बहुत समय के बाद अन्ततः,
मुझे यह समझ में आया कि मेरे साथ क्या गलत है! या, इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मेरे जैसे कुछ इने गिने लोगों को छोड़कर बाकी सारे लोगों के साथ क्या कुछ ऐसा है जो 'अलग' है!
क्योंकि तब उसे 'गलत' कहना भी शायद ठीक / सही नहीं होगा। इसलिए उसे यहाँ मैं 'अलग' कह रहा हूँ।
मैं मानता हूँ कि बिलकुल बचपन से ही, मैंने कभी किसी से जुड़ना ही नहीं चाहा। यहाँ तक कि जरूरत की वजह से किसी के साथ रहना पड़ा लेकिन उसकी वजह भी बस मजबूरी ही थी, न कि स्वाभाविक जुड़ाव या लगाव।जैसा कि प्रायः लोगों में अपने जैसी रुचियों, जरूरतों और समान परिस्थितियों की वजह से आपस में लगाव हो जाता है, और वे जिस तरह उस लगाव में कर्तव्य, अधिकार, अपराध या ग्लानि के बोध को अनुभव करने लगते हैं, मैंने दूसरों के साथ अपने संबंधों में वैसा कुछ कभी अनुभव नहीं किया। मैं हमेशा ही बिल्कुल अकेले रहना पसंद करता था। वैसे, लोगों के साथ रहने से भी मुझे कोई परेशानी भी कभी नहीं होती थी, और अपने समुदाय में अपरिचित या परिचित लोगों से तालमेल या मेलजोल कर पाने में भी कभी कोई मुश्किल नहीं महसूस होती थी। किन्तु किसी भी स्थिति में मैं किसी से घनिष्ठता या अंतरंगता अनुभव नहीं कर पाता था। हाँ सुन्दर और आकर्षक स्त्रियों का साथ मुझे प्रिय अवश्य था किन्तु मुझे नहीं पता कि किस प्रकार की और कौन सी स्त्रियाँ मेरा साथ पसन्द या नापसन्द करते होंगी। और संयोग से मेरी कोई ऐसी स्त्री-मित्र भी कभी नहीं रही, जिसके साथ मुझे एकान्त में प्रेमालाप करने का अवसर कभी मिला हो। हाँ कभी हँसी मजाक आदि के कुछ अवसर भी अवश्य आए किन्तु उस समय दूसरे लोगों के बीच सामाजिक शिष्टाचार की मर्यादा का ध्यान तो रखना ही होता था। यह सब मुझे कभी कठिन प्रतीत नहीं हुआ। और अपने कार्यस्थल पर जिन लोगों के साथ रहना पड़ा उनमें सभी प्रकार के लोग थे ही। और वे सभी लोग भिन्न भिन्न प्रकार से भिन्न भिन्न स्थितियों में व्यवहार करते थे। कभी कभी झगड़े या मारपीट तक की स्थिति बन जाती थी, किन्तु उस हद से आगे कभी नहीं गई। मेरे ताकतवर न होने के बावजूद भी मैं उन स्थितियों से जैसे तैसे सुरक्षित बाहर निकल आया करता था। किन्तु वह एक बिलकुल अलग बात है। और अन्यत्र मैं अकसर ही बहुत स्वतंत्र अनुभव करता था। न किसी सहारे की और न कोई और जरूरत महसूस होती थी न ऐसी उम्मीद ही मुझे होती थी। उदाहरण के लिए वर्ष 1986 के होली के अवसर पर मैं सोमनाथ की यात्रा पर था और वेरावल में श्रीनिवास या कुछ इससे मिलते जुलते नाम वाली किसी लॉज में रुका था। सुबह उठते ही चाय नाश्ता करने के लिए सामने रोड के पार की गुमटीनुमा एक दुकान पर चला गया था। चाय नाश्ता कर लौटा तब सुबह के नौ बजे रहे थे। मैं जिस ऊपरी मंजिल पर रुका था वहाँ मेरे जैसे लगभग आठ दस और पलंग थे। लगभग सभी खाली थे। एक साधु भी उस हॉल में रुका हुआ था। मैं बाहर जाने के लिए तैयार था कि अचानक बाहर शोरगुल होने लगा। मैंने खिड़की से देखा तो उसी दुकान में आग लगी हुई थी। थोड़ी ही देर बाद विस्फोट की आवाजें आने लगें तो किसी ने कहा कि आग में टी वी फूट रहे हैं। वहीं, जहाँ पर पाँच मिनट पहले ही मैंने चाय नाश्ता किया था। उस समय भी जब मैंने उस दुकान पर दो तीन टी वी देखे थे तो मुझे आश्चर्य हुआ था, क्योंकि तब मेरी इतनी हैसियत और जरूरत भी नहीं थी कि मैं एक भी टी वी खरीद सकता था। दोपहर ग्यारह - बारह बजे के आसपास उस लॉज के मालिक ने दो तीन कर्मचारियों के साथ लोहे के रॉड्स वगैरह इकट्ठा कर लिए थे। वह साधु इस सबसे बेफिक्र होकर उससे पूछ रहा था कि खाने के लिए उसे क्या मिल सकता है। मैंने लॉज के मालिक से स्थिति के बारे में पूछा तो वह बोला - "हालात और खराब होनेवाले हैं, बेहतर होगा अगर आप जल्दी से जल्दी यहाँ से निकल जाओ!" तो मैंने भी अपना बैग उठाया और वहाँ से निकल पड़ा। उस टी वी वाली दुकान से थोड़ा आगे चौराहे पर पहुँचा ही था, कि वहाँ मौजूद पुलिसवाले ने लाठी फटकारते हुए मुझसे गुजराती भाषा में पूछा "कहाँ जा रहे हो?" मैंने सहमते हुए हिन्दी में कहा "यहाँ लॉज में रुका था, वहाँ उसने मुझसे कहा कि जल्दी से स्टेशन चले जाओ, यहाँ हालात ठीक नहीं है।" पुलिसवाले ने अपना डंडा उठा कर चीखकर मुझसे कहा "भाग जा!" और मैं भागकर वहाँ से जैसे तैसे स्टेशन पहुँच गया। जल्दी ही राजकोट जाने के लिए गाड़ी मिल गई। और भक्तिनगर स्टेशन पर शाम को पहुँच गया। उन दिनों मैं उसके ही सामने स्थित एक कॉलोनी में एक कमरे में किराए से रहता था।
कहने का मतलब यह कि मुझे कभी किसी से जुड़ाव होता ही नहीं था। उन दिनों मैं स्वामी विवेकानन्द की किताबें पढ़ता था और आचार्य रजनीश की किताबों की ओर आकर्षित था। उनके विचारों से मैं राजी तो था किन्तु तब तक स्वामी विवेकानन्द और उनकी शिक्षाओं के बीच के द्वंद्व से मुक्त नहीं हो पाया था। चूँकि मैं विवाह के फंदे में नहीं फँसना चाहता था और न ही किसी लड़की को तथाकथित मुक्त प्रेम के धोखे में रख सकता था इसलिए भी मेरे लिए इस "अनुभव" से गुजर पाना आसान ही था। मेरे उस समय के दूसरे मित्रों के लिए इस तरह की कोई समस्या नहीं थी। बस एक दो मित्र ही ऐसे थे जिन्होंने पता नहीं किस कौशल से स्वामी विवेकानन्द और आचार्य रजनीश की शिक्षाओं के बीच एक गजब का संतुलन और तालमेल साध रखा था और इसलिए मैं मजाक में उन्हें साधु, और वे मुझे पाखंडी कहा करते थे। एक बात यह भी थी कि मेरे व्यक्तित्व में डरपोक और तथाकथित नैतिक किस्म का एक दब्बूपन भी था, जिसके कारण भी मुझे वे पाखंडी समझते थे। और मैं उन्हें यह नहीं समझा सका कि मैं क्यों और कैसे उनसे कुछ अलग हूँ। उनका समाज और किसी न किसी से, या बहुत से लोगों से लगाव और जुड़ाव था जबकि मुझमें ऐसे किसी प्रकार के लगाव या जुड़ाव से जुड़ने की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी। अभी तक मैं यह भी तय नहीं कर सका था कि स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम और यौन संबंधों के बीच की सीमा-रेखा कहाँ और क्या है, और उस समय के सामाजिक परिवेश में इसे समझ पाने के लिए उपयुक्त वातावरण भी मुझे उपलब्ध नहीं था। कुल मिलाकर मैं बस राजकोट स्थित श्रीरामकृष्ण मठ में जाकर सुबह शाम और रविवार या छुट्टी के दिन भी ध्यान किया करता था, जो कि मेरे बैंक के रास्ते में पड़ता था। राजकोट तब एक खूबसूरत शहर था और मेरा वहाँ कोई परिचित न होने से मेरे दिन बहुत अच्छे से गुजर रहे थे। 1986 और 1987 मैंने वहीं गुजारे। और 1988 और 1989 सूरत में, जो उतनी ही एक बदसूरत जगह थी / है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि समाज और "दूसरों" पर मेरी निर्भरता कम से कम होती चली गई और चूँकि मेरे हृदय में यह बात अच्छी तरह से बैठ गई कि सभी और हर प्रकार के ही संबंध स्मृति में और स्मृति पर ही निर्भर केवल मानसिक अस्थिर और अस्थायी अवस्थाएँ मात्र हैं इसलिए भी मैं यह समझने की चेष्टा करने लगा कि क्या स्मृति पर निर्भर संबंधों को सदा निभाया जा सकना संभव भी है! और इसीलिए मैं सोचने लगा कि मेरे लिए संसार की किसी वस्तु, व्यक्ति, विचार या सिद्धान्त, आदर्श, और काल्पनिक भगवान आदि से जुड़ाव या लगाव हो या कर पाना असंभव है।
इसकी एक और दूसरी वजह यह भी थी और मुझे स्पष्ट हो गया था कि जब किसी से भी मेरा संवाद तक नहीं हो सकता, तो जुड़ाव या लगाव होना तो बहुत ही दूर की बात है।
यहाँ से मेरा जीवन बहुत बदल गया। अब किसी भी से परिचय होने पर मेरे मन में यह प्रश्न उठने लगा कि वह कौन सी वस्तु है जो कि हम दोनों को परस्पर जोड़ती है, और उस वस्तु के अभाव में संबंध और संवाद के लिए क्या आधार हो सकता है। इतना समझ में आ जाने के बाद से अब मेरा किसी से न तो लगाव और न जुड़ाव हो पा रहा है।
इस समझ के उत्पन्न के बाद,
अष्टावक्र गीता के ये दो श्लोक मेरे लिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं -
जनक उवाच -
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कथं ज्ञानमवाप्नोति
कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्त-
मेतद् ब्रूहि मे प्रभो।।१।।
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अष्टावक्र उवाच -
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मुक्तिमिच्छसि चेत्तात-
विषयान्विषवत् त्यज।
क्षमार्जवदयातोष-
सत्यं पीयूषवद्भज।।२।।
Then This Happened
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