Thursday, 23 June 2022

The Path-less Land,

सालंब / निरालंब

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All paths take you somewhere,

Away from the self, where you are! 

You're that very Path-less Land,

Ever so near, never away far,

How could you reach, 

What is not distant, 

How could you reach, 

That is here, instant!

Who is there to reach, 

And where, one has to reach,

Are the two, the same?

Or is different each?

Yet in the beginning,

You could rely upon,

And could hold onto,

A support that helps,

You're accustomed to!

The way to self, is but nominal,

May be either formal, informal.

You can devote to some object, 

A mantra, name or a method, 

An art-form or your own God!

That is worth rewarding indeed!

Where you can easily leave aside,

All your anxiety, worries and burden,

And come out clean and wholesome!

The purified mind, tranquil and calm, 

And could but see, realize that charm! 

For yourself, what is revealed to you, 

And know for certain, who are you!

Though you've travelled many long paths,

All those, that were in imagination only,

Come to your own truth ultimately!

Come upon the sole, but, not lonely!

Now You've come to a place ultimate, 

A point of no return, to your true state!

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ध्यान या आध्यात्मिक अभ्यास दो ही प्रकार का हो सकता है :

सालंब और निरालंब। 

पहले प्रकार में मन किसी अवलंबन का सहारा लेता है और इस सहारे से धीरे धीरे शुद्ध और स्वच्छ, निर्मल और शान्त स्थिति में रहने लगता है। अन्ततः उसी सहारे या आश्रय में लीन / विलीन और समाहित होने लगता है। तब मन समाधि को जानने लगता है, किन्तु आश्रय से पुनः दूर होते रहने पर, पुनः उसे प्राप्त करने के लिए उत्कंठित होता है।

यह सालंब ध्यान हुआ। इसमें कितने ही मार्ग हो सकते हैं, और अपने लिए कोई अनुकूल मार्ग हर किसी को स्वयं ही खोजना होता है। 

दूसरे प्रकार में मन किसी भी अवलंबन का सहारा नहीं लेता, यहाँ तक कि अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना को भी त्याग देता है। स्मृति और कल्पना का आलंबन न लेने पर मन स्वयं ही विलीन हो जाता है और वह तत्व प्रत्यक्ष और प्रकट हो उठता है जिसमें कि मन, संसार तथा 'मैं' पुनः पुनः प्रकट और विलीन हुआ करते हैं।

यह निरालंब ध्यान है। इसमें सभी मार्गों को त्याग दिया जाता है और अपने ही अंतर में विद्यमान ज्योति को जानकर उसके ही आलोक का साक्षात्कार किया जाता है। 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। 

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इस प्रकार सालंब ध्यान योगमार्ग,

और निरालंब ध्यान, साङ्ख्य ज्ञान हुआ।

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