Friday, 27 June 2025

The Apparent and The Virtual

व्यावहारिक, आभासी और पारमार्थिक

महर्षि पतञ्जलिकृत योगदर्शन 

साधनपाद

के अन्तर्गत अष्टाङ्गयोग / अर्थात् योग के आठ अङ्गों में जिन पाँच सार्वभौम महाव्रतों का उल्लेख यम के रूप में है, उनमें से सत्य का स्थान अहिंसा के बाद आता है -

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-समाधयोऽष्टावङ्गानि।।२९।।

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।३०।।

क्योंकि अहिंसा परमो धर्मः।।  के अनुसार धर्म मूलतः आत्मा का ही स्वभाव है। कोई भी अपने आपके प्रति हिंसक नहीं हो सकता यह एक ऐसा स्वाभाविक सत्य है जिसे अनायास ही हर कोई न केवल जानता और मानता ही है, बल्कि इसका पालन और अनुसरण भी किया करता है और किसी के भी इसके विरुद्ध जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। इसलिए सत्य क्या है इस विषय में कितने ही मत मतान्तरित हों, इसे सभी सहमत हैं कि स्वयं के प्रति की जानेवाली हिंसा "अधर्म" ही है और इस बारे में किसी का भी किसी से कोई मतभेद नहीं हो सकता है।

इसलिए सत्य नामक जिस वस्तु को जिन तीन रूपों में ग्रहण किया जा सकता है वे सभी के लिए और सभी के संबंध में  व्यावहारिक, आभासी या प्रतिभासिक और पारमार्थिक यही तीन संभव प्रकार हो सकते हैं।

व्यावहारिक अर्थात् जिसे प्रयुक्त किया जा सकता हो - प्रयोज्य या Practical, आभासी अर्थात् जैसा प्रतीत होता हो - आभासी, प्रतिभासिक या  apparent / virtual, और -

पारमार्थिक  (Transcendental, Absolute, Timeless) - जो सदा और सर्वत्र ही विद्यमान और उपलब्ध हो, जिसका निषेध या खण्डन नहीं हो सकता :

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)

संसार को और संसार में अपने आपको संसार से भिन्न एक व्यक्ति विशेष की तरह अनुभव करना द्वैतानुभव है, जिसमें भिन्न भिन्न अनुभवों का सतत ही आगमन और प्रस्थान होता रहता है। इस सबकी पृष्ठभूमि में अवश्य ही किसी ऐसे तत्त्व की मान्यता स्वीकार की जाती है जो कि इन सतत परिवर्तनशील अनुभवों के आने और जाने के बीच अपरिवर्तित रहता है, और उसे ही "मैं" कहा जाता है। अगर थोड़ा ध्यानपूर्वक देखें तो विचार के रूप में यह "मैं" भी अन्य सभी विचारों से विलक्षण पुनः एक विशिष्ट विचारमात्र ही होता है और इस विचार का आगमन और प्रस्थान भी पुनः पुनः होता रहता है।

सभी विचारों और इस विशिष्ट विचार "मैं" के आने जाने को जिस चेतना  में जाना जाता है, वह निर्विचार और निर्विशेष अस्तित्व ही वह नित्य विद्यमान अपरिवर्तनशील और अविकारी (Immutable) अद्वैत वास्तविकता है जिसमें अपने व्यक्ति या इससे भिन्न कुछ और होने की कल्पना तक का अभाव होता है। किन्तु अपने आपके व्यक्ति-विशेष होने की कल्पना के उठने के बाद ही "मैं" / स्वयं को तो

अनुभवकर्ता के रूप में अपरिवर्तनशील

और सतत आते जाते रहनेवाले समस्त

उन परिवर्तनशील, अनेक और भिन्न भिन्न प्रतीत होते रहनेवाले 

अनुभवों, विचारों, भावनाओं और दृश्यों / घटनाओं (जो काल और स्थान पर अवलंबित होते हैं और इसलिए वे अनित्य भी हैं यह भी स्पष्ट है,) आदि का दृष्टा या साक्षी मान लिया जाता है।

इस प्रकार अपने "मैं" या "स्वयं" के एक व्यक्ति-विशेष होने की कल्पना तो नहीं, बल्कि यह स्मृति सत्य प्रतीत होने लगती है और उसी स्मृतिरूपी केन्द्र के इर्द गिर्द घूमते रहनेवाला व्यक्तिगत अस्तित्व या व्यक्ति ही संसार में फिर भी इस संसार से किसी रूप में बहुत भिन्न, पृथक् और स्वतंत्र कुछ जान पड़ता है। शायद ही इस विडम्बना और विरोधाभास से पूर्ण मान्यता पर किसी का ध्यान जा पाता है। सामान्यतः तो हर कोई स्वयं ही अपने को और अपने संसार को दो भिन्न वस्तुओं की तरह मानता हुआ स्वयं और स्वयं के संसार के बीच सतत ही सामञ्जस्य और तालमेल स्थापित करने के प्रयास में व्यस्त रहता है।व्यस्त और त्रस्त भी।

यदि कहें कि इस ब्लॉग का लेखक भी इस विडम्बना का शिकार था तो ऐसा कहना गलत न होगा।

बहुत समय तक 

"What it's all about! "

पर ध्यान देने और इस बारे में 

श्री रमण महर्षि,

श्री जे कृष्णमूर्ति और 

श्री निसर्गदत्त महाराज 

के साहित्य का अध्ययन करने के उपरांत ही लेखक के तथाकथित ज्ञान पर से अज्ञानरूपी वह आवरण दूर हो सका जिसने कि "सत्य" को आवरित कर रखा था। और फिर

महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन, उपनिषदों और श्रीमद्भगवद्गीता

के साथ साथ

अपरोक्षानुभूति, और विवेक-चूडामणि

जैसे ग्रन्थों के अध्ययन से यह समझ दृढ हुई कि इन सब में विद्यमान समान तत्व / सत्य क्या है!

तब मेरे मुख से अनायास ही ये शब्द निकले :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाऽच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।७३।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८)

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