एषः धर्मः सनातनः।।
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भारतवर्ष के संविधान में जिसे धर्म (Religion) कहा गया है, कुछ अंशों में वह सनातन धर्म से समान है, किन्तु सनातन धर्म को शास्त्रों में परिभाषा से ही नहीं, उदाहरणों के द्वारा भी स्पष्ट किया गया है, जैसे कि --
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः।।
(मनुस्मृति, ४- १८६)
बौद्ध धर्मग्रन्थ धम्मपदं में भी इसी प्रकार से कहा गया है कि वैर को कभी वैर से शान्त नहीं किया जा सकता, क्षमा से ही शान्त किया जा सकता है, और यही सनातन-धर्म है।
(अपने ब्लॉग्स में मैंने दोनों ही सन्दर्भों के स्रोत को भी उद्धृत किया है, जिसे खोज पाना अभी मेरे लिए कठिन है।)
भारत जैसे धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विभिन्न मतावलंबियों की श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा या आस्था (faith) को ही उनका अपना अपना धर्म (Religion) माना गया है और इस प्रकार से सनातन धर्म के विविध रूपों जैसे जैन, सिख, और बौद्ध मत को एक दूसरे से भिन्न भिन्न मत / धर्म / मजहब / Religion के रूप में मान्य किया गया है । इसका एक सर्वाधिक भयावह परिणाम यह हुआ है, कि हिन्दू परम्परा, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा या आस्था (faith) को, जो मूलतः सनातन धर्म पर ही आश्रित है, इन विविध रूपों में भिन्न भिन्न 'धर्मों' के रूप में मान्यता दे दी गई, जिससे कि न केवल वे ही अपनी जडों से कट गए, बल्कि 'हिन्दू धर्म' नामक एक नई अवधारणा का जन्म भी हुआ। इस प्रकार सनातन-धर्म पर आधारित हिन्दू परम्परा, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा या आस्था भी कई रूपों में खंडित हो गए।
धर्म की राजनीति करनेवालों को इससे अच्छा मौका और कहाँ मिल सकता था!
विभिन्न मतावलम्बी एक दूसरे के मत की निन्दा और आलोचना तो करते ही थे, और इतना ही नहीं मजाक उड़ाने का मौका तक हाथ से नहीं जाने देते थे। स्थिति यहाँ तक आई कि ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किए जाने को भी भावनाओं पर आघात किए जाने के नाम के बहाने से, किसी मत के पूज्य और आदरणीय महापुरुष या व्यक्ति का अपमान किया जाना कहा जाने लगा।
ऐसी स्थिति में सनातन-धर्म को माननेवाले किसी भी व्यक्ति का यह कर्तव्य और दायित्व भी है कि वह ऊपर दिए गए श्लोक की कसौटी पर अपनी वाणी की मर्यादा की रक्षा स्वयं ही करे, और न केवल अपने लिए, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए भी किसी संकट का कारण न बन जाए। यदि सदैव इस मर्यादा का ध्यान रखा जाता, तो ऐसी स्थिति निर्मित ही न होती, जिससे विभिन्न मतावलम्बियों के बीच वैमनस्य पैदा होता। क्योंकि मर्यादा की इस लक्ष्मण रेखा की अवहेलना करने का मूल्य व्यक्ति-विशेष को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र को ही महान क्षति के रूप में चुकाना होता है।
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