Thursday, 1 September 2022

विधि-प्रपञ्च है या माया!

कविता : अश्वत्थः प्राहुरव्ययम्।।

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एक दीपक जल रहा, 

बिना बाती, बिन तेल, 

चिज्ज्योति में चल रहा,

विधि-प्रपञ्च का खेल!

एक वृक्ष ऐसा उगा, 

जिसका बीज न मूल,

शाखा, पत्र, असंख्य हैं,

नहि फल हैं, बस फूल!

अभी अभी है, हो रहा,

नहि था, न होगा फिर, 

यह पल जैसे जुग अनंत,

न आरंभ, न ही है अंत!

एक झूला डाल पर, 

हवा में है, डोलता,

उस पे बैठा है मनुज,

भाग्य अपना तौलता!

तराजू के पलड़े दो,

हो रहे नीचे ऊपर,

काँटा इधर से उधर,

चल रहा अस्थिर चंचल,

क्या होता है, क्या पता, 

जब दीपक बुझ जाता है, 

दृष्टा का दृश्य प्रपञ्च से,

क्या रहस्यपूर्ण यह नाता है!

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