शीक्षा वल्ली
तृतीय अनुवाक
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सह नौ यशः।
सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।
अथातः स्ँ हिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः।
पञ्चस्वधिकरणेषु।
अधिलोकमधिज्यौतिषमधिविद्यमधिप्रजमध्यात्मम्।
ता महा स्ँ हिता इत्याचक्षते।
अथाधिलोकम्।
पृथिवी पूर्वरूपम्।
द्यौरुत्तररूपम्।
आकाशः संधिः।
वायुः संधानम्।
इत्यधिलोकम्।।
अथाधिज्यौतिषम्।
अग्निः पूर्वरूपम्।
आदित्य उत्तररूपम्।
आपः संधिः।
वैद्युत् संधानम्।
इत्यधिज्यौतिषम्।
अथाधिविद्यम्।
आचार्यः पूर्वरूपम्।
अन्तेवास्युत्तररूपम्।
विद्या संधिः।
प्रवचन्ँ संधानम्।
इत्यधिविद्यम्।
अथाधिप्रजम्।
माता पूर्वरूपम्।
पितोत्तररूपम्।
प्रजा संधिः।
प्रजनन्ँ संधानम्।
इत्यधिप्रजम्।
अथाध्यात्मम्।
अधरा हनुः पूर्वरूपम्।
उत्तरा हनुः उत्तररूपम्।
वाक् संधिः।
जिह्वा संधानम्।
इत्यध्यात्मम्।
इतीमा महास्ँ हिता य एवमेता महास्ँ हिता व्याख्याता वेद। संधीयते प्रजया पशूभिः। ब्रह्मवर्चसेन सुवर्गेण लोकेन।।
।।तृतीय अनुवाक।।
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अधिकरण और अधिष्ठान समानार्थी हैं। किन्तु अधिष्ठान (अधि + स्थान) स्थान का द्योतक है, जबकि अधिकरण (अधि + करण) उस कार्य का जिस स्थान पर वह कार्य होता है।
हम दोनों यशस्वी हों। हम दोनों में ब्रह्म के तेज का विस्तार और प्रसार हो। (इस संकल्प के साथ) इसलिए अब सं-हिताओं के, अर्थात् श्रुतियों के वचनों के उपनिषद् रूपी संकलन की व्याख्या (हम) करेंगे।
पूर्वरूप (fundamental),
उत्तररूप (secondary, next),
संधि (connecting thread) तथा,
संधान (content / exploration), चार तरह से पांचों में, - प्रत्येक अधिकरण (substratum) में यह कार्य होता है।
ब्रह्म कार्य भी है और अधिष्ठान भी जो पाँच अधिकरणों सहित संपन्न होता है। ये पाँच अधिकरण क्रमशः इस प्रकार से हैं :
अधिलोक, अधिज्यौतिष्, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म।
इन पांचों के एकत्रस्वरूप को महास्ँ हिता कहा जाता है।
अब अधिलोक क्या है?
पृथिवी अधिलोक का पूर्वरूप (prior) है।
द्यौ / द्युलोक (material celestial) अधिलोक का उत्तररूप (next) है।
आकाश (space / sky) उन दोनों (पूर्वरूप तथा उत्तररूप) को परस्पर संबंधित करनेवाला तत्व है।
वायु (air) उनके बीच संचरित होनेवाला संधान (अन्वेषण) है।
यह हुई अधिलोक अधिकरण की संरचना और उसमें होनेवाला कार्य ।
अब अधिज्यौतिष् या अधिज्यौतिषम् (Cosmic) :
अग्नि (Fire) पूर्वरूप है।
आदित्य (Sun) उत्तररूप है।
आप (hydrogen and oxygen in the atomic / ionic state) संधि है और,
वैद्युत (electric spark) संधान है।
यह हुआ अधिज्यौतिष् या अधिज्यौतिषम् अधिकरण।
अब विद्यारूपी (knowledge) तीसरे अधिकरण के बारे में :
आचार्य (teacher) अधिविद्य अधिकरण का पूर्वरूप है।
अन्तेवासी (disciple), अर्थात् उसके आश्रम में उससे विद्या ग्रहण करने का अभिलाषी उत्तररूप है।
विद्या संधि (connecting link) है, जो आचार्य को विद्यार्थी से संबंधित करती है।
प्रवचन (exposition) संधान / अन्वेषण है।
यह हुआ अधिविद्य अधिकरण हुआ।
अब अधिप्रज (प्रजा की उत्पत्ति और वृद्धि) :
माता पूर्वरूप है।
पिता उत्तररूप है।
प्रजा (संतति) संधि है।
प्रजनन (संतान की उत्पत्ति का कार्य) संधान है।
यह अधिप्रज अधिकरण हुआ।
अब अध्यात्म अधिकरण :
अधरा हनु - मुख का निचला अंग, जबड़ा (Jaw), पूर्वरूप है।
उत्तरा हनु - मुख का ऊपरी अंग, जबड़ा (Jaw), उत्तररूप है।
वाक् (voice) संधि है।
जिह्वा (tongue) संधान है।
यह अध्यात्म (spiritual) अधिकरण हुआ।
यही ये पाँच अधिकरण ये पाँच महासंहिताएँ हैं जिनकी व्याख्या यहाँ की गई, उन्हें जानो / जो जानता है, -उसे प्रजा और पशुओं का स्वामित्व प्राप्त होता है। वह अन्न आदि संपत्ति और समृद्धि से सुखी होकर उत्तम लोकों की प्राप्ति करता है।
तैत्तिरीय उपनिषद् की प्रथम वल्ली, शीक्षा वल्ली का यह तृतीय अनुवाक पूर्ण हुआ।
।। इति शं ।।
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