इतिहास से अब तक
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वैदिक परंपरा में नारी का सम्मान और उसकी इच्छा के अनुसार अपना स्वामी या जीवन-साथी चुनने का उसका अधिकार सदैव से स्वीकार्य रहा है। जहाँ कुछ नारियों ने माता-पिता की इच्छा का आदर करते हुए अपने चुने हुए वर का वरण किया, उसे भी स्वयंवर ही माना गया।
जहाँ तक पुरुष की बात है, एक ही पुरुष का अनेक स्त्रियों ने स्वेच्छया वरण किया, तो द्रौपदी जैसे भी अपवाद हैं, जहाँ कि परिस्थितिवश एक स्त्री ने अनेक पुरुषों का वरण किया। इसके मूल में यह वैदिक सिद्धान्त था कि विवाह का प्रयोजन है वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखा जाए। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था होने पर ही वर्णाश्रम धर्म का पालन संभव हो सकेगा।
किसी स्त्री की तुलना में पुरुष के लिए तपस्या और संन्यास का मार्ग अपनाना सामाजिक व्यवस्था में स्वाभाविक समझा जाता है, किन्तु यदि कोई स्त्री इस मार्ग का अवलंबन करना चाहे तो प्रकृति स्वयं ही इसमें उसके लिए अवरोध खड़े करती है। स्त्री के लिए संतान के प्रति ममता, उसकी उत्पत्ति और लालन-पालन प्रकृति-प्रदत्त उपहार है, जबकि पुरुष के लिए स्त्री और संतानों की रक्षा करने का दायित्व भी ऐसा ही प्रकृति-प्रदत्त कर्तव्य है।
यह संभव है कि किसी मनुष्य में अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति अधिक आग्रह हो और किसी में कम। विवाह कर लेने के पश्चात् भी कुछ मनुष्य संतान-हीन रह जाते हैं, जबकि कोई भी मनुष्य विवाह किए बिना भी संतानोत्पत्ति कर सकता है, क्योंकि विवाह प्रकृति-प्रदत्त कर्तव्य या दायित्व न होकर सामाजिक या व्यवस्था के अनुसार तय किया जानेवाला कार्य है।
इसलिए बाल-विवाह प्रकृति और वैदिक वर्ण आश्रम व्यवस्था में स्वीकृत रहा है क्योंकि बाल-अवस्था में मनुष्य ही नहीं, और भी सभी प्राणी स्वाभाविक रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। युवा होने पर ही उन्हें संतानोत्पत्ति करने की क्षमता प्राप्त होती है और यह कार्य केवल प्रजा की वृद्धि करने के लिए किया जाने वाला आवश्यक कर्तव्य है, न कि स्वच्छंद कामोपभोग करने का साधन। गीता अध्याय ७ में यही कहा गया है :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।११।।
दूसरी ओर यही काम जीवन के चार पुरुषार्थों -- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से भी एक है।
धर्म का रूप है वर्णाश्रम धर्म का आचरण करना।
और स्वाभाविक रूप से यही उचित भी है कि युवावस्था प्राप्त होने से पूर्व मनुष्य काम-चिन्तन न करे। इसके बाद युवावस्था में भी मर्यादापूर्वक ही कामोपभोग करे।
न जातु काम कामानामुपभोगेन शाम्यते।।
वह्निका कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्धते।।
(महाभारत)
अर्थात् जैसे अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त तो नहीं होती बल्कि और भी तेज हो जाती है, वैसे ही, जितना अधिक कामो-पभोग किया जाता है, कामोपभोग की लालसा सदैव बनी ही रहती है और, और भी अधिक उग्र तथा प्रबल होकर मनुष्य को अनिष्ट परिणामों की ओर ले जाती है। इससे तो पशु पक्षी आदि ही मनुष्य से अधिक विवेकशील और समझदार दिखलाई पड़ते हैं, जो कि ऋतु आने पर ही केवल संतान की उत्पत्ति करने के लिए ही संयमपूर्वक कामोपभोग में रत होते हैं।
यदि किसी मनुष्य में बचपन से ही काम-विषयक विकारात्मक कल्पनाएँ न उठें और उसकी मानसिकता ही उच्चतर भावनाओं से पूर्ण हो, तो संभव है कि युवा होने तक उसे काम की मर्यादा और महत्व का आभास हो जाए और वह काम-लालसा से ग्रस्त ही न हो। उसे यही प्रतीत हो कि मन, और इन्द्रियों को संयम में रखना अधिक आवश्यक है। उसके लिए काम मजाक, उपहास, घृणा या निन्दा का विषय नहीं होगा, न ही अनावश्यक उत्सुकता या कौतूहल का। यह सब आज के हमारे समय में अविश्वसनीय और अकल्पनीय सा ही जान पड़ता है किन्तु यही वह एकमात्र उपाय है जिससे पूरे समाज के लिए इस समस्या का निदान हो सकता है।
इसलिए जहाँ पुरुष अविवाहित रहकर आध्यात्मिक खोज और ईश्वर की प्राप्ति के लिए जहाँ अपना मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र होता है, वहीं स्त्री के लिए इतने अधिक सामाजिक बन्धन और बाधाएँ होती हैं कि उसे अपना मार्ग चुनने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
स्त्री परमात्मा को ही अपना पति मान सकती है, जैसे कि कुछ स्त्रियाँ कृष्ण को मानती हैं। यद्यपि वे इसे प्रकटतः व्यक्त न भी कर सकती हों, क्योंकि ऐसा करने पर उस पर भी समाज के स्वघोषित कर्णधार आपत्ति उठा सकते हैं। और ऐसी ही स्थिति में कोई स्वयंवरा अपने आपसे ही विवाह रचाने की कल्पना कर सकती है। यह अवश्य ही अपनी ही आत्मा का वरण करने का एक प्रकार हो सकता है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्।।२३।
(कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली २)
यही मंत्र मुण्डकोपनिषद् ३-२-३ में भी पाया जाता है।
इसलिए स्वयंवर (sologamy) तो स्त्रियों का जन्मसिद्ध अधिकार ही है यह कहना अनुचित न होगा।
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