Monday, 6 June 2022

ज्ञानं परमगुह्यं

अन्वय-व्यतिरेक

(चतुःश्लोकी भागवतम्)

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अन्वय :

ज्ञानं परमगुह्यं मे यत् विज्ञान-समन्वितम् ।।

स-रहस्यं तत्-अङ्गं च गृहाण गदितं मया।।१।।

यावान् अहं यथा-भावः यत्-रूप-गुण-कर्मकः।।

तथा एव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मद्-अनुग्रहात्।।२।।

अहं एव आसम् अग्रे न अन्यत् सत्-असत्-परम्।।

पश्चात् अहं यत् एतत् च यः अवशिष्येत सः अस्मि अहम्।।३।।

ऋते-अर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत च आत्मनि।।

तत् विद्यात् आत्मनः मायां यथा आभासः यथा तमः।।४।।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषु उच्च-अवचेषु अनु।। 

प्रविष्टानि-अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेषु अहम्।।५।।

एतावत् एव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुना-आत्मनः।।

अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।६।।

एतत्-मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।। 

भवान् कल्प-विकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्।।७।।

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श्रीभगवानुवाच - हे ब्रह्मन्! मेरा जो परम गूढ-गोपनीय ज्ञान है, जो विज्ञान (विवेक अर्थात् भक्ति) से युक्त है, उसके रहस्य और उसके साधन को मैं तुम्हारे लिए कहता हूँ, सुनो! ---१

मेरे जितने रूप और भाव हैं, अर्थात् जो मेरा संपूर्ण स्वरूप और सत्ता है, जो रूप, गुण और कर्म हैं, मेरे अनुग्रह से उनके तत्त्व के साथ तुम उन्हें यथावत् विज्ञान सहित जानो। ---२

सत् और असत् से भी विलक्षण मैं ही सर्वथा सबसे पूर्व पहले, परम और प्राक्-तन था, और व्यक्त-अव्यक्त अस्तित्व की सृष्टि के पश्चात् जो हुआ, मैं ही हूँ और जो अवशिष्ट (भव्य, भावी) है, वह भी मैं ही हूँ। ---३

आत्मा में ही, जो कुछ भी अर्थ से रहित या अर्थपूर्ण भी प्रतीत होता है, उसे भी आत्मा की माया और आभासमात्र, जैसा कि अन्धकार, तमोरूपी ही जानो। --- ४

(अन्धकार केवल आभासी होता है, न कि कोई विद्यमान वस्तु और वास्तविकता, किन्तु उसके विषय में मान्यता के द्वारा ही भूल से उसे अस्तित्वमान मान लिया जाता है। --- ४)

जैसे पञ्च-महाभूत, स्थूल एवं सूक्ष्म आदि अन्य समस्त उच्चतर एवं उच्च आदि अन्य चराचर भूतों में प्रकट और अप्रकट रूप से विद्यमान, प्रविष्ट और अप्रविष्ट होते हैं, -मैं उनमें उस प्रकार से प्रविष्ट और अप्रविष्ट नहीं हूँ। --- ५

आत्मा के तत्त्व को जानने के जिज्ञासु के लिए जानने के योग्य केवल इतना ही है, और उसे चाहिए कि वह अन्वय-व्यतिरेक के उपाय से उस अविनाशी आत्मा को जो सर्वत्र और सदा है, इस रीति से जान ले। --- ६

इस परम श्रेष्ठ मत (साधन) से समाधि में निमग्न होकर, उसमें दृढ हो रहो, और तब तुम फिर कभी संकल्प-विकल्पों आदि से  मोहित नहीं होगे । --- ७

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टिप्पणी :

1. भागवतम् में श्रीभगवान् के इन वचनों से सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की महिमा वेदों से भी अधिक क्यों है। 

ऋग्वेद (मण्डल १० /१२९) नासदीय सूक्तम्* में यही जिज्ञासा की गई है कि जब न तो सत् था, न असत् ही था, व्यक्त-अव्यक्त से पूर्व क्या था?

(ऋग्वेद मण्डल १० / १२९)

भागवतम् में श्लोक ३ में इसी का उत्तर दिया गया है। 

2. अन्वय-व्यतिरेक का मर्म और व्यावहारिक प्रयोग करने के लिए भगवान् श्री शङ्कराचार्यकृत :

"निर्वाण-षटकम् स्तोत्रम्" 

से बढ़कर सहायक और सरल कुछ और शायद ही कहीं हो। इसका पाठ करते हुए अनायास ही अन्वय-व्यतिरेक का साधन भी हो जाता है। 

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।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु।। 






 



यावान् अहं यथाभावः यत्-रूप-गुण-कर्मकः । 

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