तैत्तिरीय उपनिषद्
वल्ली - १
प्रथम अनुवाक : शान्तिपाठ
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।... अवतु वक्तारम्।।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!
यह अनुवाक शान्ति पाठ है। इसकी विवेचना पिछले पोस्ट में की गई है।
यह प्रथम अनुवाक समाप्त हुआ।
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द्वितीय अनुवाक
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शीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः। मात्रा बलम्। साम संतानः। इत्युक्तः शीक्षाध्यायः।
विवेचना :
शास् शासन करना, और शिक्ष् सीखना दोनों धातुओं से शिक्षा और शीक्षा (वैदिक प्रयोग) संज्ञा रूप बने।
समस्त शिक्षा वाणी के माध्यम से ही प्रदान और ग्रहण की जाती है। प्राकृत वाणी के प्रयोग में व्यावहारिक प्रचलन और परंपरा के अनुसार भाव एवं अर्थ को प्रकट एवं ग्रहण किया जाता है, और वह भिन्न भिन्न स्थानों पर इसीलिए भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करती है, इसलिए मनुष्य की बुद्धि की सीमा में ही उसे प्रयोग किया जा सकता है। तकनीकी दक्षता और कौशल सीखने या सिखाने के लिए वाणी के प्रयोग की अधिक आवश्यकता नहीं होती और वाणी के माध्यम से भी किसी भी भाषा में इस ज्ञान का आदान-प्रदान किया जा सकता है। किन्तु वेद अर्थात् आत्मा के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सत्य के ज्ञान को सीखने और सिखाने के लिए इन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग अपर्याप्त सिद्ध होता है। वाणी अग्नि ही है और आज के विज्ञान के मत से भी वाणी (Sound) और अग्नि (Fire) मूलतः ऊर्जा के ही दो प्रकार हैं । अंग्रेजी भाषा का 'Sound' शब्द संस्कृत शब्द 'स्वन' या 'स्वर' का ही सज्ञात (cognate) या अपभ्रंश है। इसी प्रकार 'Fire' भी 'स्फुर्' का सज्ञात (cognate) या अपभ्रंश है।
इसलिए भौतिक ज्ञान से भिन्न आधिदैविक और आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा के लिए प्राकृत भाषा(ओं) के उपयोग की एक सीमा है, और चूँकि वाणी स्वयं भी आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीन रूपों में होती है, इसलिए वाणी के देवता रूपी माध्यम की सहायता से ही उच्चतर आधिदैविक और आध्यात्मिक सत्यों की शिक्षा दी जा सकती है।
वाणी के भौतिक रूप को वैखरी कहा जाता है, जिस भाषा का प्रयोग व्यवहार में किया जाता है उसे वाक् कहा जाता है। यही वाक् विचार के रूप में मन में कार्यरत होती है। इस विचाररूपी वाणी की भाषा तो वही प्राकृत होती है जिसे कि मनुष्य व्यवहार में तथा बोलचाल में काम में लाता है। देवी अथर्वशीर्ष में इसे ही पशुओं की भाषा अर्थात् प्रकृति से प्राप्त भाषा की संज्ञा दी गई है। पश्यते पश्यति, पाशयति पाश्यते इति पशुः । पशु जो देखता है पाश में बद्ध होता है। मनुष्य की पशुओं से श्रेष्ठता इसीलिए होती है क्योंकि मनुष्य के पास मन नामक यंत्र होता है, जिसे वह बिना बोली जानेवाली भाषा के रूप में मनन के रूप में विचार के माध्यम से प्रयोग कर सकता है।
किन्तु जब तक मनुष्य भाषागत विचार के सहारे मनन करता है, तब तक वाणी का देवता जागृत नहीं होता। वाणी के देवता का आधिदैविक स्वरूप तब प्रकट होता है जब स्वर और व्यञ्जन अर्थात् वर्ण की शुद्धता स्पष्ट होती है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ण, स्वर तथा व्यञ्जन स्वयं ही देवता होता है। जैसे भरत के नाट्य-शास्त्र में संचारी भावों की संख्या / कोटि 33 है, उसी प्रकार से वाणी के देवता भी 33 कोटि के होते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है, क्योंकि ऋषियों ने इसका आविष्कार अनुसंधान किया है। इन्हीं वर्णों के समूह से मंत्रों के रूप में देवताओं के आधिदैविक तत्व को जाना गया। वर्णः स्वरः का अर्थ हुआ - वाणी के वर्ण स्वर हैं और मात्रा बलम् का अर्थ हुआ उस वर्ण के उच्चारण किए जाने के लिए जो बल (accent) लगाया जाता है, वह उस वर्ण की मात्रा (amount, strength) है । इनकी सुसंगति ही साम है। साम ही संतान, सातत्य या फल और परिणाम है। यह हुआ शीक्षाध्यायः। प्राकृत का संस्कृत में उत्परिवर्तन (mutation / evolution) ही श्रुति है। इसलिए संस्कृत तथा वेद के ज्ञान की शिक्षा वाणी के माध्यम से ही दी एवं ग्रहण की जा सकती है। इसी आधार पर, और वाणी के शुद्ध स्वरूप को सुरक्षित करने के लिए लिपि के आविष्कार से भी पहले से आचार्य और शिष्य परंपरा प्रारंभ हुई। इस विकास यात्रा के दो पक्ष हैं। एक है नागरी (या देवनागरी) तथा दूसरा है द्रविड लिपि का प्रयोग। इन दोनों ही पक्षों में इस तथ्य का ध्यान रखा गया है कि लिखी हुई (लिपिबद्ध) भाषा की शुद्धता और ध्वनिसाम्य शुद्धता समान हो। द्रविड भाषा में एक ओर तो ग्रन्थलिपि में वैदिक ज्ञान का संग्रह किया गया, साथ ही मौखिक परंपरा से भी इसकी शुद्धता सुनिश्चित की गई। संस्कृत हो या द्रविड, वाणी और उच्चारण की शुद्धता का महत्व उतना और वैसा ही है जैसे कम्प्यूटर के किसी प्रोग्राम की रचना करते समय कोडिंग-डिकोडिंग का।
संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में लिखे गए ग्रन्थों में अधोमात्रा (आड़ी लकीर, जो नीचे लगाई जाती है) और ऊर्ध्वमात्रा (खड़ी लकीर, जो ऊपर लगाई जाती है) के द्वारा स्वरित,अनुदात्त और का संकेत किया जाता है, वहीं अवग्रह के चिह्न ऽ तथा १, २, ३ आदि अंकों से भी उच्चारण की शुद्धता सुनिश्चित की जाती है।
किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि किसी आचार्य से वैदिक शिक्षा को ग्रहण किया जाना अधिक उपयुक्त है।
द्रविड या தமிழ் लिपि में यह कठिनाई इसलिए और अधिक है क्योंकि वहाँ एक ही वर्णाक्षर के एक से अधिक उच्चारण होते हैं, जबकि यह कठिनाई नागरी लिपि में नहीं होती। फिर भी नागरी लिपि में किसी सीमा तक उच्चारण को शुद्ध रखा जाना संभव है।
दूसरी ओर इसका एक लाभ यह भी है कि कोई अनधिकारी या अपात्र इस ज्ञान को न प्राप्त कर सके।
महाभाष्य में महर्षि पतञ्जलि कहते हैं --
दुष्टो शब्दो स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्।।
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