कट्टरतावाद की चुनौती
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'अड़ियल' शब्द का साम्य वैसे तो संस्कृत भाषा के "अदमन्तः" अर्थात् अदम्य / दुर्दम्य / दुर्दान्त में देखा जा सकता है । अंग्रेजी के 'adamant' में तो यह और भी अधिक स्पष्ट है, क्योंकि 'adamant', 'अदमन्त' शब्द का ही सज्ञात / सजात / सजाति / cognate भी है।
इसी 'adamant' / 'अदमन्त' शब्द का हिन्दी और अपभ्रंश / aberration है 'अडियल'!
भाज्य के एक प्रख्यात नेता और भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था :
"दुनिया झुकती है, -झुकानेवाला चाहिए।"
उनका यह नीतिवाक्य प्रसिद्ध ही है। किन्तु इसके राजनीतिक, कूटनीतिक निहितार्थ, और दूरगामी परिणाम अनेक हैं, जिनमें से कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हिंसा एवं कट्टरता की बुनियाद पर रची गयी यह राजनीतिक विचार-धारा धर्म का दुरुपयोग भी इसी प्रयोजन के लिए करती है और इसमें उसे सफलता भी मिलती है, फिर चाहे वह अल्पकालिक हो या दीर्घकालिक, क्योंकि संसार में सब कुछ अस्थायी ही होता है। स्थायी जैसा कुछ होता ही कहाँ है। किन्तु कट्टरता-वाद स्थायी और अस्थायी की दृष्टि से नहीं, तात्कालिक आवश्यकता और सफलता के आधार पर ही अपनी दीर्घकालीन योजना बनाता है। इसमें मनुष्य तो केवल यंत्र होता है, जिसे भय-प्रलोभन और उन्माद से सतत प्रेरित किया जाता है, और विडम्बना, दुर्भाग्य यह है कि इस कट्टरतावाद की बुनियाद किसी साम्प्रदायिक / धार्मिक / आध्यात्मिक विचार आदर्श पर भी रखी गई हो सकती है। तब मनुष्य के पास इसकी कोई संभावना शेष नहीं रह जाती है कि वह इस चुनौती का प्रत्युत्तर कैसे दे ।
तब युद्ध में एक ओर एक अकेला मनुष्य होता है, तो दूसरी ओर कट्टरतावाद। नीति, आदर्श, नैतिकता, आदि सभी दूसरे कारक नपुंसक हो जाते हैं।
"अन्धेन नीयमानाः एव अन्धाः"
या,
"अन्धा अन्धे ठेलिया दोऊ कूप पड़न्त"
आदि उक्तियों / उदाहरण से भी इसे समझा और समझाया जा सकता है। पर जहाँ अकल का ही अकाल हो, वहाँ समझ का क्या काम?
तब जो हालत पैदा हो सकती है वही शासन, समाज, समुदाय, राष्ट्र और पूरे संसार की होती है। आप हालत की चिन्ता तो कर सकते हैं, किन्तु कट्टरतावाद का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि कट्टरतावाद धर्म के सुदृढ कवच के भीतर सुरक्षित होता है। वह तात्कालिक लाभ को महत्व देता है, समझौता करना तो जानता ही नहीं।
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