Wednesday, 29 June 2022

द्वे विद्ये वेदितव्ये।।

अपरा और परा विद्या

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21 जून 2022 को इस ब्लॉग में :

कारण-कार्य और क्रम-कार्य शीर्षक से लिखे पोस्ट में इन दोनों विद्याओं का उल्लेख किया था। 

कारण-कार्य तो स्पष्ट ही है। विज्ञान उसी परिप्रेक्ष्य से और उसी कसौटी पर किसी सिद्धान्त की सत्यता को सुनिश्चित करता है। 

यह अपरा विद्या है, जो ज्ञात से ज्ञात की परिसीमा में गतिशील होती है। इस प्रकार की विद्या में नया प्रतीत होनेवाला जो कुछ भी जाना जाता है, वह वस्तुतः पुराने का ही विकास होता है, न कि अज्ञात का साक्षात्। 

दूसरी ओर परा विद्या है जिसे समझने के लिए सूर्याथर्वशीर्षम् के एक मंत्र का उल्लेख करना पर्याप्त होगा :

सैषां सावित्रीं विद्यां न किञ्चिदपि न कस्मैचित् प्रशंसयेत्।। 

और इसके साथ शिव-अथर्वशीर्षम् के यह मंत्र भी दृष्टव्य है :

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते। व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो ...  यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति । अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् । एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं भूर्भुवः स्वरों नम इति।।६।।

यह मधु क्या है? भगवान् आचार्य शङ्कर ने कठोपनिषद् पर अपने भाष्य में 'मध्वदं' का यही आशय प्रकट किया है। मधु है - कर्मफल, और मधु + अद् = मध्वदं होगा -- मधु का सेवन करने वाला -- (अद् - अदादिगण की 'अद्' धातु जिसे खाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है), मध्वद -- अर्थात् वह, जो कि सुख-दुःख रूपी कर्मफलों का उपभोग करता है, अर्थात् यह विज्ञानात्मा या जीव।

कठोपनिषद् अध्याय २, वल्ली १ के मंत्र 

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।।

ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। एतद्वै तत्।।५।।

जीव अर्थात् विज्ञानात्मा, इसकी पुष्टि इससे पूर्व के मंत्रों 

येन रूपं रसं गन्धं शब्दान्स्पर्शान्श्च मैथुनान्।। 

एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते।। एतद्वै तत्।।३।।

तथा, 

स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।।

महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।।४।।

से हो जाती है।

उपरोक्त मंत्रों को कारण-कार्य के परिप्रेक्ष्य में और उस कसौटी पर देखना न्यायसंगत नहीं होगा। 

इन मंत्रों को क्रम-कार्य के परिप्रेक्ष्य में और उसी कसौटी पर ही देखना उचित होगा। 

इस प्रकार ब्रह्म-ज्ञान अर्थात् आत्म-ज्ञान जो परा विद्या है, अपरा विद्या से नितान्त विलक्षण है।

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वैसे तो कठोपनिषद् के सन्दर्भ में इस पोस्ट को हिन्दी-का-ब्लॉग में लिखा जाना चाहिए था, किन्तु कारण-कार्य और क्रम-कार्य के सन्दर्भ में इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 

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(हिन्दी-का-ब्लॉग -- vinaysv.blogspot.com ) 



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