Sunday, 5 June 2022

चतुःश्लोकी भागवतम्

बीस पच्चीस साल पहले जब यह स्तोत्र पढ़ा था तब इस पर ध्यान नहीं गया था कि यदि इस स्तोत्र में कुल ७ श्लोक हैं, तो :

"चतुःश्लोकी भागवतम्" 

नाम क्यों दिया गया! 

एक संभावना यह है कि प्रथम और द्वितीय श्लोक इस स्तोत्र की भूमिका के रूप में और अंतिम श्लोक उपसंहार के रूप में रखा गया हो! 

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श्रीभगवानुवाच 

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।।

सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया।।१।।

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।। 

तथैव तत्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्।।२।।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्।।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।३।।

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।। 

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः।।४।।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।५।।

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः।।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा।।६।।

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।।

भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्।।७।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां द्वितीयस्कन्धे भगवद्ब्रह्मसंवादे चतुःश्लोकी भागवतम् समाप्तम्।।

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इसका अन्वय और अर्थ, - अगले पोस्ट में!

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