धारणा, ध्यान, समाधि और संयम
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पतञ्जलि प्रणीत योग-सूत्र में वृत्ति-निरोध के माध्यम से दृष्टा के अनुसंधान करने के तरीके का वर्णन किया गया है।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।
इस योग-सूत्र में द्रष्टा की अवस्थिति के बारे में कहा गया है, न कि उसके वास्तविक स्वरूप के बारे में। द्रष्टा के स्वरूप के बारे में साधनपाद में यह कहा गया है :
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।
विचार, विचार के विषय और विचार करनेवाले विचारकर्ता इन तीनों में आधारभूत दृष्टा की विद्यमानता तो स्पष्ट ही है और जैसे विचार, विषय और विचारकर्ता की अनित्यता की एक पृष्ठभूमि को स्वयंसिद्ध सत्यता है वैसे ही दृष्टा ही यह सत्यता है इसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
किन्तु यह तो अनुमान हुआ, क्योंकि यह दृष्टा न तो इन्द्रियगोचर है, न ही बुद्धि या तर्क से इसकी विद्यमानता को सुनिश्चित किया जा सकता है।
इसलिए महर्षि पतञ्जलि इसे प्रत्ययानुपश्य कहते हैं।
समाधिपाद सूत्र ५ से ११ तक के अनुसार :
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपमप्रतिष्ठम्।।८।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।
अभावप्रत्यालम्बना वृत्तिर्निद्रा ।।१०।।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।११।।
प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ये ही पाँच प्रकार की प्रधान वृत्तियाँ हैं और चूँकि योग वृत्तिमात्र का ही निरोध है, अतः दृष्टा को प्रमाण से भी नहीं जाना जा सकता।
अर्थात् उसे प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम इन तीनों ही प्रमाणों से भी नहीं जाना जा सकता। और न यह आवश्यक ही है। फिर भी दृष्टा को वृत्ति के दृष्टा के रूप में नित्य विद्यमान वास्तविकता के रूप में तो मानना ही होगा। इसीलिए दृष्टा प्रत्ययानुपश्य कहा है, न कि वृत्ति के माध्यम से जाना जा सकनेवाला।
यह प्रत्यय क्या है?
प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययम्
के अनुसार जो भी प्रतीत होता है और जिसे किसी रूप में ग्रहण कर लिया जाता है वह है प्रत्यय। इसी आधार पर दृष्टा शुद्ध है, किन्तु उसे प्रत्यय के माध्यम से जाना जाता है।
ये सभी दृष्टा को परोक्षतः, परोक्ष ज्ञान के माध्यम से जानने के तरीके हुए। दृष्टा को अपरोक्षतः जानने का अर्थ है सत् और चित् एक ही सत्य के दो पक्ष हैं यह स्पष्ट हो जाना। और वही दृष्टा की वास्तविकता है।
पातञ्जल योग-सूत्र में धारणा, ध्यान, समाधि, संयम के ही साथ निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम, और समाधि-परिणाम के द्वारा निजता-रूपी आधारभूत सत्य आत्मा के अनुसन्धान करने का परोक्ष / अप्रत्यक्ष तरीका स्पष्ट किया गया है। क्योंकि यही सामान्य मनुष्य की बुद्धि की मर्यादा है।
दूसरी ओर बहुत परिपक्व और तीव्र मुमुक्षा से संपन्न साधक के लिए अपरोक्षानुभूति का तरीका भी शास्त्रों में पाया जाता है।
आधुनिक काल में भगवान् श्री रमण महर्षि ने अत्यन्त संक्षेप में इसे इस श्लोक द्वारा इंगित किया है :
हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रं
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।।२।।
(श्रीरमणगीता, अध्याय २)
श्री रमण महर्षि के ही एक अन्य ग्रन्थ उपदेश-सार में भी इसे स्पष्ट किया गया है :
मानसं तु किं मार्गणे कृते।
नैव मानसं मार्ग आर्जवात्।।१७।।
वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।
वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।।१८।।
अहमयं कुतो भवति चिन्वतः।
अयि पतत्यहं निजविचारणम्।।१९।।
(यहाँ 'अहं' पद का प्रयोग अहंकार के अर्थ में है, न कि आत्मा के अर्थ में।)
तो यह 'अहं' / अहंकार क्या है?
विवेकचूडामणि ग्रन्थ में भगवान् आचार्य श्री शङ्कर कहते हैं :
अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः।।
अवस्थात्रय साक्षी सन् पञ्चकोषविलक्षणः।। १२५।।
अर्थात् यह अहं या अहंकार वही प्रत्यय है जिसके द्वारा आत्मा / दृष्टा का परोक्ष ज्ञान होता है।
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
श्री निसर्गदत्त महाराज इसे ही इस प्रकार कहते हैं :
पाहातेपण्याच्या आत पाहात्याला पहावें।
"देखने (की गतिविधि) में देखनेवाले को देखो!"
और श्री जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में :
"The Observer is the Observed."
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