मार्ग हो सकते हैं, और अपने लिए कोई अनुकूल मार्ग हर किसी को स्वयं ही खोजना होता है। 

दूसरे प्रकार में मन किसी भी अवलंबन का सहारा नहीं लेता, यहाँ तक कि अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना को भी त्याग देता है। स्मृति और कल्पना का आलंबन न लेने पर मन स्वयं ही विलीन हो जाता है और वह तत्व प्रत्यक्ष और प्रकट हो उठता है जिसमें कि मन, संसार तथा 'मैं' पुनः पुनः प्रकट और विलीन हुआ करते हैं।

यह निरालंब ध्यान है। इसमें सभी मार्गों को त्याग दिया जाता है और अपने ही अंतर में विद्यमान ज्योति को जानकर उसके ही आलोक का साक्षात्कार किया जाता है। 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। 

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इस प्रकार सालंब ध्यान योगमार्ग,

और निरालंब ध्यान, साङ्ख्य ज्ञान हुआ।

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Monday 20 June 2022

कारण-कार्य या क्रम-कार्य?

अपरा और परा विद्या 

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सन्दर्भ  : मुण्डकोपनिषद् १-१, ३-४-५,

शौनको ह वै महाशालो अङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।।३।।

शौनक नामक प्रख्यात मुनि ने, जो कि किसी विशाल विद्यापीठ के प्रमुख थे, एक बार महर्षि अङ्गिरा / अङ्गिरस् के समीप पहुँच कर विधि के अनुसार उनसे दीक्षा प्राप्त की, और फिर यह प्रश्न पूछा :

(हे) भगवन्! वह कौन सा सत्य है, जिसे जान लिए जाने पर सब कुछ जान लिया जाता है?

तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।४।।

शौनक मुनि से महर्षि अङ्गिरा ने कहा :

जिनका वर्णन ब्रह्मवित् करते हैं, इस प्रकार की जानने योग्य दो  विद्याएँ, प्रधानतः तो परा एवं अपरा यही दोनों हैं।

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।५।।

उस परिप्रेक्ष्य में :

अपरा विद्या के अन्तर्गत, - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष इत्यादि हैं। 

और परा विद्या के अन्तर्गत ब्रह्मविद्या अर्थात् - आत्म-तत्व का विज्ञान है, जिसके उपाय / साधन से उस अक्षरब्रह्म परमात्मा को जाना जाता है।

अपरा विद्या परोक्ष-ज्ञान है, जबकि परा विद्या अपरोक्ष-बोध है। 

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कविता : 21-06-2022

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योग करूँ या भोग करूँ, 

या मैं करूँ, कर्म निष्काम?

सबसे पहले क्यों न करूँ,

मैं कर्ता का अनुसन्धान!

मेरे ही लिए नहीं क्या सभी, 

योग, कर्म, साङ्ख्य-ज्ञान,

मैं आरम्भ, मध्य, मैं अन्त, 

मैं सीमा, असीम का ज्ञान!

कौन यहाँ पर है फिर कर्ता,

यहाँ कौन सा होता कर्म,

क्या धर्म है, क्या है अधर्म, 

या जिसको मैं कहूँ विधर्म!

कर्म और, क्या है अकर्म, 

या दोनों से परे, विकर्म!

हाँ, कर्म की गति है गहन,

किसे पता है, इसका मर्म!

किन्तु मुझे है पता सदैव,

यही ज्ञान है, "मैं" का धर्म!

मैं ही बोध हूँ, मैं ही भान,

यही बोध है, मेरी निधि,

सत् ही चित्, चित् ही सत्,

भान ही मैं, मेरी सन्निधि!

होना है भान, भान होना, 

नित्य एकमेव हैं अनन्य,

कर्ता कौन, कर्म है क्या,

क्या कर्तृत्व, क्या कर्तव्य!

यह उपाय है या अभ्यास, 

यह प्रयत्न है या अनयास!

जैसे ही टूटे यदि अध्यास,

मिट जाये यह जगदाभास!!

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टिप्पणी :

यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं, कि अंग्रेजी भाषा का शब्द "Angel" -महर्षि अङ्गिरा का ही तद्भव / सज्ञात / सजात,  और "Saxon" शैक्षं का ही तद्भव / सज्ञात / सजात है।

इसी प्रकार से, अंग्रेजी भाषा के Edit, और Edict, शब्दों को संस्कृत शब्दों "अधीत" तथा "अवदिष्ट" से व्युत्पन्न कहा जाना अनुचित न होगा। 

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Thursday 16 June 2022

Evidence and Providence.

Poetry 16-06-2022

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A Pipal Tree,

Has taken roots,

In the middle of,

The main gate,

Of my house.

I was away,

For a few days,

The gate was locked,

And meanwhile, 

Rains had showered.

Waters inundated the place,

And then after,

A few months,

When I returned, 

The Tree was grown up.

Sprawling, speedily six feet tall,

A bit above the gate.

So I told the gardener, 

To cut the tree. 

He took the axe,

And in a minute or two, 

The tree had given way, 

But who knew,

After a few months next,

It grew up, more strong,

More splendid,

Full of vigor, and charm.

And then I called the gardener, 

He dug the whole ground, 

And said to me :

Sir the roots are strewn upon,

Everywhere,

And you can't stop them spreading. 

Oh!

Then I changed the plan, 

The gate was removed, 

And there was a lawn,

The boundary-wall was, 

Extended a few feet ahead, 

And the same gate was there, 

In the boundary-wall itself.

I knew within a few years, 

The Pipal would grow more, 

And the roots underground, 

Might spread, all over the place!

But I was happy, 

Providence is, 

The Evidence!

And the Evidence, 

The Providence! 

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Monday 13 June 2022

प्रत्ययमिदम्!

संस्कृत रचना / 13-06-2022

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यत् प्रति अयति / अयते, तत् प्रत्ययम्। 

यत् प्रति ईयते, तत् प्रतीयते।

प्रत्ययेन हि प्रतीयते यत् तद्दृश्यम्।

बुद्धिः, वृत्तिः, इच्छा, द्वेष, इत्यादि प्रत्ययानि / प्रत्ययाः।।

तथैव,

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

(पातञ्जल योग-सूत्र, साधनपाद)

अतो हि दृश्ये विलये गति सति प्रत्ययोऽपि सहैव विलीयते ।

न पृथक्त्वेन कालो, दृगपि वा अवतिष्ठति।

एवं च काल-प्रत्ययः अपि।

(कस्मिन् काले?)

यं काले त्वनावृत्तिमावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।। 

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।२३।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ८)

इति दृग्-दृश्य विलयम्।।

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Truth_is_Path-less_Land.

सत्य एक पथहीन काल-निरपेक्ष भूमि है।

Time-less. 

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Friday 10 June 2022

एक कविता

व्याज-निर्व्याज / दुंदुभी

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समर-गीत

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कल 10-06-2022, 07:33 संध्याकाल लिखा था, किन्तु यहाँ संशोधित कर प्रस्तुत कर रहा हूँ, ताकि किसी प्रकार के संशय की संभावना न रहे।

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उस तरफ उन्माद है, 

इस तरफ है अवसाद! 

उस तरफ है दंभ मद, 

इस तरफ परन्तु विषाद! 

तो, -- कर रहा है, मृत्यु से, 

नचिकेता, यह सख्य-संवाद, 

"समर के पर्यवसान में, 

शोक होगा, या आह्लाद!

क्या होगा परिणाम मृत्यो?!"

प्रश्न पूछा यमराज से, 

यम ने कहा, "तुम जानते हो,

तुम ही कहो, अब वत्स हे!

तुम ही कहो, क्या है भविष्य,

तुम ही कहो, जो सत्य है!"

नचिकेता हँसे, फिर बोले -

"जानता हूँ, हे आचार्य! 

द्विजगण हैं, अन्न उसके, 

और तुम हो शाक, आर्य!

इसलिए पूछा था तुमसे, 

प्रश्न मैंने, यह आचार्य! 

युद्ध से भय क्या करना,

काल के हैं सभी ग्रास!

इस समर में भी मुझे तो, 

लग रहा यही स्वीकार्य,

काल करे कार्य उसका,

हम करें कर्तव्य-कार्य!"

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जय महाकाल !

जय महादेव !!

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... द्वितीयाद्वै भयम्।।

औपनिषदिक सत्य / Wisdom of the Upanishad.

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The Upanishad suggests :

द्वितीयाद्वै भयम्।। 

Fear is born of the idea of the "other"

This existence is but One Undivided Whole.

The sense of I when gets confined in a body,  in limited organism, gets translated into I'm this (body). And then the reflection of the same gets into "this world isn't me."

Lo and behold! 

The "other", that was hitherto non-existant, comes alive and becomes the cause of the fear! 

I think, when Jean Paul Sartre observed :

"The other is hell",

He might have had this distant echo of the same Upanishad-dictum.

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Wednesday 8 June 2022

Adamant / Audacious

कट्टरतावाद की चुनौती

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'अड़ियल' शब्द का साम्य वैसे तो संस्कृत भाषा के "अदमन्तः"  अर्थात् अदम्य / दुर्दम्य / दुर्दान्त में देखा जा सकता है । अंग्रेजी के 'adamant'  में तो यह और भी अधिक स्पष्ट है, क्योंकि  'adamant', 'अदमन्त' शब्द का ही सज्ञात / सजात / सजाति / cognate भी है। 

इसी 'adamant' / 'अदमन्त' शब्द का हिन्दी और अपभ्रंश / aberration है 'अडियल'! 

भाज्य के एक प्रख्यात नेता और भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था :

"दुनिया झुकती है, -झुकानेवाला चाहिए।"

उनका यह नीतिवाक्य प्रसिद्ध ही है। किन्तु इसके राजनीतिक, कूटनीतिक निहितार्थ, और दूरगामी परिणाम अनेक हैं, जिनमें से कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हिंसा एवं कट्टरता की बुनियाद पर रची गयी यह राजनीतिक विचार-धारा धर्म का दुरुपयोग भी इसी प्रयोजन के लिए करती है और इसमें उसे सफलता भी मिलती है, फिर चाहे वह अल्पकालिक हो या दीर्घकालिक, क्योंकि संसार में सब कुछ अस्थायी ही होता है। स्थायी जैसा कुछ होता ही कहाँ है। किन्तु कट्टरता-वाद स्थायी और अस्थायी की दृष्टि से नहीं, तात्कालिक आवश्यकता और सफलता के आधार पर ही अपनी दीर्घकालीन योजना बनाता है। इसमें मनुष्य तो केवल यंत्र होता है, जिसे भय-प्रलोभन और उन्माद से सतत प्रेरित किया जाता है, और विडम्बना, दुर्भाग्य यह है कि इस कट्टरतावाद की बुनियाद किसी साम्प्रदायिक / धार्मिक / आध्यात्मिक विचार आदर्श पर भी रखी गई हो सकती है। तब मनुष्य के पास इसकी कोई संभावना शेष नहीं रह जाती है कि वह इस चुनौती का प्रत्युत्तर कैसे दे ।

तब युद्ध में एक ओर एक अकेला मनुष्य होता है, तो दूसरी ओर कट्टरतावाद। नीति, आदर्श, नैतिकता, आदि सभी दूसरे कारक नपुंसक हो जाते हैं।

"अन्धेन नीयमानाः एव अन्धाः"

या, 

"अन्धा अन्धे ठेलिया दोऊ कूप पड़न्त"

आदि उक्तियों / उदाहरण से भी इसे समझा और समझाया जा सकता है। पर जहाँ अकल का ही अकाल हो, वहाँ समझ का क्या काम?

तब जो हालत पैदा हो सकती है वही शासन, समाज, समुदाय, राष्ट्र और पूरे संसार की होती है। आप हालत की चिन्ता तो कर सकते हैं, किन्तु कट्टरतावाद का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि कट्टरतावाद धर्म के सुदृढ कवच के भीतर सुरक्षित होता है। वह तात्कालिक लाभ को महत्व देता है, समझौता करना तो जानता ही नहीं। 

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Monday 6 June 2022

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्

एषः धर्मः सनातनः।।

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भारतवर्ष के संविधान में जिसे धर्म (Religion) कहा गया है, कुछ अंशों में वह सनातन धर्म से समान है, किन्तु सनातन धर्म को शास्त्रों में परिभाषा से ही नहीं, उदाहरणों के द्वारा भी स्पष्ट किया गया है, जैसे कि --

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।। 

प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः।।

(मनुस्मृति,  ४- १८६)

बौद्ध धर्मग्रन्थ धम्मपदं में भी इसी प्रकार से कहा गया है कि वैर को कभी वैर से शान्त नहीं  किया जा सकता, क्षमा से ही शान्त किया जा सकता है, और यही सनातन-धर्म है।

(अपने ब्लॉग्स में मैंने दोनों ही सन्दर्भों के स्रोत को भी उद्धृत किया है, जिसे खोज पाना अभी मेरे लिए कठिन है।)

भारत जैसे धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विभिन्न मतावलंबियों की श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा या आस्था (faith) को ही उनका अपना अपना धर्म (Religion) माना गया है और इस प्रकार से सनातन धर्म के विविध रूपों जैसे जैन, सिख, और बौद्ध मत को एक दूसरे से भिन्न भिन्न मत / धर्म / मजहब / Religion के रूप में मान्य किया गया है । इसका एक सर्वाधिक भयावह परिणाम यह हुआ है, कि हिन्दू परम्परा, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा या आस्था (faith) को, जो मूलतः सनातन धर्म पर ही आश्रित है, इन विविध रूपों में भिन्न भिन्न 'धर्मों' के रूप में मान्यता दे दी गई, जिससे कि न केवल वे ही अपनी जडों से कट गए, बल्कि 'हिन्दू धर्म' नामक एक नई अवधारणा का जन्म भी हुआ। इस प्रकार सनातन-धर्म पर आधारित हिन्दू परम्परा, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा या आस्था भी कई रूपों में खंडित हो गए।

धर्म की राजनीति करनेवालों को इससे अच्छा मौका और कहाँ मिल सकता था!

विभिन्न मतावलम्बी एक दूसरे के मत की निन्दा और आलोचना तो करते ही थे, और इतना ही नहीं मजाक उड़ाने का मौका तक हाथ से नहीं जाने देते थे। स्थिति यहाँ तक आई कि ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किए जाने को भी भावनाओं पर आघात किए जाने के नाम के बहाने से, किसी मत के पूज्य और आदरणीय महापुरुष या व्यक्ति का अपमान किया जाना कहा जाने लगा।

ऐसी स्थिति में सनातन-धर्म को माननेवाले किसी भी व्यक्ति का यह कर्तव्य और दायित्व भी है कि वह ऊपर दिए गए श्लोक की कसौटी पर अपनी वाणी की मर्यादा की रक्षा स्वयं ही करे, और न केवल अपने लिए, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए भी किसी संकट का कारण न बन जाए। यदि सदैव इस मर्यादा का ध्यान रखा जाता, तो ऐसी स्थिति निर्मित ही न होती, जिससे विभिन्न मतावलम्बियों के बीच वैमनस्य पैदा होता। क्योंकि मर्यादा की इस लक्ष्मण रेखा की अवहेलना करने का मूल्य व्यक्ति-विशेष को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र को ही महान क्षति के रूप में चुकाना होता है।  

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ज्ञानं परमगुह्यं

अन्वय-व्यतिरेक

(चतुःश्लोकी भागवतम्)

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अन्वय :

ज्ञानं परमगुह्यं मे यत् विज्ञान-समन्वितम् ।।

स-रहस्यं तत्-अङ्गं च गृहाण गदितं मया।।१।।

यावान् अहं यथा-भावः यत्-रूप-गुण-कर्मकः।।

तथा एव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मद्-अनुग्रहात्।।२।।

अहं एव आसम् अग्रे न अन्यत् सत्-असत्-परम्।।

पश्चात् अहं यत् एतत् च यः अवशिष्येत सः अस्मि अहम्।।३।।

ऋते-अर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत च आत्मनि।।

तत् विद्यात् आत्मनः मायां यथा आभासः यथा तमः।।४।।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषु उच्च-अवचेषु अनु।। 

प्रविष्टानि-अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेषु अहम्।।५।।

एतावत् एव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुना-आत्मनः।।

अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।६।।

एतत्-मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।। 

भवान् कल्प-विकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्।।७।।

***

श्रीभगवानुवाच - हे ब्रह्मन्! मेरा जो परम गूढ-गोपनीय ज्ञान है, जो विज्ञान (विवेक अर्थात् भक्ति) से युक्त है, उसके रहस्य और उसके साधन को मैं तुम्हारे लिए कहता हूँ, सुनो! ---१

मेरे जितने रूप और भाव हैं, अर्थात् जो मेरा संपूर्ण स्वरूप और सत्ता है, जो रूप, गुण और कर्म हैं, मेरे अनुग्रह से उनके तत्त्व के साथ तुम उन्हें यथावत् विज्ञान सहित जानो। ---२

सत् और असत् से भी विलक्षण मैं ही सर्वथा सबसे पूर्व पहले, परम और प्राक्-तन था, और व्यक्त-अव्यक्त अस्तित्व की सृष्टि के पश्चात् जो हुआ, मैं ही हूँ और जो अवशिष्ट (भव्य, भावी) है, वह भी मैं ही हूँ। ---३

आत्मा में ही, जो कुछ भी अर्थ से रहित या अर्थपूर्ण भी प्रतीत होता है, उसे भी आत्मा की माया और आभासमात्र, जैसा कि अन्धकार, तमोरूपी ही जानो। --- ४

(अन्धकार केवल आभासी होता है, न कि कोई विद्यमान वस्तु और वास्तविकता, किन्तु उसके विषय में मान्यता के द्वारा ही भूल से उसे अस्तित्वमान मान लिया जाता है। --- ४)

जैसे पञ्च-महाभूत, स्थूल एवं सूक्ष्म आदि अन्य समस्त उच्चतर एवं उच्च आदि अन्य चराचर भूतों में प्रकट और अप्रकट रूप से विद्यमान, प्रविष्ट और अप्रविष्ट होते हैं, -मैं उनमें उस प्रकार से प्रविष्ट और अप्रविष्ट नहीं हूँ। --- ५

आत्मा के तत्त्व को जानने के जिज्ञासु के लिए जानने के योग्य केवल इतना ही है, और उसे चाहिए कि वह अन्वय-व्यतिरेक के उपाय से उस अविनाशी आत्मा को जो सर्वत्र और सदा है, इस रीति से जान ले। --- ६

इस परम श्रेष्ठ मत (साधन) से समाधि में निमग्न होकर, उसमें दृढ हो रहो, और तब तुम फिर कभी संकल्प-विकल्पों आदि से  मोहित नहीं होगे । --- ७

***

टिप्पणी :

1. भागवतम् में श्रीभगवान् के इन वचनों से सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की महिमा वेदों से भी अधिक क्यों है। 

ऋग्वेद (मण्डल १० /१२९) नासदीय सूक्तम्* में यही जिज्ञासा की गई है कि जब न तो सत् था, न असत् ही था, व्यक्त-अव्यक्त से पूर्व क्या था?

(ऋग्वेद मण्डल १० / १२९)

भागवतम् में श्लोक ३ में इसी का उत्तर दिया गया है। 

2. अन्वय-व्यतिरेक का मर्म और व्यावहारिक प्रयोग करने के लिए भगवान् श्री शङ्कराचार्यकृत :

"निर्वाण-षटकम् स्तोत्रम्" 

से बढ़कर सहायक और सरल कुछ और शायद ही कहीं हो। इसका पाठ करते हुए अनायास ही अन्वय-व्यतिरेक का साधन भी हो जाता है। 

***

।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु।। 






 



यावान् अहं यथाभावः यत्-रूप-गुण-कर्मकः । 

Sunday 5 June 2022

चतुःश्लोकी भागवतम्

बीस पच्चीस साल पहले जब यह स्तोत्र पढ़ा था तब इस पर ध्यान नहीं गया था कि यदि इस स्तोत्र में कुल ७ श्लोक हैं, तो :

"चतुःश्लोकी भागवतम्" 

नाम क्यों दिया गया! 

एक संभावना यह है कि प्रथम और द्वितीय श्लोक इस स्तोत्र की भूमिका के रूप में और अंतिम श्लोक उपसंहार के रूप में रखा गया हो! 

--

श्रीभगवानुवाच 

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।।

सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया।।१।।

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।। 

तथैव तत्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्।।२।।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्।।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।३।।

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।। 

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः।।४।।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।५।।

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः।।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा।।६।।

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।।

भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्।।७।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां द्वितीयस्कन्धे भगवद्ब्रह्मसंवादे चतुःश्लोकी भागवतम् समाप्तम्।।

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इसका अन्वय और अर्थ, - अगले पोस्ट में!

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Saturday 4 June 2022

स्वयंवरा

इतिहास से अब तक 

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वैदिक परंपरा में नारी का सम्मान और उसकी इच्छा के अनुसार अपना स्वामी या जीवन-साथी चुनने का उसका अधिकार सदैव से स्वीकार्य रहा है। जहाँ कुछ नारियों ने माता-पिता की इच्छा का आदर करते हुए अपने चुने हुए वर का वरण किया, उसे भी स्वयंवर ही माना गया।

जहाँ तक पुरुष की बात है, एक ही पुरुष का अनेक स्त्रियों ने स्वेच्छया वरण किया, तो द्रौपदी जैसे भी अपवाद हैं, जहाँ कि परिस्थितिवश एक स्त्री ने अनेक पुरुषों का वरण किया। इसके मूल में यह वैदिक सिद्धान्त था कि विवाह का प्रयोजन है वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखा जाए। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था होने पर ही वर्णाश्रम धर्म का पालन संभव हो सकेगा।

किसी स्त्री की तुलना में पुरुष के लिए तपस्या और संन्यास का मार्ग अपनाना सामाजिक व्यवस्था में स्वाभाविक समझा जाता है, किन्तु यदि कोई स्त्री इस मार्ग का अवलंबन करना चाहे तो प्रकृति स्वयं ही इसमें उसके लिए अवरोध खड़े करती है। स्त्री के लिए संतान के प्रति ममता, उसकी उत्पत्ति और लालन-पालन प्रकृति-प्रदत्त उपहार है, जबकि पुरुष के लिए स्त्री और संतानों की रक्षा करने का दायित्व भी ऐसा ही प्रकृति-प्रदत्त कर्तव्य है।

यह संभव है कि किसी मनुष्य में अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति अधिक आग्रह हो और किसी में कम। विवाह कर लेने के पश्चात् भी कुछ मनुष्य संतान-हीन रह जाते हैं, जबकि कोई भी मनुष्य विवाह किए बिना भी संतानोत्पत्ति कर सकता है, क्योंकि विवाह प्रकृति-प्रदत्त कर्तव्य या दायित्व न होकर सामाजिक या व्यवस्था के अनुसार तय किया जानेवाला कार्य है। 

इसलिए बाल-विवाह प्रकृति और वैदिक वर्ण आश्रम व्यवस्था में स्वीकृत रहा है क्योंकि बाल-अवस्था में मनुष्य ही नहीं, और भी सभी प्राणी स्वाभाविक रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। युवा होने पर ही उन्हें संतानोत्पत्ति करने की क्षमता प्राप्त होती है और यह कार्य केवल प्रजा की वृद्धि करने के लिए किया जाने वाला आवश्यक कर्तव्य है, न कि स्वच्छंद कामोपभोग करने का साधन। गीता अध्याय ७ में यही कहा गया है :

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।। 

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।

दूसरी ओर यही काम जीवन के चार पुरुषार्थों -- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से भी एक है।

धर्म का रूप है वर्णाश्रम धर्म का आचरण करना।

और स्वाभाविक रूप से यही उचित भी है कि युवावस्था प्राप्त होने से पूर्व मनुष्य काम-चिन्तन न करे। इसके बाद युवावस्था में भी मर्यादापूर्वक ही कामोपभोग करे।

न जातु काम कामानामुपभोगेन शाम्यते।।

वह्निका कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्धते।।

(महाभारत)

अर्थात् जैसे अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त तो नहीं होती बल्कि और भी तेज हो जाती है, वैसे ही, जितना अधिक कामो-पभोग किया जाता है, कामोपभोग की लालसा सदैव बनी ही रहती है और, और भी अधिक उग्र तथा प्रबल होकर मनुष्य को अनिष्ट परिणामों की ओर ले जाती है। इससे तो पशु पक्षी आदि  ही मनुष्य से अधिक विवेकशील और समझदार दिखलाई पड़ते हैं, जो कि ऋतु आने पर ही केवल संतान की उत्पत्ति करने के लिए ही संयमपूर्वक कामोपभोग में रत होते हैं।

यदि किसी मनुष्य में बचपन से ही काम-विषयक विकारात्मक कल्पनाएँ न उठें और उसकी मानसिकता ही उच्चतर भावनाओं से पूर्ण हो, तो संभव है कि युवा होने तक उसे काम की मर्यादा और महत्व का आभास हो जाए और वह काम-लालसा से ग्रस्त ही न हो। उसे यही प्रतीत हो कि मन, और इन्द्रियों को संयम में रखना अधिक आवश्यक है। उसके लिए काम मजाक, उपहास, घृणा या निन्दा का विषय नहीं होगा, न ही अनावश्यक उत्सुकता या कौतूहल का। यह सब आज के हमारे समय में अविश्वसनीय और अकल्पनीय सा ही जान पड़ता है किन्तु यही वह एकमात्र उपाय है जिससे पूरे समाज के लिए इस समस्या का निदान हो  सकता है।

इसलिए जहाँ पुरुष अविवाहित रहकर आध्यात्मिक खोज और ईश्वर की प्राप्ति के लिए जहाँ अपना मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र होता है, वहीं स्त्री के लिए इतने अधिक सामाजिक बन्धन और बाधाएँ होती हैं कि उसे अपना मार्ग चुनने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

स्त्री परमात्मा को ही अपना पति मान सकती है, जैसे कि कुछ स्त्रियाँ कृष्ण को मानती हैं। यद्यपि वे इसे प्रकटतः व्यक्त न भी कर सकती हों, क्योंकि ऐसा करने पर उस पर भी समाज के स्वघोषित कर्णधार आपत्ति उठा सकते हैं। और ऐसी ही स्थिति में कोई स्वयंवरा अपने आपसे ही विवाह रचाने की कल्पना कर सकती है। यह अवश्य ही अपनी ही आत्मा का वरण करने का एक प्रकार हो सकता है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो

न मेधया न बहुना श्रुतेन।। 

यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-

स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्।।२३।

(कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली २)

यही मंत्र मुण्डकोपनिषद् ३-२-३ में भी पाया जाता है।

इसलिए स्वयंवर (sologamy) तो स्त्रियों का जन्मसिद्ध अधिकार ही है यह कहना अनुचित न होगा। 

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Thursday 2 June 2022

हिन्दुत्व का भविष्य

इस मोड़ से जाते हैं !

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हिन्दुत्व : दिशा और दशा

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योऽपि सेवते मद्यं स विनश्यत्येवेति निश्चयः।। 

अपि यो न सेवते मूढो सोऽपि विनश्यति तथा ।।

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जो मनुष्य मदिरापान करता है, उसका विनाश अवश्यम्भावी है।  और जो मूढ मदिरापान नहीं करता, उसका भी विनाश अवश्य ही होता है।

तात्पर्य यह कि विवेकी अथवा मूढ, जो भी मदिरापान करता है, नष्ट हो जाता है। अतः विवेकवान पुरुष मदिरापान नहीं करता।

वर्तमान समय में जो हिन्दुत्व के पक्ष में हैं, और जो हिन्दुत्व के  विरोधी हैं, उन दोनों ही पर यह उदाहरण लागू होता है। 

क्योंकि हिन्दुत्व कोई --

राजनीतिक विचारधारा / Political Ideology

कदापि नहीं है, और न इसे कभी ऐसा बनाया जा सकता है। 

हिन्दुत्व कोई पंथ (faith, religion) भी नहीं है। 

हिन्दुत्व कोई भाषा तो कदापि नहीं है।  

हिन्दुत्व एक सामाजिक, साँस्कृतिक और यहाँ तक कि क्षेत्रीय या राष्ट्रीय पहचान भी अवश्य हो सकता है, किन्तु जैसे ही इसे एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत और स्वीकार कर लिया जाता है, वैसे ही यह इसके पक्षधरों और विरोधियों दोनों ही के लिए गले की ऐसी हड्डी बन जाता है जिसे न ही उगला जा सकता है और न ही निगला जा सकता है। और यह कोई मत या विचार नहीं, भारत के समूचे अतीत का अत्यन्त कटु और जीता जागता तथ्य है। 

फिर भी जो लोग हिन्दुत्व को भारतवर्ष की राष्ट्रीय पहचान की तरह स्थापित करना चाहते हैं, उन्हें पहले तो इसके लिए यह तय करना, यह सुनिश्चित कर लेना होगा कि जैसे कोई राष्ट्र इस्लामी, कैथोलिक, बौद्ध, ज्यू, क्रिश्चियन या फिर नास्तिक (कम्युनिस्ट ) भी हो सकता है, उसी तरह भारत या भारतवर्ष के "हिन्दू राष्ट्र" होने पर क्या आपत्ति की जा सकती है?

दूसरी ओर, यह भी अवश्य ही, इतना ही एक और, अत्यन्त ही कठोर सत्य है, कि जैसे ही - (और यदि), भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाता है, वे सारी हिन्दुत्व-विरोधी राजनीतिक विचारधाराएँ एक-जुट हो जाती हैं, जो स्वयं को धर्म के नाम पर, और धार्मिक स्वतंत्रता के बहाने उस कवच में सुरक्षित कर लेती हैं। और न केवल विभिन्न भिन्न भिन्न मतों के मतावलम्बी ही, बल्कि साम्यवाद के पैरोकार भी हिन्दू चेतना पर पूरी शक्ति से आक्रमण करने लगते हैं।

इसलिए न सिर्फ भारत, बल्कि पूरे विश्व के भी, न सिर्फ वर्तमान, बल्कि भविष्य के हित की दृष्टि से भी यह सर्वाधिक प्रासंगिक, अत्यन्त ही महत्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न भी है कि इस विषय में हम क्या करते हैं।

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