चिन्ता : एक चिन्तन
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महर्षि श्री रमणकृत सद्दर्शनम् में जिस चिन्ता का उल्लेख है, वह उस ग्रन्थ के प्रथम मङ्गल-श्लोक में इस प्रकार से है :
सत्प्रत्ययाः किं नु विहाय सन्तं
हृद्येष चिन्तारहितं हृदाख्यः।।
कथं स्मरामस्तममेयमेकम्
तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा।।१।।
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चिन्ता क्या है?
चिन्ता तो केवल एक लक्षण है, -- अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप के बारे में अज्ञान-रूपी रोग का।
जैसे आग होने पर धुँआ होना स्वाभाविक ही है, ठीक उसी तरह से, अज्ञान से ही चिन्ता नामक मानसिक स्थिति पैदा होती है।
जैसे 'सत्प्रत्यय' चिन्तारहित होना, आत्मा का स्वाभाविक धर्म और प्रकट लक्षण भी है, उसी तरह चिन्ता इसका लक्षण है कि अपनी आत्मा अभी अज्ञान-रूपी आवरण से ढँकी हुई है। चिन्ता, असंतोष ही है क्योंकि चिन्ता तभी उत्पन्न होती है, जब मन आत्मा से अन्य, किसी अनात्म और अनित्य वस्तु को सत्य मान लेता है और आत्मा को उस प्रकार से सत्य मान बैठता है।
चिन्ता के अस्तित्व में आते ही, होनेवाला या किया जानेवाला कोई भी कर्म उस असन्तोष को और तीव्र करता है। असन्तोष स्वयं ही अपने-आपमें आत्मा के सत्य से अनभिज्ञ होने या उस सत्य के विस्मरण का परिणाम होता है, क्योंकि जिस किसी भी प्रकार से, जैसे ही असन्तोष दूर हो जाता है, चिन्ता अपने आप ही मिट जाती है, और मन अपनी सहज-अवस्था में होता है। असन्तोष भी, अनेक तरीकों से दूर हो सकता है या दूर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, नींद आ जाने पर, या किसी रोचक विषय में मन लग जाने पर। यह तात्कालिक रूप से भी हो सकता है, या अनायास भी, किन्तु इसकी पृष्ठभूमि में चिन्ता यथावत अपरिवर्तित, बनी ही रहती है।
चिन्ता प्रकटतः तो कई रूपों में हो सकती है, किन्तु उन सभी में भविष्य की कल्पना ही मूलतः आधारभूत, स्थायी तत्व होता है। भविष्य की आशा, अपेक्षा, आशंका, भय, लालसा आदि उसमें होते हैं। विचारणीय है और सभी जानते ही हैं कि जिसे भविष्य कहा जाता है वह केवल एक अमूर्त अवधारणा (abstract notion) ही होता है, न कि कोई ठोस यथार्थ। और इसलिए इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि भविष्य एक निरंतर ही बदलते रहनेवाली, अकल्पनीय और अग्राह्य ऐसी स्थिति और प्रक्रिया है, जिसका आकलन नहीं किया जा सकता। एक समय पर, किसी एक ही व्यक्ति, स्थान, विषय या वस्तु आदि के संबंध में उसका क्या भविष्य होगा, यदि इस संभावना पर ध्यान दें तो इसके असंख्य विकल्प हमारे सामने होते हैं, और उनमें से उस एक किसी को, जो वस्तुतः घटित होगा, तय करना और जान पाना शायद ही संभव होता हो। अतीत की स्मृति ही भविष्य की कल्पना का आधार होता है, और उसी आधार और सन्दर्भ से भविष्य का अनुमान और विचार किया जाता है, उसी कसौटी पर भविष्य का आकलन और उसके सत्य होने की संभावना तय की जाती है। यह संभावना जितनी अधिक प्रबल होती है, भविष्य भी उतना ही सुनिश्चित जान पड़ता है। शुद्धतः भौतिक घटनाओं के बारे में तो यह संभावना लगभग सौ प्रतिशत तक सही सिद्ध होती है, और अतीत के अनुभवों के आधार पर उसे सिद्ध भी मान लिया जाता है, इसे ही वैज्ञानिक रूप से प्रयोग से प्रमाणित कहा जाता है। विज्ञान ऐसे ही सत्य को खोजने और जानने का प्रयास करता है जिसे अकाट्यतः अचल अटल नियम की तरह स्वीकार किया जा सके। संक्षेप में, -- जो सदा और सर्वत्र ही, एक जैसा ही अपरिवर्तनशील होता हो, अर्थात् नित्य सत्य हो, - जिसमें कि रंचमात्र भी विचलन संभव न हो। दूसरे शब्दों में, विज्ञान किसी ऐसे ही नियम (principle) या तत्व को खोज रहा है, जो अविकारी वास्तविकता (Immutable Reality) हो। जो कि काल से प्रभावित और बाधित न हो। जिसे काल छू तक न सके। किन्तु क्या काल स्वयं ही सतत चलनशील घटना (a phenomenon, constantly in movement) नहीं है! फिर ऐसी अस्थिर, चलनशील कसौटी पर जिस सत्य को पाया जाएगा, उसकी प्रामाणिकता क्या और कितनी हो सकती है? उसकी सुनिश्चितता को असंदिग्धतः कैसे तय किया जा सकेगा?
क्रमशः --- in the next post.
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